अमर वाणी -2

परिवर्तन की अदृश्य किन्तु अद्भुत प्रक्रिया

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
पर यह परिवर्तन कितनी धूम-धड़ाके के साथ किस दिन सम्पन्न हुए यह नहीं कहा जा सकता। संस्कृति में आधुनिकता का समावेश हुआ है। पुरानी पीढ़ी की तुलना में आज का आहार-विहार ही नहीं व्यवहार, दृष्टिकोण एवं स्वभाव भी आश्चर्यजनक रीति से असाधारण रूप से परिवर्तन हो गया, पर यह नहीं कहा जा सकता कि इतना बड़ा परिवर्तन किस घड़ी मुहूर्त में सम्पन्न हुआ। बदलाव तो आया, पर उसकी गति एवं प्रक्रिया इतनी धीमी इतनी बिखरी रही कि बदल बहुत कुछ गया पर उस उलट-फेर का निश्चित समय, स्थान एंव क्रम विवेचना पूर्वक नहीं बताया जा सकता।

    शरीर की जीवकोशिकाएँ एक वर्ष के भीतर प्रायः पूरी तरह बदल जाती है। उनके जन्मने मरने का क्रम हर घड़ी जारी रहता है, किन्तु प्रत्यक्षतः वही शरीर यथावत् बना हुआ प्रतीत होता है। साँप केचुल बदलता रहता है, पर उसकी सत्ता वैसी ही बनी रहती है जैसी कि पहले थी। सूर्य अपने सौर मण्डल को समेटे महासूर्य की परिक्रमा पथ पर दु्रतगति से दौड़ता रहता है। आकाश के जिस क्षेत्र में आज हम हैं उसमें वापस लौटने में हजारों वर्ष लगेंगे। तब तक अपने दसियों जन्म हो चुके होंगे। इतने पर भी यही प्रतीत होता रहता है कि हम जहाँ के तहाँ हैं। धरती, आकाश, सूर्य, सितारे आदि अपना स्थान बदलते और अग्रगामी होते रहते हैं, पर हमें स्थिरता ही दृष्टिगोचर होती रहती है।

    युग संधि की बेला में सब कुछ तेजी से बदल रहा है भले ही उसे हम प्रत्यक्ष अनुभव न करते हों। माता के गर्भ में भू्रण आरंभ में एक बबूला मात्र होता है, किन्तु नौ मास पूरे होते-होते वह इस इस योग्य-परिपक्व हो जाता है कि प्रसव का झटका सह सके और उन्मुक्त वायुमण्डल की सर्वथा बदली हुई परिस्थितियों में साँस ले सके। यह परिवर्तन क्रम देख समझ नहीं पाते। गर्भाधान के उपरान्त प्रसव की ही प्रत्यक्ष घटना होती है इस बीज का जो विकास क्रम चलता रहता है, उसे हम प्रत्यक्ष न तो देख पाते हैं और न अनुभव करते हैं। युग परिवर्तन की प्रक्रिया भी इसी अदृश्य वास्तविकता के साथ दु्रतगति से अग्रगामी हो रही है।   (वाङ्मय २७-७.३७ से ७.३८)

दिव्य सम्भावना सुनिश्चित है :

    जो घटित होने वाला है उस सफलता के लिए श्रेयाधिकारी-भागीदारी बनने से दूरदर्शी विज्ञजनों में से किसी को भी चूकना नहीं चाहिए। यह लोभ, मोह के लिए खपने और अहंकार प्रदर्शन के लिए-ठाट-बाट बनाने की बात सोचने और उसी स्तर की धारणा, रीति-नीति अपनाये रहने का समय नहीं है। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह और परिवार को बढ़ाने की अपेक्षा स्वावलम्बी बनाने का निर्धारण किया जाय तो वह बुद्धिमत्ता भरा लाभदायक निर्धारण होगा। जिनसे इतना बन पड़ेगा वे देखेंगे कि उनके पास युग सृजन के निमित्त कितना अधिक तन, मन, धन का वैभव समर्पित करने योग्य बच जाता है, जबकि लिप्साओं में ग्रस्त रहने पर सदा व्यस्तता और अभाव ग्रस्तता की ही शिकायत बनी रहती है। श्रेय सम्भावना की भागीदारी में सम्मिलित होने का सुयोग्य, सौभाग्य जिन्हें अर्जित करना है तो हमारी ही तरह भौतिक जगत में संयमी सेवाधर्मी बनना पड़ेगा। इतना कर सकने वाले ही अगले दिनों की दिव्य भूमिका में हमारे छोड़े उत्तराधिकार को वहन कर सकेंगे। पीछे रहकर भी हमें बल देते रह सकेंगे।  (वाङ्मय २७-७.४१)
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118