गायत्री का ब्रह्मवर्चस

गायत्री उपासना से ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति

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आत्मा में सन्निहित ब्रह्मवर्चस का जागरण करने के लिए गायत्री उपासना आवश्यक है। यों सभी के भीतर सत्-तत्व बीज रूप में विद्यमान है पर उसका जागरण जिन तपश्चर्याओं द्वारा सम्भव होता है, उनमें गायत्री उपासना ही प्रधान है। हर आस्तिक को अपने में ब्रह्म तेज उत्पन्न करना चाहिए। जिसमें जितना ब्रह्म-तत्व अवतरित होगा, वह उतने ही अंशों में ब्राह्मणत्व का अधिकारी होता जायगा। जिसने आदर्शमय जीवन का व्रत लिया है, व्रतबंध, यज्ञोपवीत धारण किया है, वे सभी व्रतधारी अपनी आत्मा में प्रकाश उत्पन्न करने के लिए गायत्री उपासना निरन्तर करते रहें, यही उचित है। जो इस कर्त्तव्य से च्युत होकर इधर-उधर भटकते हैं, जड़ को सींचना छोड़कर पत्ते धोते फिरते हैं, उन्हें अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने में विलम्ब ही नहीं, असफलता का भी सामना करना पड़ता है।

साधना शास्त्रों में निष्ठावान भारतीय धर्मानुयायियों को—द्विजों को—एक मात्र गायत्री उपासना का ही निर्देश किया गया है। उसमें वे अपना ब्रह्मवर्चस आशाजनक मात्रा में बढ़ा सकते हैं और उस आधार पर विपन्नता एवं आपत्तियों से बचते हुए, सुख-शांति के मार्ग पर सुनिश्चित गति से बढ़ते रह सकते हैं। द्विजत्व का व्रत-बंध स्वीकार करते समय हर व्यक्ति को गायत्री मन्त्र की दीक्षा लेनी पड़ती है, इसलिए उसे ही गुरुमन्त्र कहा जाता रहा है। पीछे से अन्धकार युग में चले सम्प्रदायवाद ने अनेक देवी-देवता, मन्त्र और उनके उपासना विधान गढ़ डाले और लोगों को निर्दिष्ट मार्ग से भटकाकर जाल-जंजालों में उलझा दिया। फलतः अनादि काल से प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी की निर्दिष्ट उपासना पद्धति हाथ से छूट गई और आधार रहित पतंग की तरह हम इधर-उधर टकराते हुए अधःपतित स्थिति में जा पहुंचे।

शास्त्र कथन है—

ब्रह्मत्वं चेदाप्तुकामोऽस्युयास्व गायत्रीं चेल्लोककामेऽन्यदेवम् कामो ज्ञातः क्चीय पाद प्रवृत्या वादः को वा तृप्ति हीने प्रवृत्तिः । बुद्धेः साक्षी बुद्धिमम्यो जयादौ गायत्र्यर्थः साऽनघो वेद सामः तद ब्रह्मैव ब्रह्मतोपासकस्याप्येवं मंत्र कोऽस्ति तत्रे पुराणै ।।13।।
जात्यश्वः किं जातिमाप्तुं सकामो गत्यभ्यासात्स्यष्टता मेति जातिः । ब्रह्मत्वाप्तौ कः प्रयासो द्विजा नां यद गायत्र्या व्यज्यते चाष्टमेऽब्दे ।।24।।
ब्रह्मत्वस्य स्यापनार्थं प्रविष्टा गायत्रीयं तावतास्य द्विजत्वम् । कर्ण द्वारा ब्रह्म जन्म प्रदानायुक्तो वेदे ब्राह्मणो ब्रह्मनिष्ठः ।।16।।

अर्थ—यदि किसी को ब्रह्मत्व की प्राप्ति करने की इच्छा है तो उसको वेदमाता गायत्री की ही उपासना करनी चाहिये। यदि किसी लोक विशेष के प्राप्त करने की इच्छा हो तो अन्य देवों की उपासना करो। अपने चरणों में प्रवृत्ति करने से ही हार्दिक कामना का ज्ञान हो जाता है। जो तृप्ति हीन होता है, उसी की प्रवृत्ति होती है। इसमें कोई भी वाद नहीं है।

यह बुद्धि की साक्षी है। गायत्री का जो अर्थ है, वह अघ रहित, अर्थ पूर्ण पवित्र और वेदों का साररूप है, इसके जप आदि के करने में ही यह बुद्धि में गम्यमान होता है। ब्रह्मत्व प्राप्ति की जो उपासना करने वाला है, उसके लिये यह साक्षात् ब्रह्म ही है। गायत्री के समान मन्त्र और पुराण में अन्य कोई भी मन्त्र नहीं है। गायत्री मन्त्र ही सर्व शिरोमणि मन्त्र है। ।।13।।

जाति से जो अश्व है वह क्या कभी अपनी जाति की प्राप्ति करने की इच्छा वाला होता है? उसकी जाति की स्पष्टता तो उसकी गति के अभ्यास से ही तुरन्त हो जाया करती है। इसी तरह ब्रह्मत्व की प्राप्ति के लिये द्विजों का क्या प्रयास होता है, अर्थात् कुछ भी नहीं क्योंकि वह तो आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार होने पर गायत्री माता के द्वारा स्वयं ही व्यज्यमान हो जाया करता है। ।।14।।

ब्रह्मत्व के स्थापन करने के लिये ही यह गायत्री प्रविष्ट होती है और तभी से द्विजत्व की इसके द्वारा प्राप्ति हुआ करती है। कानों के छिद्रों के द्वारा ब्रह्म जन्म का ज्ञान प्रदान किया जाता है अर्थात् गायत्री का उपदेश कानों में ही किया जाया करता है। जब दीक्षा-सम्पन्न होती है, तभी वह ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण होता है—ऐसा ही वेदों में कहा गया है। ।।16।।

तात्पर्य यह है कि जन्मजात ब्राह्मण कोई भी नहीं हो सकता है। यह तो मिथ्याभिमान ही होता है, क्योंकि ब्राह्मण का भले ही कोई पुत्र हो किन्तु वह ब्राह्मण एवं द्विज तब तक नहीं हो सकता है, जब तक उसे आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार होने पर गायत्री की दीक्षा नहीं होती है। गायत्री मन्त्र ही ब्रह्मत्व प्रदान करने वाला होता है। ब्रह्मवर्चस गायत्री उपासना से ही उपलब्ध होता है। इस उपासना से देव-तत्त्वों की मानव शरीर में निरन्तर वृद्धि होती है और शक्तिशाली व्यक्ति देवत्व की महिमा, महत्ताओं को उसी जीवन में उपलब्ध कर लेता है। उसमें दैवी विशेषताएं प्रत्यक्ष परिलक्षित होने लगती हैं।

सर्व देवमयो विप्रो ब्रह्म-विष्णु शिवात्मकः । ब्रह्म तेजः समुद्भूतः सदाः प्राकृतिको द्विजः ।। ब्राह्मणै र्भुंज्यते यत्र तत्र भुङ्क्ते हरिः स्वयम् । तत्र ब्रह्मा च रुद्रश्च खेचरा ऋषयो मुनिः ।। पितरो देवताः सर्वे भुज्जन्ते नात्र संशयः । सर्व देव मयो विप्रस्तम्मात्तं नाव मानय ।। ब्राह्मणं च जननी वेद स्याग्निं श्रुतिं च गाम् । नित्य मिच्छन्ति ते देवा यजितुं कर्म भूमिषु ।।

अर्थ—ब्राह्मण सर्व देवमय और ब्रह्मा-विष्णु एवं शिव स्वरूप है। द्विजगण यद्यपि प्राकृतिक अर्थात् पंचभूतमय ही होते हैं, तो भी गायत्री के ब्रह्म तेज से उनकी उत्पत्ति होती है। जिस स्थान पर गायत्री के उपासक ब्राह्मण भोजन किया करते हैं, वहां साक्षात् स्वयं श्रीहरि ही भोजन किया करते हैं और वहां पर ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र-खेचर-ऋषि-मुनि, पितर और देवता सभी भोजन करके संतृप्त होते हैं इसमें सन्देह नहीं है, ब्राह्मण जो सावित्री के परमोपासक हैं, वे सर्वदेवमय होते हैं, इसलिये उनका कभी भी अपमान नहीं करना चाहिये। देवगण सदा यही कामना किया करते हैं कि इस कर्मभूमि में ब्राह्मण वेदमाता गायत्री-अग्नि-श्रुति और गौ—इन सबकी नित्य पूजा होती रहनी चाहिये।

गायत्री उपासना की महान् महत्ता का यह प्रतिपादन भारतीय दर्शन और योग शास्त्रों में पग-पग पर मिलता है। इतने पर भी यह देखा गया है कि कई बार विधि-विधान का पालन करते हुये भी लोग गायत्री उपासना के वह लाभ प्राप्त नहीं कर पाते जिनका इस तरह उल्लेख मिलता है। उसका कारण होता है वातावरण का प्रभाव। यह सच है कि अनेक प्राणवान व्यक्ति अपनी तप साधना और संकल्प शक्ति से वातावरण को भी बदल डालते हैं। किन्तु सच यह भी है कि मनुष्य के विकास में वातावरण का प्रभाव बहुत अधिक मात्रा में होता है। उपासना चूंकि व्यक्ति के संस्कारों से सम्बन्ध रखती है और प्रत्येक वातावरण अच्छे-बुरे संस्कार समाहित रखता है अतएव गायत्री उपासना में तो स्थान और वातावरण का महत्व निश्चित ही बहुत अधिक होना चाहिये।

इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जब कौरव पाण्डवों के युद्ध के लिये स्थान चयन की बात आई तो श्री कृष्ण ने एक विशेष दूत नियुक्त किया। उसने सर्वत्र युद्ध स्थल की छानबीन की। कुरुक्षेत्र में उसने परस्पर दो सगे भाइयों को युद्ध करते देखा यह घटना उसने श्रीकृष्ण को बताई। फलतः यही क्षेत्र युद्ध के लिये चुना गया, क्योंकि उन्हें सन्देह था भावनाशील होने के कारण कहीं अर्जुन युद्ध का परित्याग न कर बैठे। श्रवणकुमार के बारे में भी ऐसी ही कथा प्रख्यात है। वह जब अपने माता पिता को कांवर में लिये तीर्थाटन करा रहे थे तो एक स्थान ऐसा आया जहां उसने न केवल कांवर पटक दी अपितु अपने माता-पिता को कटु शब्द भी कहे। उस देश से आगे निकल जाने के बाद उसे अपने कथन पर भारी पश्चाताप हुआ। इस पर उसके पिता ने सान्त्वना देते हुये समझाया कि इसमें श्रवण का कोई दोष नहीं यह स्थान मय दानव का था जिसने कभी अपने पिता माता को यहीं बन्दी बनाकर मृत्यु के घाट उतार दिया था। कुन्ती के बारे में भी ऐसी ही घटना का उल्लेख पुराणों में मिलता है। भूमि के संस्कार एक तथ्य है इसे कोई भी पवित्र जलाशयों, देवमन्दिरों तथा श्मशान घाट में जाकर स्वयं अनुभव कर सकता है।

कुल्लू की मिट्टी सेबों के लिये प्रसिद्ध है अच्छी से अच्छी खाद, जल और मौसम पाकर भी वैसे सेब आजतक अन्यत्र कहीं नहीं उगाये जा सके। नागपुर के संतरे और भुसावल के से केले अन्यत्र नहीं मिलते। मुजफ्फरपुर लीचियों के लिये प्रसिद्ध है तो लखनऊ खरबूजों के लिये, मलीहाबाद और बनारस जैसे स्वादिष्ट आम दूसरी जगह कम मिलते हैं। दुधारू गायें सारे देश में मिलती हैं। किन्तु हरियाणा की गायों का कोई मुकाबला नहीं। कोहकाफ जैसा सौंदर्य सारी दुनिया में उपलब्ध नहीं, तो रूस का ही अजरबेजान क्षेत्र शत-जीवन के लिये विश्व विख्यात है। जहां 100 वर्ष से पूर्व मृत्यु को वैसा ही आकस्मिक माना जाता है जैसे किसी की दुर्घटना में मृत्यु हो जाये। यह सब वातावरण के प्रभाव और संस्कार हैं। उनसे प्रभावित हुये बिना मनुष्य कभी रह ही नहीं सकता, आज की परिस्थितियां तो वैसे भी सर्वत्र संस्कार विहीन हो गई हैं सो प्रयत्न करते हुये भी कई बार गायत्री उपासनाओं का अभीष्ट प्रतिफल मिल नहीं पाता। हरिद्वार में ब्रह्मवर्चस की स्थापना का उद्देश्य गायत्री की उच्चस्तरीय साधना के इच्छुकों के लिये वह सुयोग ही प्राप्त कराना है।

साधना की सफलता में स्थान, क्षेत्र व वातावरण का असाधारण महत्व है। विशिष्ट साधनाओं के लिए घर छोड़कर अन्यत्र उपयुक्त स्थान में जाने की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि पुराने निवास स्थान का ढर्रा अभ्यस्त रहने से वैसी मनःस्थिति बन नहीं पाती जैसी महत्वपूर्ण साधनाओं के लिए विशेष रूप से आवश्यक है। कुटुम्बियों के परिचित लोगों के साथ जुड़े हुए भले-बुरे सम्बन्धों की पकड़ बनी रहती है। कामों का दबाव बना रहता है। राग द्वेष उभरते रहते हैं। दिनचर्या बदलने पर कुटुम्बी तथा साथी विचित्रता अनुभव करते और उसमें विरोध खड़ा करते हैं। आहार और दिनचर्या बदलने में विग्रह उत्पन्न होता है। घरों के निवासी साथी जिस प्रकृति के होते हैं वैसा ही वातावरण वहां छाया रहता है। यह सभी अड़चनें हैं जो महत्वपूर्ण साधनाओं की न तो व्यवस्था बनने देती हैं और न मनःस्थिति ही वैसी रह पाती है। दैनिक नित्य कर्म के रूप में सामान्य उपासना तो घर पर भी चलती रह सकती है, पर यदि कुछ विशेष करना हो तो उसके लिए विशेष स्थान, वातावरण, सान्निध्य एवं मार्ग दर्शन भी चाहिए। यह सब प्राप्त करने के लिए उसके लिए उपयुक्त स्थान का प्रबंध करना वह आधार है जिस पर सफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है।

यों यह कार्य घर से कुछ दूर एकान्त वाटिका, नदी तट जैसे स्थानों में भी हो सकता है। पर सुविधा हो तो हिमालय एवं गंगा तट की बात सोचनी चाहिए। बाह्य शीतलता के साथ आन्तरिक शान्ति का भी तारतम्य जुड़ा रहता है। हिमालय की भूमि ही ऊंची नहीं है उसकी भूमि संस्कारिता भी ऊंची है। अभी भी इस क्षेत्र के निवासी ईमानदारी और सज्जनता की दृष्टि से प्रसिद्ध हैं। घोर गरीबी और अशिक्षा के रहते हुए भी उनकी प्रामाणिकता का स्तर बना हुआ है। हिमालय यात्रियों में से कभी कदाचित ही किसी को पहाड़ी कुली से बेईमानी, बदमाशी की शिकायत हुई हो।

प्राचीन काल में हिमालय क्षेत्र ही स्वर्ग क्षेत्र कहलाता था। इसके अनेकों ऐतिहासिक प्रमाण अखण्ड-ज्योति में लगातार एक लेख माला के रूप में छप चुके हैं। देव मानवों की यही भूमि थी। थियोसॉफी वालों की मान्यता है कि अभी भी दिव्य आत्माएं वहीं निवास करती हैं। चमत्कारों और सिद्धियों की खोज करने वाले प्रत्येक शोधकर्त्ता को हिमालय की कन्दराएं छाननी पड़ी हैं। हनुमान, अश्वत्थामा आदि चिरंजीवी उसी क्षेत्र में निवास करते हैं। इतिहास साक्षी है कि प्रायः सभी ऋषियों की तपश्चर्याएं इसी क्षेत्र में सम्पन्न हुई हैं। सात ऋषियों की तपोभूमि हरिद्वार के उस स्थान पर थी जहां आजकल सप्त सरोवर है। उनके आश्रमों को बचाने के लिए गंगा ने अपनी धारा को सात भागों में बांटा, यह कथा कई पुराणों में आती है। पाण्डव, धृतराष्ट्र इसी क्षेत्र में तप करते हुए स्वर्ग सिधारे थे। अयोध्या छोड़कर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न इसी भूमि में तप करते हुए दिवंगत हुए थे। गुरु वशिष्ठ की गुफा यहीं थी। व्यास जी और गणेश जी ने मिलकर 18 पुराण इसी क्षेत्र वसोधारा नामक स्थान में लिखे थे। भगीरथ, परशुराम, विश्वामित्र, दधीचि जैसे परम प्रतापी तपस्वियों की साधना हिमालय में ही सम्पन्न हुई थी।

ब्रह्मवर्चस् तपश्चर्या गायत्री की उच्चस्तरीय साधना है। इसके लिए उपयुक्त स्थान एवं वातावरण की आवश्यकता थी। इसका ध्यान प्रारम्भ से ही रखा गया है। यह आश्रम गंगा की धारा से 200 गज से भी कम दूरी पर है। सात ऋषियों की तपोभूमि के रूप में यह पौराणिक साक्षी के साथ प्रख्यात है। गंगा के मध्य सात द्वीप हैं जिन्हें छोटे-छोटे उपवन कहा जा सकता है। उनमें ऐसे सघन वृक्ष उगे हुए हैं। प्रयत्न यह रहेगा कि साधक ब्रह्मवर्चस् आश्रम में निवास तो करें पर साधना के लिए निर्जन द्वीपों में चले जाया करें जिनमें कभी सप्त ऋषि तप करते थे और वे स्थान अभी भी जन प्रवेश से वंचित रहने के कारण अपनी मौलिक विशेषता अभी भी बनाये हुए हैं। गंगा तट के शहरों का गन्दा पानी गंगा में ही बहाया जाता है। पर ब्रह्म वर्चस् तक वैसा कहीं नहीं हुआ है। इससे पूर्व ऋषिकेश, देव प्रयास, उत्तरकाशी आदि जो कस्बे हैं उनका गन्दा पानी भी गंगा में नहीं गिरा है। इस विशेषता के कारण यहां की जल धारा अभी भी अपनी मौलिक विशेषता पूर्ववत् बनाये हुए है।

गंगा तट पर साधना का ही अपना महत्व है फिर चारों ओर गंगा घिरी होने के बीचों बीच जन शून्य द्वीपों में बैठ कर साधना करने का तो प्रतिफल और भी अधिक विलक्षण होगा। नित्य गंगा स्नान-मात्र गंगा जल पान टहलना-बैठना गंगा माता की ही गोद में इन विशेषताओं के कारण ब्रह्मवर्चस् साधना के लिए उपयुक्त वातावरण की ही व्यवस्था हुई है। इसे देवी अनुग्रह एवं सहयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। आश्रम निर्माण के लिए परम सात्विक धन भी भाव भरी श्रद्धा के लिए-अपने को सार्थक बनाने के लिए-मचलता चला आ रहा है भले ही उसकी मात्रा कितनी ही स्वल्प क्यों न हो। साधना की दृष्टि से गंगा सान्निध्य का महत्व शास्त्रकारों ने इस प्रकार बताया है—

यत्र गंगा महाभागा स देशस्तत्तपोवनम् । सिद्धक्षवन्तु तज्ज्ञेय गंगातीरं सर्माश्रतम् ।। —कूर्म पुराण
जहां पर यह महाभागा गंगा है वह देश उसका तपोवन होता है। उसको सिद्ध क्षेत्र जानना चाहिए।

स्नातानां तत्र पयसि गांगे ये नियतात्मनाम् । तुष्टिर्भवति या पुंसां न सा क्रतुशतैरपि ।। —पद्म पुराण
गंगा के जल में स्नान किये हुए नियम आत्मा वाले पुरुषों को जो तुष्टि होती है वह सौ बसन्त ऋतुओं से भी नहीं होती है।

मुनयः सिद्धगन्धर्वा ये चान्ये सुरसत्तमाः । गंगातीरे तपस्तप्त्वा स्वर्गलोकेऽच्युताभवन् ।।11।। पारिजातसमाः पुष्पवृक्षाः कल्पद्रुमोपमाः । गंगातीरे तपस्तप्त्वा तत्रैश्वर्यं लभन्ति हि ।।12।। तपोभिर्बहुभिर्यज्ञैर्प्रतैर्नानाविधैस्तथा । पुरुदानैर्गतिर्या च गंगा संसेवतां च सा ।।13।। —पद्म पुराण

मुनिगण—सिद्ध लोग—गन्धर्व वृन्द और जो अन्य देवों में परम श्रेष्ठ हैं वे गंगा के तट पर तपस्या करके स्वर्ग लोक में स्थायी रूप से निवास प्राप्त कर अच्युत होते हुए ही वहां रहते हैं ।।11।। गंगा के तट पर तपश्चर्या करके वहां पर परम ऐश्वर्य का लाभ लिया करते हैं क्योंकि वहां पर जो पुष्पों वाले वृक्ष हैं वे पारिजात (देवतरु) के समान हैं और समस्त मनोकामना पूर्ण कर देने वाले कल्प वृक्षों के तुल्य होते हैं ।।12।। बहुत प्रकार के तपो से-यज्ञ और नाना प्रकार के व्रतों से तथा अधिक दानों से जो मनुष्य को गति प्राप्त होती है वही गति भागीरथी गंगा के जल में स्नानादि से प्राप्त होती है अतः इस गंगा का भली-भांति सेवन करना चाहिए ।।13।। ‘गंगोत्री माहात्म्य’ में गंगा सान्निध्य का गुणगान इस प्रकार किया गया है।

आर्त्तानामार्त्तिनाशायः मोक्ष सिद्धयै तदर्थिनाम् । सर्वेषां सर्वसिद्धयै च गंगैव शरणं कलौ ।।
दुःखियों के दुःख नाश के लिए, मुमुक्षुओं की मोक्ष सिद्धि के लिये, और सबको सब प्रकार की सिद्धि के लिए कलियुग में केवल गंगाजी ही शरण है।

रागादि चित्तदोषाश्च क्षीयन्ते तदनन्तरम् । दोषक्षये च भगवद् भक्तिर्ज्ञानं च जायते ।।
राग, द्वेष आदि चित्त के सब दोष भी उसके पश्चात् क्षीण हो जाते हैं। एवं सब दोष भी नष्ट होने पर निर्मल हुए मन में ईश्वर भक्ति तथा ज्ञान भी उदित होते हैं। सूक्ष्म ज्ञान गंगा को गायत्री कहा जाता है और उसका मूर्तिमान स्वरूप तरण तारिणी गंगा है। दोनों एक ही तत्व के यह दो रूप हैं। शिवजी के मस्तिष्क से निसृत हुई यह ज्ञान गंगा ही भागीरथी बन कर प्रकट हुई है। गायत्री और गंगा की जन्म जयन्ती भी एक ही दिन है। जेष्ठ सुदी दशमी ही गंगा और गायत्री दोनों की जन्म तिथि है। दोनों एक रूप ही समझी जा सकती हैं।

एतां विद्यां समाराध्य गंगा त्रैलोक्य पावनी । तेन साजान्ह्वो पुण्या शान्ति दा सर्वदेहिनाम् । गायत्र्या संयुता तस्या प्रभावमतुल ध्रुवम् ।

यह ब्रह्म विद्या ही त्रैलोक्य पावनी गंगा बन कर प्रकट हुई। वह प्राणियों को पवित्रता एवं शान्ति प्रदान करती है। गायत्री युक्त होने पर उसका प्रभाव और भी अतुल हो जाता है।

गंगाजल की विशेषता में ऐसे ही दिव्य कारणों का समावेश होने से उसे देव संज्ञा दी गई है। उसके स्नान से शरीर की गर्मी एवं मलीनता हटाना ही नहीं अन्तःकरण में पवित्रता का संचार होना ही प्रधान हेतु है। इसी उद्देश्य से असंख्य भावनाशील नर-नारी उसमें स्नान करने के लिए दौड़े आते हैं और अपनी धर्म भावना तृप्त करते हैं। यह अन्धविश्वास भर नहीं है, जहां गंगा की पवित्रता अभी भी अक्षुण्ण है वहां उसके तट पर कुछ समय निवास करके यह प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है कि उससे आन्तरिक शान्ति का कितना लाभ मिलता है। शहरी कोलाहल-गटरों का गन्दा पानी मिलते चलने से उनका प्रभाव घटते जाना स्वाभाविक है। किन्तु अभी भी हिमालय क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली धारा में प्राचीन काल जैसी पवित्रता का अनुभव किया जा सकता है।

सप्त ऋषियों ने अपनी तपस्थली हिमालय की छाया और गंगा की गोद में बनाई थी। भगवान राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न अयोध्या की सुविधाओं को छोड़कर गंगा तट की दिव्य विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही इस क्षेत्र में तप करने के लिए आ गये थे। तपस्वियों की परम्परा हिमालय क्षेत्र में पहुंचने और गंगा तट पर निवास करने की रही है। यह सब अकारण ही नहीं होता रहा है। तत्वदर्शी अध्यात्म विज्ञानियों ने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुकूलताओं, उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए ही इस प्रकार का चयन किया था। गंगा यों एक नदी भर है, पर सूक्ष्म दृष्टि से उसे प्रवाहमान देव-सत्ता ही कहा जा सकता है। उसके स्नान, दर्शन, जलपान आदि से सहज ही पवित्रता का संचार होता है। माता की गोदी में रहने के समान ही उसके सान्निध्य का भाव भरा आनन्द अभी भी भावनाशील लोग सहज ही उपलब्ध करते हैं।

गायत्री की विशिष्ट साधनाओं की दृष्टि से तो हिमालय क्षेत्र और गंगा तट साक्षात् गायत्री सान्निध्य की तरह हैं ही, प्राचीन काल में ऐसे अनेक शक्ति पीठों की स्थापना भी इसी उद्देश्य से की गई। तीर्थ परम्परा के पीछे ऋषियों का यही मन्तव्य रहा है कि वहां रहकर साधकगण वातावरण के संस्कारों का विशेष लाभ प्राप्त करें जिससे उनकी साधना का द्रुत विकास संभव हो सके। प्राचीन काल में यह परम्परा श्रद्धाजन्य रही है, उसका कोई वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत नहीं किया गया। पीछे यह परम्परायें भी विश्रृंखलित हुई अतएव आज का शिक्षित समुदाय उसे अंध श्रद्धा की संज्ञा देता है पर अब विज्ञान भी इस तथ्य को मानने लगा है कि चेतना के क्षेत्र में वातावरण और स्थान विशेष का प्रभाव असंदिग्ध रूप से होता है।

जीन डिक्शन की तरह पिछले दिनों योरोप और अमेरिका में ऐसे कई स्त्री-पुरुष प्रकाश में आये जो मात्र किसी की वस्तु का स्पर्श करके उसके बारे में न केवल वर्तमान अपितु भूत और भविष्य की घटनायें तक जान लेते और बता देते थे। जर्मनी में 12 वर्ष पूर्व इस सम्बन्ध में कुछ वैज्ञानिकों ने विशेष रुचि ली और यह पाया कि ऐसी घटनायें असत्य नहीं होतीं।

डा. राइन के अनुसार—‘साइकोमेट्री सिद्धान्त’ से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि प्रत्येक वस्तु में मनुष्य शरीर में रहने वाले प्राण और मन की तरह का एक सूक्ष्म प्रभाव (ईथरिक इम्प्रेशन) होता है, जो मन को प्रभावित करता है। स्पर्श से मनुष्य के मन के संस्कार उस वस्तु में चले जाते हैं। वह संस्कार पुनः उस व्यक्ति से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं इसी आधार पर वह व्यक्ति जानकारी पा लेता है।

मोन्सियन वोविन ने एक यन्त्र बनाया जो मनुष्य शरीर के रेडियेशन की माप करता है। उससे जो तथ्य सामने आते हैं उनमें एक तो यह कि उंगलियों व हथेलियों पर यह सबसे अधिक होता है। शेष शरीर का सम्बन्ध यहीं से होता है, इसलिए केवल मात्र उंगलियों से ही शरीर की विभिन्न स्थानों वाली विद्युत या जीवन-शक्ति का पता लगाया जा सकता है। अंगूठे का तो सीधे मस्तिष्क से सम्बन्ध होता है। यही नहीं उसमें जागृत ही नहीं सुषुप्ति अवस्था में भी मस्तिष्क की हलचलें प्रभाव डालती रहती हैं। भारतीय संस्कृति में चरण-स्पर्श की परम्परा ने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। उसमें महापुरुषों, बड़ों, बुजुर्गों, पवित्र नदियों और मूर्तियों को प्रणाम करके उनसे प्राण-पवित्रता, ज्ञान-संस्कार और शक्ति ग्रहण करने का यह रहस्य ही सन्निहित है। एकलव्य ने तो अपनी श्रद्धा मिट्टी के द्रोणाचार्य के चरणों में आरोपित कर दी थी। परिणाम यह हुआ कि द्रोणाचार्य को पता भी नहीं चल पाया और एक तरह से उनका सारा ज्ञान चोरी हो गया। ‘‘श्रद्धावान्लभते ज्ञानं’’ के पीछे यही मनोवैज्ञानिक नियम काम करता है, जिसे अब वैज्ञानिक मान्यता भी मिल गई है। इन सब में प्रत्येक वस्तु में मन या ईथरिक इम्प्रेशन होने, सारे संसार में एक समान ऊर्जा तत्व (कामन इनर्जेटिक रियेलिटी) होने का सिद्धान्त काम करता है। इन दोनों के संयोग से ही ज्ञान, देश, काल व पदार्थ को प्रभावित करते और इन से परे की भी जानकारी देते हैं।

प्रकृति विविधा है, पर उसमें एक ही मौलिक तथ्य काम करता है उसी से उसे ऊर्जा मिलती है। विकास के साधन मिलते हैं, अभिव्यक्ति मिलती है। यदि सभी के कारण की दिशा में लौटें तो एक ही केन्द्र-बिन्दु मिलेगा। इसी तरह सारे विश्व में एक अति चेतन मन भरा है उससे सम्पर्क सम्बन्ध बनाकर लोग प्राकृतिक रहस्यों को जान सकते हैं। कई बार प्राकृतिक रूप से क्षणिक बोध किसी को भी हो सकता है। यहां तक कि कुत्ते, बिल्लियों तथा मकड़ी तक को भी भविष्य और अतीन्द्रिय बोध होते पाया गया है। पर किसी सार्थक उपयोग और लोक कल्याण की दृष्टि से मिलने वाली शक्ति सामर्थ्य किन्हीं प्रज्ञावान् व्यक्तियों को ही मिल सकती है।

योगदर्शन के अध्याय 3 सूत्र 53 में महर्षि पातंजलि ने बताया है—
जाति लक्षण देशैरन्यतान वच्देदात्तूल्योस्तयः प्रतिपत्यिः
अर्थात्—जाति, लक्षण और देश भेद से जिन दो वस्तुओं का भेद नहीं ज्ञात होता एवं दोनों वस्तु तुल्य मालूम होती हैं, उनके भेद का ज्ञान विवेक ज्ञान से ही होता है विवेक ज्ञान को स्पष्ट करते हुए आगे यह बताया है कि लोक को तो जाति, लक्षण देश द्वारा पदार्थों का भेद ज्ञान होता है परन्तु योगियों को बिना जाति लक्षण व देश के विवेक ज्ञान के ही भेद का निश्चय होता है।

जमशेद जी टाटा के आग्रह पर स्वामी विवेकानन्द ने इसी दृष्टि से टाटानगर का स्थान उसके प्लान्ट के लिए उपयोगी बताया था जो आज भी चल रहा है। राजस्थान में एक पानी वाले महात्मा थे। स्वयं तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली के लिए जल सप्लाई हेतु उनकी सेवायें ली थीं। वे कहीं भी चलकर उस स्थान पर जल की उपलब्धि और मात्रा तक की जानकारी देते थे। यह सारी बातें इसी सिद्धान्त का समर्थन करती हैं कि मन की तरह की एक सूक्ष्म सत्ता प्रकृति में सर्वत्र कार्य करती है। इसमें ज्ञान और शक्तियां दोनों सन्निहित हैं उनसे सम्बन्ध स्थापित कर कोई भी ज्ञान, शान्ति और शक्ति प्राप्त कर सकता है। इस तथ्य की पुष्टि श्रीमती एनीबेसेण्ट ने भी की है।

‘‘न्यू वर्ल्ड आफ माइण्ड’’ के पृष्ठ 84 पर डा. राइन ने ‘‘इम्प्रिजन्ड स्प्लेन्डर’’ के अध्याय 8 में डा. रेनर जानसन ने ‘‘सुपर नार्मल फैकल्टीज इन मैन’’ में डा. आस्टी तथा डा. हेटिंगर ने अपनी पुस्तक ‘‘अल्ट्रा, परसेटिट्व फैक्टरी’’ में निम्न निष्कर्ष निकालते हुए ‘‘स्पर्श ज्ञान’’ का समर्थन करते हुए कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार निकाले हैं—

1 — वस्तु का स्पर्श करने वाले को उसके मन के सूक्ष्म संस्कार उस वस्तु में उतर आने के आधार पर पहचाना जा सकता है।
2 — एकबार तादात्म्य स्थापित हो जाने पर वस्तु का रहना आवश्यक नहीं।
3 — यदि वस्तु से व्यक्ति का सम्पर्क वर्षों पहले हुआ है और अब वह व्यक्ति नहीं भी हो तो भी उसके बारे में न केवल जाना जा सकता है अपितु उसके प्रकाश, उसकी क्षमताओं को भी जाना और ग्रहण किया जा सकता है।
4 — स्पर्श वाली वस्तु या स्थान में भौतिक व रासायनिक दृष्टि से किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता। यदि उसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन भी हो जाये तो भी वह संस्कार कहीं नहीं जाते।
5 — व्यक्ति जितना प्राणवान या शक्तिसम्पन्न हो उसी अनुपात पर अनुभूति अधिक स्पष्ट होगी।
डा. जानसन ने इस साहसिक ईथर सिद्धान्त की जो फल श्रुतियां निकाली हैं वे मन्दिरों, पवित्र जल, भस्म, देवालयों और सिद्ध पीठों की उपयोगिता का दर्शन कराते हैं। सिद्धान्त एक ही है कि ऐसे स्थानों में महापुरुषों के मन और उनके संस्कार उस भूमि के कण-कण में बस जाते हैं और उनका चिरकाल तक अस्तित्व बना रहता है। योगी आत्मा या महापुरुष इन वस्तुओं या स्थानों को अपने संकल्प बल से इतना ऊर्जा सम्पन्न बना देते हैं कि वहां आने वाले दुर्बल मनोबल के व्यक्ति भी अनुभूतियों की, साधना की सफलता और स्वल्प प्रयास में ही शक्ति पा जाते हैं। यह शक्ति आत्म विकास का तो प्राण ही है, पर उससे शारीरिक, मानसिक और सांसारिक कठिनाइयों में भी उपयोग होता है। महापुरुषों और सिद्धपीठों की यात्रायें और सत्संग इसी आधार पर आयोजित होते हैं।

ऐसे स्थानों पर ‘‘सम्मिलित मनःशक्ति’’ ‘‘एसोसियेटेड साइकिक ईथर’’ विनिर्मित हो जाता है। एक ही तरह पवित्रता के, करुणा उदारता और महानता के-संस्कार उमड़ते रहने से उस स्थान पर उन संस्कारों का पुंज बन जाता है। जिससे वहां पहुंचने वाले दुष्ट और दुराचारी कमजोर मनःस्थिति या भूत प्रेत आदि बाधाओं से ग्रस्त लोग भी जाकर प्रसन्नता अनुभव करते और शक्ति लेकर लौटते हैं। गायत्री तपोभूमि मथुरा और ब्रह्मवर्चस हरिद्वार को इसी तरह प्रयत्नपूर्वक संस्कारित किया गया है। यह संस्कार सैकड़ों वर्षों तक हिलाये नहीं हिल सकते। अपितु ऐसे स्थान पर समर्थ सत्ता की स्फुरणाओं, स्पर्शजन्य पवित्रता का, भावनाओं का चिरकाल तक लाभ लिया और अपनी उपासना को शीघ्र सफल किया जा सकता है।
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