अदृश्यदर्शी अपनी दिव्य दृष्टि से यही सब होते हुए देख रहे हैं। उन्हें हस्तामलकवत् यह दीख रहा है कि मनुष्य ने अपनी मर्यादा और गरिमा को तिलांजलि दे दी है। फलस्वरूप अदृश्य वातावरण विषाक्त हो गया। प्रकृति प्रतिकूलताएँ उगलने लगीं, विपत्ति बरसाने लगी और ऐसी दलदल जैसी परिस्थिति बन गई जिसकी विभीषिका विश्व विनाश जैसा संकट खड़ा किये हुए है। आशंका और आतंक से हर किसी का दिल धड़क रहा है।
उबरने का उपाय एक ही है, मानवी सुधार प्रयासों के असफल हो जाने पर उसका दूसरा उपचार आद्यशक्ति महाप्रज्ञा के अवतरण रूप में समाने आये और अपने वीरभद्रों को सुधार प्रयासों में जुटाये। विश्वास यही बन गया है कि यही होकर रहेगा। असुरता की लंका जलेगी और देवत्व उदय एवं धरती पर स्वर्ग के अवतरण वाला राम स्वयं फिर से नये में प्रकट होगा। इस प्रकटीकरण का प्रत्यक्ष प्रभाव एक ही रूप में दीख पड़ेगा कि युग-शिल्पियों की एक सृजन वाहिनी अनायास ही इन दिनों उग पड़ेगी। उसका पुरुषार्थ उन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, जिनकी कि इन्हीं घड़ियों में अविलम्ब आवश्यकता है। बुरा समय इन दिनों घिरा हुआ दीख अवश्य रहा है, पर ऐसा प्रचण्ड वायु वेग का माहौल भी बन रहा है, जो इन घटाटोपों को उड़ाकर कहीं से कहीं पहुँचा देगा।
(वाङ्मय २७-७/२०)
भावी परिर्तन की पृष्ठ भूमि
साक्षर बनने की शिक्षा चिरकाल से उपलब्ध है। स्कूलों और कालेजों में हमारे बच्चे बहुत-सी जानकारियाँ प्राप्त करते हैं और बहुज्ञ प्रतीत होते हैं। अवसर मिलता है तो अफसर भी बन जाते हैं और कई प्रकार के कौशल दिखाकर सम्पन्नता भी बटोरते हैं। येन, केन प्रकारेण प्रख्यात भी हो जाते हैं, पर इतने भर से कोई ठोस उपलब्धि हाथ नहीं लगती। बहुरूपिये, नट, बाजीगरों, जैसे कौतूहल उत्पन्न करते रहे हैं, पर वह सूत्र हाथ नहीं आते जिनके सहारे कि महान् बना जाता है।
अगले दिनों ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध करना पड़ेगा जिससे मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप एवं कर्त्तव्य-दायित्व का गंभीरतापूर्वक भान करे। साथ में ऐसा आचरण भी करे जो आत्मा की पुकार, परमात्मा के संकेत एवं युगधर्म की चुनौती स्वीकारने के लिए विवश कर सके । ऐसी शिक्षा स्कूली पाठ्यक्रम में छात्रों के लिए सम्मिलित रहेगी। अध्यापकों को अपना चरित्र उसी ढाँचे में ढला हुआ सिद्ध करना पड़ेगा। यह नियमित पढ़ाई की बात हुई जिसे स्कूली शिक्षा कहते हैं। यह आवश्यक तो है पर पर्याप्त नहीं। धर्मोपदेशकों, कर्णधारों, नेतृत्व कर सकने की स्थिति में पहुँचे हुए साहित्यकारों, कलाकारों को अपने-अपने साधनों एवं कौशल के सहारे जन-मानस में वह प्रेरणा गहराई तक पहुँचानी पड़ेगी, जिसके सहारे अपने व्यक्तित्व को विभूतिवान, प्रतिभावान, चरित्रवान और कर्त्तव्यपरायण सिद्ध कर सकें। ऐसी शिक्षा के लिए हमें अभी से तैयारी करनी होगी, जिससे कि अगली शताब्दी का जन-समुदाय आदर्शवादी, कर्मनिष्ठ और सिद्धान्तों के प्रति आस्थावान, दृढ़व्रती दृष्टिगोचर हो सके।
( वाङ्मय २७-७/२९)