अपने आपको ढालने, बदलने, बनाने की सर्वोत्तम प्रयोगशाला है-अपना परिवार। अपने आपे के बाद अपना सबसे बड़ा प्रभाव क्षेत्र अपना परिवार ही होता है। उसके प्रति अपना कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व भी जुड़ा रहता है। इसलिए आत्मनिर्माण और परिवार निर्माण को एक साथ मिलाकर भी चला जा सकता है।
तैरना सीखने के लिए तालाब चाहिए। निशाना साधने के लिए बंदूक, पढ़ने के लिए पुस्तक चाहिए और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए प्रयोगशाला। यों अपनी आस्थाएँ, मान्यताएँ एकाकी भी बनाई, बदली जा सकती हैं। पर वे खरी उतरी कि नहीं, परिपक्व हुई कि नहीं? इसका परीक्षण भी होना चाहिए। इसके लिये उपयुक्त कसौटी परिवार ही हो सकता है। फिर वह ईश्वर का सींचा हुआ एक बगीचा भी है। उसे कर्मठ और कुशल माली की तरह सँभाला-सँजोया जाना भी है। विश्व-मानव के चरणों में मनुष्य अपनी श्रेष्ठतम श्रद्धांजलि एक सुसंस्कृत परिवार के रूप में ही तो प्रस्तुत करता है। परिवार निर्माण की प्रक्रिया जहाँ पुनीत उत्तरदायित्व का निर्वाह करती है वहाँ आत्म-निर्माण का पथ प्रशस्त करने में भी असाधारण रूप से सहायक होती है।
जल्दी सोने और जल्दी उठने की आदत स्वास्थ्य संरक्षण से लेकर प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त्त में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य निपटाने का अवसर पाने तक अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। संसार के जितने भी कुकर्म, अनाचार होते हैं, उनमें ७० प्रतिशत रात्रि के प्रथम प्रहर में होते हैं। वह समय जागने का नहीं। सिनेमा, शराब, व्यभिचार, जुआ, गप-शप आदि का दौर इसी प्रहर में होता है। यदि यह आध्यात्मिक विपत्ति का समय सोकर व्यतीत कर दिया जाये, तो अधिकांश बुराइयों से छुटकारा मिल जाता है और प्रातःकाल का ब्रह्ममुहूर्त्त उपासना, विद्याध्ययन, व्यायाम आदि किसी भी उपयोगी कार्य में लगाया जा सकता है। इस संदर्भ में जैन धर्म की परम्परा बहुत ही प्रशंसनीय है कि सूर्य डूबने से पहले भोजन करके निवृत्त हो जाया जाये। इसी में एक कड़ी हमें और जोड़ देनी है कि यथा सम्भव अधिक रात व्यतीत किये बिना जल्दी ही सो भी जाया जाये।
रात्रि में भोजन के बाद ज्ञान वृद्धि का सात्विक मनोरंजन चलना चाहिए, सारे परिवार को इकट्ठा करके विचार गोष्ठी चलाई जाये। घर के शिक्षितों में क्रमशः एक-एक दिन घण्टा या आधा घण्टा सत्साहित्य पढ़कर सुनाया करें और शेष सब लोग सुना करें। युग निर्माण साहित्य में इस प्रयोजन के लिए कितनी ही पुस्तकें बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। पत्रिकाओं में समाचार प्रसंग, संस्मरण तथा जीवन वृतान्त छपते हैं और भी कितने ही जीवनोपयोगी विषय रहते हैं। उन्हें पढ़ने और सुनने की पद्धति चल पड़े तो एक प्रकार से स्वाध्याय और सत्संग की आवश्यकता सहज ही पूरी होती रहेगी। कुछ ही दिन में इसका प्रभाव दीखने लगेगा और प्रतीत होगा कि इस भावनात्मक आहार को पाकर हर एक का अन्तःकरण कितना विकसित हो रहा है। अपना नित्य का स्वाध्याय इसी प्रायोजन से जुड़ा रह सकता है। पढ़ने-सुनने के बाद प्रश्नोत्तर का क्रम अपनाया जाये।
परिवार को सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने में घर के हर सदस्य को अपना योगदान देने का अवसर नित्य मिलता रहे। घर की सफाई, पुताई, फर्नीचर, साज सँभाल रंग-रोगन, कपड़े धोना, टूटी चीजों की मरम्मत, पुस्तकों की जिल्दें, हर वस्तु को नियत स्थान पर जमाना जैसे कार्यों में छोटे-बड़े सबको कुछ न कुछ समय देना चाहिए। घर में कृषि, पशुपालन, गृह उद्योग जैसे कुछ काम चलते हों, तो उसमें भी हाथ बटाने का, बाल-वृद्ध सबका यथासम्भव योगदान रहना चाहिए। घर में कुछ लोग बिस्तर घिसते रहें, कुछ मटरगस्ती करें, यह बहुत ही बुरा तरीका है। परिवार के प्रत्येक समर्थ सदस्य को यह अनुभव होना चाहिए कि उस परिवार में उसके भी कुछ कर्त्तव्य उत्तरदायित्व हैं। उसके विकास में उसका भी योगदान है। इस दृष्टि से श्रमदान की एक क्रमबद्ध व्यवस्था रहनी चाहिए।
स्वच्छता और सौन्दर्य, सुसज्जा, सुव्यवस्था, शालीनता परिवार की शान है। गन्दगी की छोटी-छोटी दुर्बलताओं पर बारीक नजर रखनी चाहिए और जहाँ कहीं आलस्य, प्रमाद, फूहड़पन बरता जा रहा हो, उसे हटाने में मिठास और सहयोग के साथ कार्य करना चाहिए। छोटों को बड़ों के साथ अशिष्टता बरतना जिस प्रकार हेय माना जाता है, ठीक वैसी ही परम्परा किसी सभ्य परिवार में बड़ों द्वारा छोटों के प्रति भी निबाही जानी चाहिए। अनुचित आचरणों या भूलों के लिए कहा सुना, समझाया, रोका जाना चाहिए, पर उसमें सज्जनता, नम्रता, शालीनता का समुचित पुट बना रहे इसका पूरा ध्यान रखा जाय। किसी का भी अपमान न किया जाये, किसी के भी स्वाभिमान को चोट न पहुँचाई जाये, भले ही वह आयु में कितना ही छोटा नितान्त अबोध बालक ही क्यों न हो। ‘तू’ का उच्चारण असभ्य माना जाये। छोटों को भी ‘आप’ न सही कम से कम ‘तुम’ तो कहा ही जाये। कन्या और पुत्र में, बहू और बेटी में किसी प्रकार का अन्तर नहीं होना चाहिए।
परिवार में हर किसी की नियत दिनचर्या होनी चाहिए। समय के विभाजन से कई तरह के कार्य करने का-यहाँ तक कि मनोरंजन और विश्राम का भी पर्याप्त समय मिल जाता है। जिन घरों में अनियमित दिनचर्या चलती है, सोने, जागने, खाने, नहाने का नियत समय नहीं रहता, वहाँ काम जरा-सा होते हुए भी सारा दिन बर्बाद हो जाता है और किसी को कभी अवकाश नहीं मिलता।
सामूहिक प्रार्थना प्रातः और सायं काल अथवा दोनों में से एक समय अवश्य ही निर्धारित रहनी चाहिए। सामूहिक गायत्री जप का उच्चारण कोई सुन्दर-सी भावपूर्ण प्रार्थना सब लोग मिलकर गाएँ। युग निर्माण सत्संकल्प का नित्य पाठ करें।
घर में हर किसी को सादगी और मितव्ययिता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। चटोरापन, फिजूलखर्ची, उद्धत शृंगार, गाली-गलौज जैसी बुरी आदतें बच्चों में भी नहीं पनपने देनी चाहिए। आमदनी और खर्च के हर मद का अनुमानित बजट बना लेना चाहिए और यथासम्भव उसी की मर्यादा में चलना चाहिए। बचत की थोड़ी गुंजाइश रखी ही जानी चाहिए।
बड़ों का आदर करना सभी सीखें। छोटे-बड़ों का चरणस्पर्श पूर्वक अभिवादन किया करें। अपने भाग से अधिक की इच्छा न करें, मिल-बाँटकर खाया जाय, इन छोटी बातों का घर में बारीकी से ध्यान रखा जाए। बड़े बच्चे छोटों को पढ़ाया करें, सँभालने, सुधारने, हँसने खिलाने, घुमाने-फिराने में सहयोग दिया करें। घर का क्रम और वातावरण ही इतना सुन्दर और सुव्यस्थित बनाया जाय कि घर में घुसते ही सारी थकान दूर हो जाय और फिर सिनेमा आदि के लिए भागने की कोई आवश्यकता ही प्रतीत न हो।
छोटे-मोटे खेल-विनोदों के साथ संगीत का अभ्यास यदि घर में चल पड़े और गीत-वाद्य का शौक लग सके तो समझना चाहिए, सरसता घर में बिखर ही पड़ेगी। बच्चों को साथ लेकर पार्क आदि में घूमने जाना, किसी त्यौहार आदि पर पिकनिक मनाना, घर के वातावरण को बहुत ही उल्लास पूर्ण बना देता है।
घर में हर किसी को स्वावलम्बी और सुसंस्कारी बनाने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया जाए। लाड़-चाव में किसी को भी फिजूलखर्ची की आदत न डालने दी जाय। बच्चों के मन पर यह संस्कार नहीं पड़ने देना चाहिए कि हमारे लिए जन्म भर के लिए हराम की कमाई खाने को छोड़ा जाएगा और हम बैठे गुलछर्रे उड़ाया करेंगे। इस प्रकार की आशा बच्चों को दिलाना या परिस्थिति बनाना संतान की नैतिक हत्या कर डालने के बराबर है। बच्चों को प्यार खूब दिया जाए पर स्वावलम्बन का अभ्यास भी कराया जाना आवश्यक है।
इस प्रकार की परम्पराएँ घर में डालने वाले गृहपति को अपने ऊपर अनेक नियन्त्रण, प्रतिबन्ध लगाने पड़ते हैं। अपने को काफी साधना, सुधारना पड़ता है, जिससे आत्मनिर्माण में भारी सहायता मिलती है, परिवार निर्माण का दुहरा प्रयोजन भी साथ-साथ सिद्ध होता चलता है।
-वाङ्मय-६६,१.२३-२५