गायत्री का ब्रह्मवर्चस

ब्रह्मवर्चस् सत्रों का स्वरूप और साधकों का प्रवेश

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युग परिवर्तन की इस पुण्य बेला में मान्यताओं, आकांक्षाओं एवं विधि व्यवस्थाओं का नये सिरे से औचित्य के आधार पर निर्धारण हो रहा है। ऐसी दशा में अध्यात्म तत्वदर्शन एवं प्रयोग विज्ञान का भी पर्यवेक्षण आवश्यक है। अवांछनीयताओं को जब हर क्षेत्र में निरस्त किया जा रहा है तो अध्यात्म के ढांचे में ही विडम्बनाओं को क्यों घुसे रहने दिया जाय। नव निर्धारण और नव निर्माण की सुविस्तृत प्रक्रिया के अन्तर्गत अध्यात्म के दार्शनिक मूल्यों को भी उनके वास्तविक रूप में ही प्रस्तुत करना पड़ेगा। उसके प्रयोग उपचार इस प्रकार के रखने होंगे जिनकी उपयोगिता नकद धर्म की तरह परखी जा सके। चिर अतीत में जिस कल्प वृक्ष का आश्रय लेकर कोटि-कोटि मानवों ने अपने को देवोपम बनाया उसको यदि उसी रूप में फिर अपनाया जाने लगे तो सत्परिणामों की दृष्टि से भी वैसी ही सुसम्पन्नता क्यों प्राप्त न होगी?

ब्रह्मवर्चस् आरण्यक में साधना उपासना की विधि-व्यवस्था इसी दृष्टि से बनायी गई है कि वह पाठशाला, व्यायामशाला, उद्योगशाला की तरह अपने सत्परिणाम असंदिग्ध रूप से प्रस्तुत कर सके। उसे आत्म साधना एवं जीवन साधना के तत्व दर्शन पर आधारित रखा गया है। आत्म परिष्कार एवं आत्म विकास उसका उद्देश्य है। इस दिशा में जिसकी जितनी प्रगति होगी वह उतनी ही मात्रा में सुसंस्कृत, समर्थ एवं सुयोग्य दृष्टिगोचर होने लगेगा। सर्व विदित है कि व्यक्तित्व की उत्कृष्टता अंतःक्षेत्र में ही उगती और बढ़ती है। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण और समर्थ पुरुषार्थ ही मिलकर मानवी प्रतिभा एवं प्रतिभा को जन्म देते हैं। यह चुम्बकत्व जिसके पास जितनी मात्रा में है वह उसी अनुपात में अपने कार्यों में विशिष्टता का समावेश किये रहता है। उसके व्यवहार में उतनी ही शालीनता भरी रहती है। यही विभूतियां हैं जो सामान्य को असामान्य बनाती हैं। प्रगति के उच्चशिखर तक जा पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

अध्यात्म के सिद्धान्त एवं प्रयोगों का वास्तविक रूप क्या है और उसके सहारे सर्वतोमुखी प्रगति का लाभ कैसे लिया जा सकता है उसी का प्रत्यक्ष प्रयोग ब्रह्मवर्चस् साधना के अन्तर्गत करवाया जा रहा है।

आस्थाओं का परिमार्जन इस उपासना पद्धति का मूलभूत उद्देश्य है। शरीर पर मन का और मन पर अन्तःकरण का आधिपत्य रहता है। अन्तःकरण में बनी हुई आस्थाएं और आकांक्षाएं ही मनुष्य के मस्तिष्क एवं शरीर को अपनी अभिरुचि के अनुरूप घसीटे-घसीटे फिरती हैं। व्यक्तित्व का वास्तविक परिष्कार आस्थाओं की गहराई संजोकर रखने वाले अन्तराल में आवश्यक परिवर्तन करने से ही संभव हो सकता है। यह कार्य कठिन है। शरीर को आहार-विहार एवं औषध उपचार से सबल बनाया जा सकता है। मस्तिष्क को स्कूली तथा अनुभव जन्य प्रशिक्षणों के आधार पर सुविज्ञ बनाया जा सकता है। व्यवहार सम्पर्क से कुशलता एवं प्रवीणता उपार्जित की जा सकती है। किन्तु आस्थाओं का ध्रुवकेन्द्र तथा आकांक्षाओं का उद्गम अन्तःकरण की जिस गहराई में पाया जाता है उस तक पहुंचने और आवश्यक हलचल उत्पन्न करने के लिए अध्यात्म विज्ञान के प्रयोग ही सफल हो सकते हैं। उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों के निर्माण में जितना योगदान ब्रह्म विद्या के तत्व दर्शन का तथा साधना के प्रयोग उपचार का हो सकता है उतना और किसी प्रकार का नहीं। नवयुग का नेतृत्व कर सकने वाली प्रतिभाओं का उत्पादन अध्यात्म अवलम्बन के अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से संभव नहीं हो सकता।

ऐसे महान कार्य स्वभावतः समय साध्य होते हैं। विद्वान और पहलवान बनने में इंजीनियर, डॉक्टर होने में कितना समय लग जाता है-कितना श्रम-साधन एवं मनोयोग लगाना पड़ता है यह सर्वविदित है। आत्म-परिष्कार की महान उपलब्धि उससे कम नहीं अधिक मूल्य देकर ही खरीदी जा सकती है। प्राचीन काल में छात्रों को गुरुकुलों में तथा प्रौढ़ों को आरण्यकों में चिरकाल तक व्यक्तित्व को विकसित करने वाली शिक्षा प्राप्त करनी होती थी। आज उसकी आवश्यकता और भी अधिक है। प्राचीन काल में दुष्टता-भ्रष्टता का इतना दौर नहीं था जितना आज है इसलिए उन दिनों साधकों को मलीनताओं से विरत करने में अधिक श्रम-समय नहीं लगता था। साधना सुसंस्कारों के संवर्धन में ही करनी पड़ती थी। आज की स्थिति में दुहरा मोर्चा संभालना पड़ता है। दुष्प्रवृत्तियों से छुड़ाना आज का अतिरिक्त श्रम है। विकास की दिशा में बढ़ सकना इन भव बन्धनों की लौह-श्रृंखला ढीली होने पर ही संभव हो सकता है। ऐसी दशा में आवश्यकता इस बात की है कि साधना अधिक समय तक अधिक संकल्प पूर्वक की जाय उसमें गुरुकुलों तथा आरण्यकों से भी अधिक समय तक संलग्न रहने का अवसर निकाला जाय, किन्तु आज की स्थिति में ऐसा नहीं दीखता। हर व्यक्ति अपनी भौतिक समस्याओं और व्यस्तताओं में इतना अधिक जकड़ा है कि उसका समय तथा श्रम अधिक समय तक उन उच्चस्तरीय प्रयोजनों में लग सकना कठिन ही दीखता है। वस्तुस्थिति को समझते हुए ब्रह्मवर्चस् साधना का न्यूनतम समय एक महीना रखा गया है। वैसे जिन्हें अधिक सुविधा हो और जिनका रोका जाना उपयुक्त भी हो उन्हें अधिक समय तक ठहरने और अधिक लाभ उठाने की भी सुविधा मिल सकती है। साधारणतया एक महीने का ही प्रयोगात्मक शिक्षण क्रम बनाया गया है।

इतनी न्यून अवधि का एक कारण तो यही है कि इन दिनों खर्चीला जीवन, पारिवारिक असहयोग, लिप्साओं में अधिक आकर्षण, अनास्था भरा वातावरण जैसे अनेक कारणों से लोग अत्यधिक व्यस्त पाये जाते हैं। अब जीवन क्रम सरल नहीं रहा, आन्तरिक दुर्बलताएं और बाह्य समस्याएं दोनों मिलकर मनुष्य को इतना विक्षुब्ध किये रहती हैं कि दैनिक समस्याओं से निपटने के अतिरिक्त आत्मबल सम्पादन जैसे परोक्ष लाभ वाले कार्य में न रुचि रह जाती है और न अवकाश की स्थिति। घर का माया मोह भी इन दिनों पूर्वकाल की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गया है। साधुओं के फेर में पड़ने से सामान्य सद्गृहस्थ की कैसी दुर्गति होती है इसे सभी जानते हैं। ऐसी दशा में घर परिवार के लिए लोग अपने प्रियजनों को साधना के फेर में पड़ने से रोकें तो वह भी समय को देखते हुए ठीक ही है। ऐसे-ऐसे अनेक कारण हैं जिन्हें देखते हुए इस ब्रह्मवर्चस जैसे उपयोगी प्रशिक्षण के लिए अधिक समय तक घर से दूर-आजीविका से विमुख रहना कठिन ही समझा जा सकता है। जिसमें आने-जाने, खाने-पीने का खर्च भी बढ़ता है। आर्थिक कठिनाइयां भी ऐसे उत्साह को ठंडा करती हैं। यह वैयक्तिक कठिनाइयों का प्रसंग हुआ जिसके कारण अधिक समय ठहर सकना, इच्छुकों, उत्सुकों एवं आस्थावानों के लिए भी कठिन पड़ता है।

दूसरा कारण ब्रह्मवर्चस आरण्यक में स्थान तथा उपयुक्त प्रशिक्षण के आवश्यक साधनों की भी उतनी बहुलता नहीं है जिसके आधार पर अधिक संख्या में अधिक साधकों को अधिक दिनों तक ठहराया जाना संभव हो सके। मिशन के सदस्यों की युग-निर्माण परिवार के परिजनों की संख्या इतनी अधिक है कि उनमें से शतांश को भी प्रशिक्षण की सुविधा देनी हो तो अधिक समय न ठहरने देने की बात ही सोचनी पड़ती है। अधिक समय का पाठ्य क्रम रखा जाय तो उससे हर वर्ष मुट्ठी भर लोग ही लाभान्वित हो सकेंगे। अन्य सभी को निराश रहना पड़ेगा। इससे अधिकांश सत्पात्रों को ही इस सुअवसर से वंचित नहीं रहना पड़ेगा वरन् एक और भी बड़ी हानि यह होगी कि युग शिल्पियों की, लोक नायकों की बड़ी संख्या में जो सामयिक आवश्यकता पड़ रही है उसका पूरा हो सकना भी कठिन हो जायगा। इन सभी तथ्यों पर विचार करते हुए यह निर्धारण करना पड़ता है कि प्रशिक्षण क्रम एक महीने का ही रखा जाय। इस छोटी सी अवधि का इस प्रकार व्यस्त कार्य क्रम बनाया जाय, इसमें सार रूप से वह सब कुछ सिखाया जा सके जिसकी सृजन-शिल्पियों को अपने व्यक्तित्वों को परिष्कृत करने तथा नव-निर्माण का कौशल उपार्जित करने की प्रारंभिक आवश्यकता पूरी करने का अवसर मिल सके। इतने पर भी यह कठोर प्रतिबंध नहीं है कि एक महीने से अधिक समय के लिए किसी को ठहरने ही नहीं दिया जायेगा। जिनकी मनःस्थिति, परिस्थिति एवं उपयुक्तता को देखते हुए अधिक दिन ठहराना आवश्यक होगा उनके लिए वैसी विशेष व्यवस्था भी बना दी जायेगी।

प्रशिक्षण तीन भागों में विभक्त किया गया है। (1) साधनात्मक-तपचर्यापरक (2) दार्शनिक-आत्म विज्ञान परक (3) सृजनात्मक-लोक साधना से संबंधित। साधकों की दिनचर्या का निर्धारण इस प्रकार होगा जिसमें शरीर निर्वाह का शौच, स्नान, भोजन, विश्राम आदि के नित्य कर्मों से बना हुआ सारा समय इन निर्धारित प्रयोजनों में ही लगा रहे। मटरगस्ती, आवारागर्दी, मनोरंजन इधर-उधर भटकने, पर्यटन-भ्रमण करने, आलस-प्रमाद में समय गंवाने की छूट किसी को भी नहीं मिलेगी। समय का एक-एक क्षण व्यस्त रखा जायेगा। आशा है कि आलसी प्रमादी, अवज्ञाकारी लोग इस व्यस्त साधना क्रम में आने का साहस ही न करेंगे। यदि कुछ घुस पड़े तो उन्हें अनुशासन हीनता फैलाने और गलत उदाहरण बनाने की सुविधा न मिल सकेगी। उन्हें बीच में से ही वापिस जाने के लिए कह दिया जायेगा। इससे कम कड़ाई अपनाये बिना साधना की सार्थकता संभव ही नहीं हो सकेगी। इस प्रकार समय का अपव्यय रोक देने पर शिक्षार्थी बंधे हुए समय का मुस्तैदी के साथ परिपालन करने पर निर्धारित तीनों विषयों में उतनी प्रगति कर सकेंगे जितनी कि इस प्रशिक्षण में सम्मिलित होने वालों से आशा की गई है।

निश्चय ही प्रशिक्षण क्रम अत्याधिक महत्वपूर्ण है। उसमें साधक के व्यक्तित्व का विकास और युग साधना का उपयुक्त कौशल की दोनों ही महान उपलब्धियां सम्मिलित हैं जिनसे शिक्षार्थी और शिक्षक दोनों ही धन्य बनते हैं। युग की सबसे बड़ी मांग—नव सृजन के उपयुक्त प्रतिभाओं की आवश्यकता की—पूर्ति की व्यवस्था बनना, इन सत्रों की सफलता पर निर्भर है। महत्व को समझा जाय। जागृत इसकी उपयोगिता समझें भी और निजी कामों की क्षति को सहन करते हुए भी इन सत्रों में आतुरता पूर्वक सम्मिलित होने का प्रयत्न करें। संख्या की दृष्टि से आवेदकों की अत्यधिक बहुलता रहना निश्चित है। ऐसी दशा में स्वीकृति देने में क्या दृष्टिकोण अपनाया जाय, क्या नीति रखी जाय, इसका निर्धारण होना आवश्यक है। इस संदर्भ में यह नियम बनाया गया है। कि जुलाई से लेकर जून तक के बारह महीनों में हर महीने 50 साधक लिये जायें। पूरे वर्ष के लिए छह सौ शिक्षार्थियों के नाम पंजीकृत कर लिए जायें। उनके स्थान सुरक्षित कर दिए जाएं, साथ ही कुछ नाम प्रतीक्षा सूची में भी सम्मिलित रखे जायें। उन्हें उस स्थिति में स्थान मिल सकेगा जब कि कोई पंजीकृत शिक्षार्थी आ सकने की असमर्थता व्यक्त करेगा। ऐसी सूचनाएं न्यूनतम एक महीने पहले देने का नियम बनाया गया है। प्रतीक्षा सूची वालों को इस प्रकार स्थान खाली होने पर वह सीट हस्तांतरित कर दी जायेगी।

प्रथम वर्ष के छह सौ साधकों को पंजीकृत करने के लिए की जाने वाली छंटनी में यह ध्यान रखा जायेगा कि वे वरिष्ठ, कनिष्ठ एवं समयदानी परिव्राजकों में से छांटे जायं क्योंकि युग परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान इसी स्तर के परिजनों का रहेगा। जो मात्र अपने ही लाभ की बात सोचते हैं जिन्हें स्वर्ग, मुक्तिः सिद्धि, शान्ति आदि में ही रुचि है। जिनके सांसारिक और आध्यात्मिक प्रयास मात्र व्यक्तिगत स्वार्थपरता की परिधि में ही सीमाबद्ध है उन्हें पीछे कभी आने वालों की फाइल में सुरक्षित रखा जायेगा। युग सृजन में उदार परमार्थ परायणता की ही आवश्यकता है। सेठ भी संत की व्यक्तिवादी मनोवृत्ति अपनाकर कोई मनुष्य समर्थ सम्पन्न बन सकता है पर उसका यह वैभव ईश्वर धर्म समाज संस्कृति की दृष्टि से कानी-कौड़ी जैसी मूल्य का भी नहीं है। आत्म साधना में आत्म परिष्कार की तपश्चर्या और उदार लोक साधना में सघन आस्था होनी चाहिए। यह तथ्य जिनमें सन्तोष जनक मात्रा में पाये जायेंगे उन्हें प्राथमिकता दी जायेगी। प्रथम वर्ष के लिए यही नीति रहेगी। उसी कसौटी पर कसकर ब्रह्मवर्चस सत्रों में हर महीने पचास की संख्या में आने वाले कुल मिलाकर छह सौ शिक्षार्थियों का स्थान सुरक्षित किया जायेगा।
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