अमर वाणी -2

युग परिवर्तन-नियन्ता का सुनिश्चित आश्वासन

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विश्वास किया जाना चाहिए कि यह मूर्धन्य वर्ग इन्हीं दिनों अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें अनुभव करेंगे और उस दिशा में कदम बढ़ायेंगे जिन पर चलने से सबका कल्याण ही कल्याण है। इन दिनों विपत्तियों के बरसने की वेला है। उनसे पीड़ितों को सहायता की आवश्यता पड़ेगी। धनवानों की थैलियाँ उस प्रयोजन के लिए भी काम आ सकती हैं।

इतिहास भी इस तथ्य का साक्षी है कि जब-जब भी बिगाड़ बेकाबू हुआ है, उसे नियन्त्रित करने हेतु महाकाल रूपी महावतों की मार ही सफल हो पाई है। प्रकारान्तर से इसे भगवान् के अवतार की संज्ञा भी दी जा सकती है। अदृश्य युग प्रवाह विनिर्मित होना ही प्रज्ञावतरण है। समझ जब काम नहीं करती, तब अदृश्य जगत से, परोक्ष के व्यवस्था उपक्रम से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इस धरित्री को महाविनाश के गर्त में जाने नहीं देगा जिसकी इच्छा से इस सृष्टि का प्रारूप बना व मानव रूपी युवराज जन्मा, उसे जगती का वर्तमान चोला  ही पसन्द है यह सोचना नासमझी है। नियन्ता ने सदैव सन्तुलन स्थापित करने हेतु दौड़ लगाने का अपना वचन निभाया है।
आसन्न विभीषिकाओं से डरें नहीं, समाधान सोचें

युग संधि के मध्यवर्ती बीस वर्षों में जो महान् परिवर्तन होने हैं उनमें बहुत कुछ तो अदृश्य ही रहेगा। क्योंकि परिवर्तन पदार्थों का नहीं आस्थाओं का होना है। आस्थाएँ दीखती नहीं इसलिए इस क्षेत्र की उथल-पुथल का स्वरूप समझना और विवरण लिखना किसी के लिए भी शक्य न हो सकेगा। जो दृश्यमान है चर्चा उसी की होगी। दृश्य घटनाक्रमों में एक होगा अशुभ का निराकरण, उन्मूलन। दूसरा होगा शुभ का आरोपण, अभिवर्धन। एक के लिए अनावश्यक और अवाँछनीय को हटाने की ध्वंसात्मक प्रक्रिया चलेगी और दूसरी ओर भावनात्मक नव-निर्माण के अनेकानेक आधार खड़े होंगे।     

ध्वंस और सृजन की दोनों ही प्रवृत्तियाँ अपने-अपने मोर्चे पर कमाल करती हुई दिखाई पडेंगी। इसे प्रसव पीड़ा के समतुल्य माना जा सकता है, जिससे कष्ट और रक्तपात का रोमाँचकारी घटनाक्रम भी घटित होता है। साथ ही नवजात शिशु की उल्लास भरी प्रतिमा और उसके आगमन से बनती हुई दूरगामी सम्भावना से उमंगें भी उठती हैं। बालक के पोषण की योजनायें बनती और तैयारी चलती है। पीड़ा और प्रसन्नता का जैसा अद्भूत समन्वय प्रसव पीड़ा के अवसर पर देखा जाता है ठीक वैसा ही इन बीस वर्षों में चलता रहेगा। शिशु-जन्म की उथल-पुथल कुछ घण्टे में ही निपट जाती है। नवयुवक का जन्म होने में बीस वर्ष लगते हैं जो कार्य के वजन, महत्व और विस्तार को देखते हुए कुछ अधिक नहीं है।

चर्चा ध्ंवस की चल रही है। आवश्यक नहीं कि विनाश-लीला की चपेट में मात्र अवांछनीयता ही आये। सज्जनता को भी परिस्थिति के दबाव में त्रास सहना पड़ सकता है। गेहूँ के साथ चक्की में घुन भी पीस जाता है। सूखे के साथ गीला भी जलता है। रोग कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए खाई गई औषधि स्वस्थ कणों को भी हानि पहुँचाती है। यह अपवाद तो चलते ही रहते हैं किन्तु सामान्यतया होता यही है कि गेहूँ ही पिसता है, सूखा ही जलता है, विषाणु ही मरते है। उथल-पुथल की बेला में, प्रकृति की विनाश-लीला में अवाँछनीयता का उन्मूलन ही उद्देश्य रहता है। चपेट में दूसरे भी आ जाएँ तेा बस  बात दूसरी है।

चपेट में निर्दोष दिखने वालों के आने का भी एक कारण है। यह समूची सृष्टि आत्म-सत्ता के सूत्र में बंधी है। उसका संचालन संयुक्त जिम्मेदारी के आधार पर हो रहा है सब पुर्जे मिलकर काम करते हैं तो घड़ी चलती है। संसार को समुन्नत, समाज को सुसंस्कृत रखना भी सबका सम्मिलित उत्तरदायित्व है। व्यक्तिगत सुख-शांति की तरह ही सामूहिक प्रगति और समृद्धि के लिए प्रयत्न होना चाहिए। मानवी सत्ता के साथ ईश्वर प्रदत्त यह जिम्मेदारी हर किसी पर लदी है कि वह जितना ध्यान अपनी निजी सुविधा बढ़ाने और भविष्य को बनाने पर देता है उतना ही विश्व-उद्यान को सुरम्य बनाने पर दे।
                                                               (वाङ्मय २७-६.९)
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