गायत्री का ब्रह्मवर्चस

अध्यात्म की वैज्ञानिक शोध और अनास्था-संकट का निवारण

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आज का युग प्रत्यक्ष को स्वीकारता और वैज्ञानिक प्रतिपादनों को तो महत्व देता है पर चेतना के अस्तित्व को हृदयंगम करते हुये उसे श्रद्धाजन्य मान्यता देने से कतराता है इसका प्रतिफल मानवीय संवेदनाओं की उपेक्षा और उत्पीड़न के रूप में आज सर्वत्र देखा जा सकता है। यह अनास्था संकट व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन हीनता पनपती है, यही पारिवारिक जीवन की ममता और शुचिता भंग करती है। सामाजिक जीवन में अपराधों की वृद्धि उसी का प्रतिफल है उसे दूर करने के लिये यह आवश्यक हो गया है कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों की पुष्टि भौतिक सिद्धान्तों और उपकरणों के माध्यम से की जाये।

अब अध्यात्म का भी वही स्वरूप मान्य होगा जो भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों की तरह सर्वत्र एक स्वर से स्वीकारा जा सके। नवीन या प्राचीन का आग्रह न करके हमें तथ्यान्वेषी होना चाहिए और सत्य की खोज का मार्ग अपनाते हुए उन निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए जो यथार्थता के अधिकाधिक निकट हो। हर प्रतिपादन को अब इसी समीक्षा के लिए तैयार होकर आना होगा। युग अध्यात्म भी इस परख पर कसा जायगा। छूट उसे भी न मिल सकेगी। प्राचीनता की दुहाई देकर मान्यता प्राप्त कर सकने की स्थिति अब किसी की भी नहीं रही, तो फिर अध्यात्म ही उसका अपवाद कैसे हो सकता है?

भौतिक विज्ञान के विभिन्न पक्षों की साधन सम्पन्न प्रयोगशालायें समस्त संसार में अनेकों भरी पड़ी हैं। उनमें विज्ञान की अनेकों धाराओं के सम्बन्ध में शोध कार्य चलता है। अब तक विज्ञान ने जो चमत्कारी उपलब्धियां प्रस्तुत की उनका उत्पादन शोध संस्थानों में प्रयोगशालाओं में ही हुआ है उपलब्धियों का कार्यान्वन भले ही विशालकाय कारखानों में होने लगा हो पर उनके बीजारोपण अंकुर उत्पादन एवं पौद विकसित करने का कार्य तो प्रयोगशालाओं में ही हुआ है। आज समस्त मानव समाज को जिन अनेकानेक वैज्ञानिक आविष्कारों का आश्चर्यजनक लाभ मिल रहा है उन्हें प्रयोगशालाओं की ही देन कहना चाहिए। उन उद्गम स्रोतों की उपयोगिता गरिमा, आवश्यकता को जितना अधिक मान दिया जाय उतना ही कम है। यदि इन संस्थानों की स्थापना न हुई होती तो प्रगति की आदिम कालीन परम्परा हजारों वर्ष पूर्व की स्थिति में ही समस्त संसार को रख रही होती।

अध्यात्मवाद वस्तुतः चेतना को उच्चतर बनाने और उच्चतम की स्थिति तक पहुंचाने की सुनिश्चित प्रक्रिया है। ईश्वर आत्मा, कर्मफल परलोक एवं परोक्ष का दर्शन न तो संदिग्ध है और न अनावश्यक। उसकी उपयोगिता इतनी ही है जितनी कि सम्पन्नता एवं बलिष्ठता की। अध्यात्म दर्शन प्राचीन काल में जिस तरह श्रद्धा पर आधारित होते हुए भी जन जन की अंगीकृत मान्यता का अंग था उसी प्रकार आज के प्रत्यक्षवाद को भी आत्मवाद की गरिमा का विश्वास दिलाया जा सकता है। कठिनाई एक ही रही कि बुद्धिवादी युग की आवश्यकता को देखते हुए अध्यात्म सिद्धान्तों का प्रतिपादन इस तरह नहीं किया गया जैसा कि बदली हुई परिस्थितियों में अभीष्ट था। जब सब कुछ गड़बड़ा जाय तो पुनर्मूल्यांकन एवं पुनर्निर्धारण के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता। विशेषतया बुद्धिवाद का समाधान तो तभी होता है जब यथार्थता के प्रतिपादन में सदा से काम आती रही शोध प्रक्रिया के सहारे तथ्यों को प्रस्तुत किया जाये।

इस कठिन कार्य का ब्रह्मवर्चस् ने युग की महती आवश्यकता समझते हुए अपने कंधे पर वहन करने का निश्चय किया है। तदनुसार उसे एक समर्थ शोध संस्थान के रूप में विकसित किया जा रहा है। ब्रह्मवर्चस् की प्रस्तुत अनुसंधान प्रक्रिया का स्वरूप और उद्देश्य एक ही है। आत्मवाद का विज्ञान एवं दर्शन के आधार पर प्रस्तुतीकरण। इसे युग की—मनुष्य की—सामयिक आवश्यकता कहा जा सकता है। इसी मोर्चे पर हमें सुरसा जैसा संघर्ष करते हुए आगे बढ़ना है। वही किया भी जा रहा है।

शोध संस्थान के दो वर्ग हैं— 1. तात्विक अनुसन्धान 2. प्रयोगात्मक अन्वेषण परीक्षण। एक का माध्यम है स्वाध्याय सत्संग। दूसरे का यन्त्र के उपकरणों के माध्यम से वैज्ञानिक विश्लेषण। दोनों के स्थान एक कक्ष अलग-अलग हैं। जिस प्रकार आगम और निगम-योग और तन्त्र-मिल कर गायत्री शक्तिपीठ का स्वरूप बना है। उसी प्रकार ग्रन्थों की खोज-बीन एवं मनीषियों के बीच आदान-प्रदान के आधार पर अनुसंधान कार्य चला था। पदार्थों एवं प्राणियों पर आध्यात्मिक गतिविधियों का क्या प्रभाव पड़ता है इसकी जांच-पड़ताल साधन सम्पन्न प्रयोगशाला के माध्यम से सुयोग्य विज्ञान वेत्ताओं द्वारा किया जायेगा।

स्वाध्याय परक साहित्यिक अनुसन्धान की प्रक्रिया यह है कि देश-विदेश में, अध्यात्म के सन्दर्भ में जो सोचा, कहा और किया गया है उसका संकलन एक समर्थ पुस्तकालय के अन्तर्गत किया जाय। भारतीय अध्यात्म-शास्त्र का इसमें बाहुल्य होना स्वाभाविक है। पर प्रयत्न यह भी किया गया है कि अन्य भाषाओं के साहित्य का देश भर के पुस्तकालयों में से ज्ञान संचय का भी क्रम चलता रहे इसके लिए एक पूरा अध्ययन दल ही काम करता है। वही इस तरह की सारी सामग्री संकलित करेगा और अध्यात्म के सिद्धान्तों की पुष्टि करने वाली सामग्री निकालता व प्रस्तुत करता रहेगा। अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से उसकी जानकारी निरन्तर दी जाती रहेगी। जिन लोगों की इस अध्ययन में अभिरुचि हो उनके निवास की व्यवस्था भी ब्रह्मवर्चस में है। जिन नगरों में महा विद्यालय है। वहां के परिजन इस तरह की सामग्री की जानकारी भी देते रह सकते हैं इस शोध का प्रयोजन यह है कि अध्यात्म की मिलावटों और भ्रान्त धारणाओं को ढूंढ़ा हटाया और उसके स्थान पर बुद्धि संगत मान्यताओं को प्रतिष्ठापित किया जाये।

ब्रह्मवर्चस् शोध का दूसरा विभाग प्रयोग परक है। इसमें इस प्रयोग परक विद्या के भी दो भाग होंगे (1) यज्ञ और उसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राणीय जीवन वृक्ष वनस्पति और वातावरण में पड़ने वाला प्रभाव एवं प्रतिक्रिया (2) योग साधनाओं का शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक विकास में योगदान। यज्ञ चिकित्सा के सन्दर्भ में अपनाई गई प्रक्रिया का पूर्व विवरण इसी श्रृंखला की पुस्तक—‘‘गायत्री साधना और यज्ञ प्रक्रिया’’ पुस्तक में दिया जा रहा है। दूसरे का ही उल्लेख यहां पर है।

अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप जीवन क्रम बदलने पर, मानव शरीर पर क्या प्रतिक्रिया होती है। यह जानने के लिए शोध-संस्थान की प्रयोगशाला का सुनियोजित ढांचा खड़ा किया गया है। जांच पड़ताल का आधार यह है कि किसी साधना के करने से पूर्व व्यक्ति की क्या स्थिति थी? साधना करने के साथ-साथ उसमें क्या परिवर्तन आरम्भ हुआ? अधिक समय तक अभ्यास करने के उपरान्त स्थिति में क्या हेर-फेर हुआ? प्रस्तुत साधना उपक्रम उसे अपनाने वाले व्यक्ति के लिए कितना उपयोगी अनुपयोगी सिद्ध हुआ? अन्य उपायों से जो लाभ मिल सकता था, उसकी तुलना में साधना क्रम अपनाने वाला नफे में रहा या घाटे में।

साधनाएं किसी व्यक्ति की शारीरिक स्थिति पर क्या प्रभाव डालती हैं? उसकी दुर्बलता अथवा रुग्णता के निराकरण में कितनी सहायक होती हैं? मनःस्थिति पर किन्हीं साधनाओं का क्या प्रभाव पड़ता है? बुद्धि की तीव्रता सूझ-बूझ की प्रखरता, सन्तुलन-स्थिरता जैसे लाभ किस साधना के आधार पर किस सीमा तक मिल सकते हैं? साधनाओं के सहारे प्रतिभा के विकास एवं व्यक्तित्व को प्रखर बनाने में क्या कुछ सहायता मिलती है। अवसाद, आत्महीनता, निष्क्रिय चिन्तन के मनोरोगी क्या किसी साधना के सहारे अपनी स्थिति सुधार सकते हैं। क्या चंचलता को एकाग्रता में बदला जा सकता है? आतुर आवेशग्रस्तता को क्या सहिष्णुता और धैर्य में बदला जा सकता है? शौर्य साहस, पराक्रम, पुरुषार्थ जैसी मानसिक विशेषताओं का सम्वर्धन क्या साधना के सहारे संभव हो सकता है। आत्मनियन्त्रण के आधार पर मिलने वाली उपलब्धियों का लाभ किन साधनाओं के आधार पर किस परिमाण में मिल सकता है?

भौतिक पदार्थों एवं उपायों से मनुष्य जैसे लाभ उठाता है, क्या वैसे ही आत्मबल के सहारे उपार्जित किये जा सकते हैं? क्या मनुष्य के भीतर कोई दिव्य क्षमताएं है? यदि हैं तो उनका स्वरूप और उपयोगी किस प्रयोग के लिए, किस प्रकार कितनी मात्रा में किया जा सकता है। सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व के क्या प्रमाण हैं? यदि वह होता है उसे परिपुष्ट बनाने से क्या सामान्य और क्या असामान्य लाभ मिल सकते हैं? चेतना के किस स्तर के प्रसुप्त और जागृत होने पर व्यक्तित्व में अपकर्म और सत्कर्म जैसा क्या कोई अन्तर आता है? यदि आता है तो स्थिति में सुधार का क्या उपाय है?

ओजस् के नाम से जानी जाने वाली मानवी विद्युत की सामान्य मात्रा को किस प्रकार बढ़ाया जा सकता है और उससे क्या लाभ उठाया जा सकता है? तेजस् के नाम से जाने जाने वाले मनोबल का आधार और स्वरूप क्या है? जीवट, साहस एवं पराक्रम को बढ़ाने में किन साधनाओं का क्या प्रभाव पड़ता है? वर्चस् नाम से जिसे जाना जाता है, वह आत्मबल, आस्थाओं के परिवर्तन किस प्रकार सहायता दे सकता है और उसे किस प्रकार बढ़ाया जा सकता है? बुरी आदतों को सुधारने में अपने को असमर्थ पाने वाले व्यक्ति क्या उपयोगी परिवर्तन अपने उस मनोबल के सहारे कर सकते हैं? उसे कैसे पाया? और बढ़ाया जा सकता है। श्रेष्ठता के प्रतीक सद्गुणों की उपयोगिता समझते हुए मनुष्य उन्हें स्वभाव में उतार नहीं पाता, इस कठिनाई का हल क्या किन्हीं साधनाओं के सहारे निकल सकता है।

शरीर क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों के निराकरण के लिए जिस प्रकार औषधि, सुई शल्य क्रिया आदि के सहारे सुधार हो सकता है, क्या उसी प्रकार किसी पदार्थ के सहारे मनुष्य की अनास्था एवं आस्था परक विकृतियों में सुधार किया जा सकता है? क्या कोई आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति किसी दुर्बल स्तर के व्यक्ति को अपनी क्षमता विकसित करके लाभान्वित कर सकता है?

सूक्ष्म शरीर में बताये जाने वाले शक्ति केन्द्रों का अस्तित्व क्या प्रत्यक्ष परीक्षण से सिद्ध हो सकता है? यदि है तो उनकी सामर्थ्य सीमा क्या है? उन केन्द्रों को किस प्रकार शक्तिवान बनाया जा सकता है और उस सशक्तता का किस प्रयोजन के लिए क्या उपयोग हो सकता है? मनुष्य को अनैतिक ने नैतिक बनाने में क्या कोई अध्यात्म उपचार सहायक हो सकते हैं? यदि हो सकते हैं तो उन उपचारों का स्वरूप और क्रियान्वयन किस प्रकार किया जाय? आत्मबल की अभिवृद्धि से क्या मनुष्य में अधिक सत्प्रवृत्तियां उभर सकती हैं? यदि हां तो उनका लोकोपयोगी नियोजन किस प्रकार हो सकता है? हेय स्तर की आकांक्षाएं आदतों एवं आस्थाएं उलटने में जिन साधनाओं का अभीष्ट प्रतिफल हो सकता है, उसका स्वरूप क्या है? अन्न से मन बनने वाली बात कहां तक सच है? और सच है तो व्यक्तित्व में उपयोगी परिवर्तन करने के लिए आहार में क्या परिवर्तन किया जाय? किन तपश्चर्याओं और किन संयम साधनाओं का मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है। योग विज्ञान की किस धारा का उपयोग किस कठिनाई के समाधान में किस प्रकार किया जा सकता है? जप, ध्यान, प्राणायाम आदि साधनाओं के क्या कुछ प्रभाव होते हैं? यदि होते हैं तो उसका कारण क्या है? संकल्पबल की सामर्थ्य कितनी है? इसे जानने का विश्वस्थ उपाय क्या है?

मानवी सत्ता की अविज्ञान क्षमताएं क्या हैं और उन्हें किस प्रकार जगाया और काम में लाया जा सकता है? विराट ब्रह्माण्ड में भरी हुई अदृश्य भौतिक शक्तियों को क्या मानवी चुम्बक अपनी ओर आकर्षित कर सकता है? यदि कर सकता है तो कितनी मात्रा में? और किस प्रयोजन के लिए? क्या ब्रह्माण्ड में कोई चेतनात्मक प्रवाह भरा पड़ा है? यदि है तो उसके साथ किस प्रकार संबंध जुड़ सकता है और उस समागम से क्या प्रत्यक्ष और क्या अप्रत्यक्ष लाभ मिल सकता है?

क्या मनुष्य की इन्द्रिय ज्ञान सीमा तक सीमित चेतना को इतना विकसित किया जा सकता है कि वह इस सीमा से बाहर की हलचलों को जान सके? ऐसी क्षमता प्राप्त करने के लिए व्यक्तित्व को किस प्रकार अपनी चुम्बकीय क्षमता विकसित करनी पड़ती है? देवसत्ता क्या है? उसके अस्तित्व का क्या कारण है? उसका कैसा सम्पर्क किसके लिए क्या उपयोगी हो सकता है? एकाकी और सामूहिक साधनाओं की प्रतिक्रिया में क्या अन्तर रहता है? आत्मवान् मनुष्य का व्यक्तित्व अपने समीपवर्ती और दूरवर्ती क्षेत्रों में क्या प्रभाव उत्पन्न करता है? सम्पर्क और सान्निध्य का प्रभाव किस पर कितना और क्या हो सकता है?

ऐसे-ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो अध्यात्म क्षेत्र से परिचय रखने वाले प्रत्येक बुद्धिजीवी के मन में उठते रहते हैं। अनास्थावानों को यह विश्वास दिलाना ही कठिन पड़ता है, पर मनुष्य चलते-फिरते पौधों से अधिक कुछ है या नहीं? आत्मा, परमात्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म, परलोक आदि धर्म प्रतिपादनों को वे कपोल कल्पना कहते हैं। ऐसे लोगों को शोध प्रयोजनों के आधार पर उनकी शंका कुशंकाओं का निराकरण हो सकता है? बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद ही जिनके लिए सब कुछ है उनके लिए उसी आधार पर समाधान खोजने होंगे। इस सन्दर्भ में ब्रह्मवर्चस् का शोध संस्थान अगले दिनों महत्वपूर्ण उपलब्धियां उपस्थित कर सकेगा ऐसा विश्वास किया जा सकता है। इन शोधों के आधार पर यदि अनास्था को आस्था में बदला जा सके तो समझना चाहिए कि प्रस्तुत आस्था संकट का हल निकल आया और परिष्कृत दृष्टिकोण को एक सुसंस्कृति जीवनक्रम अपनाएं जाने का आधार बन गया। युग-परिवर्तन के लिए मानवी अन्तराल को बदलना होगा। यह कार्य लोकशिक्षण द्वारा तो होना ही चाहिए पर उसके पीछे तर्क, तथ्य, प्रयोग और परीक्षण-का आधार रहेगा, तो ही लोकशिक्षकों को अपनी बात वजनदार ढंग से कहने का अवसर मिलेगा शंकालु लोकमानस की स्थिति इन दिनों दूध के जले का छाछ पीने से डरना जैसी हो रही है। शास्त्र-प्रमाण और आप्तवचन अब समाधानकारक नहीं रहे बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद पर आधारित आज का भौतिक वाद इसी बात की कसौटी पर सकना चाहता है। अध्यात्म मान्यताओं के साधनों को अपनाने में जो असमंजस इन दिनों उत्पन्न हो गया है। उसी का निराकरण प्रत्यक्ष प्रमाणों के अतिरिक्त और किसी प्रकार हो नहीं सकता। विश्व मानव के समक्ष उपस्थित एक भयावह अवरोध का निराकरण करने के लिए ब्रह्मवर्चस का शोध संस्थान तत्परता के साथ कटिबद्ध हो रहा है, उसमें उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का सहज दर्शन हो सकता है।
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