हमारे अतिरिक्त और कहीं कोई कुछ नहीं कर रहा यह कहना तो उद्दण्ड आत्म श्लाघा और गर्वोक्ति ही होगी, पर तथ्यों के प्रगट रहते हुए यदि यह कहना पड़े कि प्रज्ञा अभियान ने इस या उस प्रकार से लोक मानस को झक-झोरने, नये ढंग से सोचने, नया कुछ करने के लिए ब्रह्म मुहूर्त की तरह अपनी व्यापक भूमिका निभाई है तो उसे विनम्रता की रक्षा करते हुए भी एक प्रत्यक्ष रहस्योद्घाटन की तरह बिना किसी संकोच, असमंजस एवं झिझक के यथार्थ बोध की तरह जनसाधारण के सम्मुख प्रगट किया जा सकता है।
इन दिनों अदृश्य जगत में आशातीत परिवर्तन हो रहे हैं। उसका सबसे बड़ा प्रमाण एक है कि नव-सृजन की उमंग जन-जन के मन में उठ रही है। प्रज्ञा अभियान के समर्थकों और सहयोगियों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है उसे देखते हुए यह अनुमान लगाने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि प्रज्ञा उभर रही है। कहीं से कोई अदृश्य तेजस्व ऐसा उभर रहा है जिससे मुँदी कलियाँ अनायास ही खिलती चली जा रही हैं। प्रज्ञा परिजनों का प्रज्ञा पुत्रों का उभरता परमार्थ परम पौरुष यह बताता है कि अदृश्य लोक में कुछ ब्रह्म-मुहूर्त जैसी, उषा-काल जैसी अतिरिक्त ऊर्जार् उभरी है। जागृत आत्माएँ नव-सृजन के लिए जिस स्तर की उमंगें तथा तत्परताएँ प्रदर्शित कर रही हैं उन्हें देखते हुए इस तथ्य का समझना सरल हो जाता है कि परिवर्तन की युगान्तरीय चेतना क्रमशः अपनी प्रखरता को प्रचण्ड ही करती चली जा रही है।
-वाङ्मय २७-७/१४
चिन्तन चेतना में उत्कृष्टता उभरे
देश के कर्णधारों का चिन्तन एक विषेश ढाँचे में ढल जाता है, कि प्रगति के लिए सम्पन्नता बढ़ाने भर से काम हो जायेगा। वे यह भूल जाते हैं कि बढ़ी हुई, सम्पन्नत का उपयोग यदि अनर्थ कृत्यों में होने लगा तो वह दरिद्रता से महँगी पड़ेगी। इसलिए घोड़ा खरीदते समय उसकी लगाम और जीन का भी प्रबन्ध करना चाहिए अन्यथा वह उच्छृंखल होकर किसी भी दिशा में धर दौड़ेगा और किसी खाई खड्ड में सवार को ले गिरेगा।
साधनों का संवर्धन करते समय इस तथ्य पर पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि उपलब्धियों का सही उपयोग बन पड़े। ऐसे दूरदर्शी विवेक से भरा पूरा लक्षण जन-साधारण को मिल रहा है या नहीं? कर्त्तृत्वों को परिष्कृत किया जा रहा है या नहीं? चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को आदर्शवादिता के रंग में रंगा जा रहा है या नहीं? उपार्जन और चिन्तन का अविच्छिन्न युग्म है। यह दोनों जब साथ-साथ रहेंगे तभी प्रसन्नता का वातावरण बनेगा। जैसे एक हाथ से ताली नहीं बजती। एक पहिए की गाड़ी दूर तक नहीं चलती, उसी प्रकार इन दोनों में से किसी एक को लेकर चल पड़ने पर अभीष्ट की उपलब्धि नहीं हो सकती और न उज्ज्वल भविष्य का आधार खड़ा किया जा सकता है।
वाङ्मय २७-७.१५/१६