नारी शक्ति का न्याय

November 1996

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मेघ छाए हुए थे । हवा सन्न थी। पानी रिमझिम-रिमझिम बरस रहा था। महल के ऊपरी खण्ड के हवाई कमरे में रानी आँखें मूँदे हुए मोतीबाई का भजन सुन रही थीं। मुन्दर जमुहा रही थी। सुन्दर बैठे-बैठे सावधानी के साथ निद्रामग्न हो गयी थी। काशी सचेत थी। भजन की समाप्ति पर रानी का ध्यान टूटा, मुन्दर की जमुहाई टूटी और सुन्दर की निद्रा समाधि भी भंग हो गयी।

उसी समय पहरे वाले ने निवेदन किया, “बरुआ सागर से एक सिपाही आवश्यक समाचार लाया है।”

रानी ने दूसरे कमरे में उसको बुलवाया। उसका आदेश था कि आवश्यक समाचार के लिए समय-कुसमय ने देखा जाए और उनको तुरन्त सूचना दी जाया करे।

रानी सहेलियों के साथ दूसरे कमरे में गयीं।

समाचार लाने वाले ने कहा- “रानी सरकार, रावली के बागियों से सरदार खुदाबख्श की लड़ाई हुई। वे घायल हो गए हैं। साल सिपाही घायल भी हुए हैं। सरदार को तलवार के घाव लगे हैं और सिपाहियों को गोलियों के। भगवान की कृपा से कोई मरा नहीं है और न किसी के लिए इस तरह का भय है। सागरसिंह भाग गया है। लड़ाई रावली में सागर सिंह के घर पर हुई थी।”

समाचार सुनकर सभी सोच में पड़ गए। सागरसिंह का नाम बुन्देलखण्ड भर में आतंक का पर्याय बन चुका था। अपने को कँवर सागरसिंह कहलवाने वाला यह डाकू जितना खतरनाक था, उससे कहीं अधिक शातिर। उसके कारण सेठ-साहूकारों का तो जीना-हराम था। उनका समूचा व्यापार ठप्प पड़ गया था। आम आदमी भी कम आतंकित न था। सागरसिंह के गिरोह के बागी जब-तब उन्हें धमकाते-सताते रहते थे। सागरसिंह और उसके गिरोह के इन्हीं उत्पातों को नियन्त्रित करने के लिए रानी ने सरदार खुदाबख्श को एक कुमक के साथ भेजा था। समाचार लाने वाला उन्हीं के समाचार बता रहा था। जिसे सुनकर वे कुछ सोचने लगी थीं।

लेकिन यह मौन ज्यादा देर तक न रहा। कुछ ही पलों में उन्होंने पूछा- “रावली बरुआ सागर से कितनी दूर है?”

समाचार लाने वाले सिपाही ने उत्तर दिया-”पाँच-छह कोस दूर है, सरकार।”

जवाब सुनकर रानी ने पूछा- “खुदाबख्श को कहाँ चोट आई है और अब क्या हाल है? लड़ाई को कितने दिन हो गए?”

“लड़ाई को आज चौथा दिन है। घाव बाहों और जाँघों में अलबत्ता ज्यादा गहरे हैं।”

“तुम्हें समाचार लाने में इतनी देर क्यों हुई?”

“बेतवा नदी इतनी चढ़ी हुई है कि नाव नहीं लग सकी। सरकार, आज दोपहर कुछ उतरी तो आ पाया हूँ।”

“ठीक है, मैं प्रबन्ध करती हूँ। तुम जाओ।” इतना कहकर रानी अपने कक्ष में लौट आयीं और अपनी सहेलियों से कहने लगीं, कल बरुआ सागर चलना चाहिए।

काशी बोली-”सरकार न जाए”। कुछ ठीक नहीं, किस समय पानी जोर से बरस पड़े, नदी चढ़ आवे। उस दिन जब आपने बरुआ सागर जाने का निश्चय किया, मैं कुछ न कह सकी थी, परन्तु आज तो मैं हठ करूंगी।”

रानी ने कुछ सोचते हुए कहा- “तुम ठीक कहती हो काशी! परन्तु स्थिति की माँग हम पर प्रबल है। यदि कल पानी न बरसा तो अच्छे घोड़ों पर चल देंगे। हाथी भी जा सकता है परन्तु मैं इस समय प्रदर्शन बचाना चाहती हूँ और वह सवारी बहुत धीमी भी है।”

“सरकार को कुछ घुड़सवार साथ ले लेने चाहिए।” मोतीबाई ने सलाह दीं

“लूँगी। दीवान रघुनाथसिंह को सबेरे सूचना दे देना।” रानी ने कहा।

“मैं भी चलूँगी।” काशीबाई का आग्रह था।

“अवश्य चलना।” आग्रह स्वीकार हुआ।

“आज्ञा हो तो मैं भी चलूँ।” मोती बाई ने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा।

“नाव न लूँगी तो घोड़े पर नदी पार कर लोगी?”

“सरकार की सेवा में रहते, मुझको आग-पानी किसी का भी डर नहीं रहा।” मोतीबाई के इस कथन पर रानी ने अपनी स्वीकृति दे दी।

रात में पानी थोड़ा-थोड़ा बरसता रहा। सवेरे बादल खुला-सा दिखाई दिया। रानी सहेलियों समेत बरुआ सागर की ओर चल दी। पच्चीस घुड़सवार साथ में ले लिए। दीवन रघुनाथविंह संग में। शीघ्र ही घाट पर दस्ता पहुँच गया। देखा की बेतवा दोनों पाट दाबे पूरे वेग से चली जा रही है।

ऊपर ज्यादा पानी बरस गया था, इसलिए बेतवा बेतहाशा इठला गयी। इवा आँधी के रूप में चल रही थीं मल्लाहों के लिए नाव का लगाना असम्भव था। अनेक घुड़सवारों के हौंसले पस्त होने लगे।

उस पार की पहाड़ियों का लहरियादार सिलसिला हरियाली से ढका पहाड़ियों की चोटी और हरियाली को चूमने के लिए नभ से उतर-उतर कर टकराते चले जा रहे थे। बेतवा का शोर आँधी का साथ पाकर तुमुल हो उठा।

रानी ने गर्दन घुमाकर मोतीबाई की ओर नजर की। वह उस पार की पहाड़ियों से टकराते मेघ-खण्डों पर दृष्टि जमाए थी।

रानी ने आज्ञा दी, “कूद पड़ो।” और वे सबसे आगे घोड़े पर पानी में घुस गयीं।

फिर क्या था, उनकी सहेलियाँ और सब घुड़सवार धार को चीरते दिखाई पड़ने लगे। रानी उनमें सबसे आगे थी।

बेतवाँ की धार पुंज के ऊपर पुंज सी दिखाई पड़ती थी। क्रम अभंग और अनन्त था। जब एक क्षण में ही अनेक बार एक जल पुँज दूसरे में संघर्ष खाता और एक दूसरे से आगे निकल जाने का अनवरत, अथक, अटूट प्रयास करता, तब इतना फेनिल हो जाता कि सारी नदी में फेन ही फेन दिखाई पड़ता था। झाग की इतनी बड़ी निरन्तर बही और उत्पन्न होती हुई राशियाँ आड़े आ जाती थीं कि घुड़सवारों को सामने का किनारा नहीं दिखाई पड़ पाता था।

लहरों के एक पल्लड़ को चीरा, उस पर के झाग को बेधा की दूसरा सामने। शब्दयम प्रवाह की निरर्थक भाषा मानो बार-बार कहती थी- बचो-बचो। सामने की उथल-पुथल से आगे बढ़े कि बग से थपेड़ पड़ी। घोड़े आँखें फोड़े नथुनों से जल फुफकारते बढ़ रहे थे। वे अपना और अपने सवार का संकट समझ रहे थे। सवार के पैर घोड़े से चिपटे हुए और उनके पैरों के नीचे घोड़े का निस्तब्ध टाप और टाप के नीचे न जाने कितनी गहराई। ववारों के चारों ओर भँवर पड़-पड़ जा रही थी। एक भँवर बनी धार की, कि दूसरी तुरन्त मौजूद। परन्तु अपनी रानी और उनकी सहेलियों को आगे देखकर किस सिपाही के मन में अधिक समय तक भय ठहर सकता था?

रानी के घोड़े का केवल सिर ऊपर, शेष भाग पानी और झाग में। रानी की कमर तक झाग, पानी और धार के साथ बहकर आया हुआ झाड़-झंखाड़। धारा की बूँदों की झड़ी उचट-उचट कर आँखों में, बालों पर और सारे शरीर पर बरस रही थी। जब कभी सिपाहियों और सहेलियों को उत्साह देता होता तो हँस-हँस कर शाबाशी देतीं- मानो प्रचण्ड बेतवा की मलिन अंजलि में मुक्ता बरसा दिये हों। धूमरे बादलों के आगे एक ओर बुलबुलों को पाँत निकल गयी। ऐसा लगा जैसे पहाड़ियों और पहाड़ियों से मिलने वाले बादलों को सफेद खौर लगा दी गयी हो।

पहाड़ों की कंदराओं में घुसे हुए, उनको आच्छादित किए हुए बादलों में होकर वह बगुलों की पंक्ति छिपती हुई सी मालुम पड़ी और फिर तितर-बितर हुई, जैसे हिलती हुई साँवली-सलोनी चादर में टँके हुए सितारे। पहाड़ पर बड़े-बड़े और सघन पेड़। गहरे, हरे श्यामल। बगुले एक पेड़ पर जा बैठे, मानो वनदेवी ने प्रभा छिटक दी हो। उस विषम धार के पार थोड़ी देर में कितना सब दिखाई दे गया।

रानी फिर हँसी। बगुलों की सफेदी से रानी के दाँतों ने तुरन्त होड़ लगा दी। वे चिल्लाकर बोलीं, देखो किनारा आ गया! मार लिया पड़ाव। थोड़ी ही देर में पूरा दस्ता नदी पार हो गया। सब भीग गए थे। परन्तु पीठ पर कसे ढके हथियार लगभग सूखे थे। घोड़े ठिठुर गए थे।

घाट पर कपड़े सुखाने, बदलने और घोड़ा को आराम देने में थोड़ा-सा समय लगा। फिर दौड़ लगी और रानी बरुआ सागर के किले में दोपहर के करीब पहुँच गयीं। बरुआ सागर किल विशाल झील के ठीक ऊपर है। झील में बरुआ नाम का बड़ा नाला गिरता है। झील को विशालता इस नाले ने दी है।

घायल सिपाही और सरदार खुदाबख्श इसी किल में पड़े हुए थे।

रानी ने तुरन्त इन सबको देखा। किसी के सिर पर हाथ फेरा, किसी की मरहम-पट्टी की देखभाल की। सिपाही अपनी रानी के स्नेह का पाकर मुग्ध और गदगद हो गए। फिर वह खुदाबख्श के पास पहुँची। खुदाबख्श ने चारपाई से उठने का प्रयत्न किया, परन्तु न उठ सका। रानी को देखते ही उसके आँसू आ गए। चरणस्पर्श करने की कोशिश की । रानी ने फिर सिर पर हाथ फेरा और पास की चौकी पर बैठ गयी। सहेलियाँ खड़ी थीं। खुदाबख्श ने रानी सागरसिंह की लड़ाई का ब्योरेवार हाल सुनाया। सारा हाल सुनकर उन्होंने पूछा, “कुछ पता चला सागरसिंह अब कहा चला गया है?”

“सरकार, गाँव वाले पता नहीं बतलाते। वे ही उनको शरण, भोजन, इत्यादि सब देते हैं। फिर भी इतना तो मालुम हो गया हो कि वह पड़ोस के जंगल में है।” खुदाबख्श का यह जवाब सुनकर रानी कहने लगी, “गाँव वाले डाकुओं से डरते हैं। उनके पास निर्भय होने का कोई साधन नहीं है। अँग्रेजी राज्य ने पंचायतों का सर्वनाश कर दिया है, इसलिए गाँवों से परस्पर सहायता की प्रणाली उठ-सी गयी है और उसने डाकुओं की सहायता देने का रूप पकड़ लिया है। देखूँगी, तुम चिन्ता न करो।”

सन्ध्या के पहले बरुआ सागर के मुखिया और पंच रानी से मिलने के लिए आए। नजर न्यौछावर हुई। रानी ने सबसे कुशल-क्षेम वार्ता की। जब एकान्त पाया, थानेदार ने रानी का सागरसिंह के विषय में सूचना दी। मालुम हुआ कि खिसनी के जंगल में आश्रय पाए हुए है। खिसनी का जंगल बरुआ सागर से बारह मील था। थानेदार को उन्होंने आदेश दिया।

“सबेरे आठ बजे तैयार रहना। किसी को मालुम न होने पावे।”

सबेरे उनके आदेश के मुताबिक सब तैयार हो गए।

रानी अपनी बरुआ सागर के थाने की टुकड़ी के लिए हुए चल दीं। उन्होंने इस टुकड़ी के दो भाग किए। एक को दीवान रघुनाथसिंह की अधीनता में रावली की ओर रवाना किया और दूसरी को स्वयं लेकर खिसनी के जंगल की ओर चल दीं।

दीवान रघुनाथसिंह ने सागरसिंह की हवेली घेर ली। एक गाँव वाले से कहलवा भेजा, हथियार डालकर मेरे पास आ जाआ। रानी साहब कुछ रियायत कर देंगी, नहीं तो हवेली की ईंट से ईंट बजा दूँगा।

गाँव वालों ने कहा, “कुँवर सागरसिंह हवेली में नहीं हैं।”

“तब तो हवेली को पटक देने में और भी सुभीता रहेगा।”रघुनाथसिंह ने डपट कर कहा। लेकिन जब उनको निश्चय हो गया कि सागरसिंह हवेली में नहीं है, उन्होंने रानी के पास सन्देशा खिसनी की ओर भेज दिया। खुद हवेली का घेरा डाले रहे।

रानी जब जंगल घेरने की योजना बना रही थी? तभी उनका सन्देश मिला। उनका मन कह रहा था कि सागरसिंह इसी डाँग में है।

गुप्तचर ने घण्टे भर के भीतर सूचना दी-”दो पहाड़ियों की दुन के सिरे पर एक बड़ी-सी झोंपड़ी में बागी खाने-पीने के सरंजाम में लगे हैं। उनके पास घोड़े हैं।

रानी ने दोनों पहाड़ों की ऊँचाइयाँ बन्दूक वालों से घिरवा लीं और दुन के सिरे पर भी कुछ आदमी भेज दिए। स्वयं तीनों सहेलियों और मोतीबाई के साथ दुन के निकास पर दो कतारों में ओट लेकर घोड़ों समेत ठहर गयीं।

उनकी आज्ञा थी कि ऊपर वाले सिपाही धीरे-धीरे दुन की डाल की ओर बढ़े और जब डाकुओं के जरा निकट आ जाएँ, तब बन्दूकों से फायरिंग करेंगे।

ऐसा ही किया गया।

डाकू बेहद हड़बड़ा गए। खाना-पीना और साज-समान छोड़, घोड़ों की नंगी पीठ पर सवार हुए और दुन के निकास की ओर भागे। निकास पर पहुँचते ही उनके ऊपर सामने से पाँच बन्दूकें चलीं। घोड़े मरे, डाकू घायल हुए। उन लोगों ने बन्दूकों से जवाब दिया परन्तु रानी का दल आड़ लिए हुए था। इसलिए कोई कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

डाकू सिर पर पैर रखकर भागे।

काशी, सुन्दर और मोतीबाई ने अलग पीछा किया।

रानी और सुन्दर के पास से जो डाकू घोड़े पर सवार, जरा पीछे निकला, वह सतर्क था। नंगी तलवार हाथ में, गले में सोने की जंजीर, वस्त्र भी उसके अच्छे थे। जो वर्णन उनको सागरसिंह का मिला था, उससे इस डाकू सवार की हुलिया मिलती थी। रानी ने निर्णय किया कि यही सागरसिंह है। रानी ने मुन्दर को मुस्करा कर इशारा किया। मुन्दर ने होठ दाबे और सपाटे के साथ उस पर टूटी। रानी दूसरी बगल से। सागरसिंह ने घोड़ा तेज किया। इन दोनों ने पीछा किया। जब तक मार्ग ऊबड़-खाबड़ रहा, सागरसिंह बचता हुआ चला गया। जब मार्ग कुछ समतल आया, जमीन मुलयम और कीचड़ भरी मिली सागरसिंह का घोड़ा अटकने लगा। रानी और मुन्दर के घोड़े बहुत प्रबल थे- दोनों काठियावाडी और वे दोनों ही सागरसिंह से कही अधिक कुशल घुड़सवार भी थीं। सागरसिंह को एक ओर से मुन्दर ने दबाया और दूसरी ओर से रानी ने।

रानी के गले में हीरों का दमदमाता कण्ठा डाले थी। उनके चेहरे पर छायी दिव्य आभा की चमक से सागरसिंह की आंखें झपक गयी। वह देखते ही समझ गया कि जिस रानी लक्ष्मीबाई के बारे में बहुत सुना जाता है वह स्वयं आज, इसी क्षण उसके प्राणों की ग्राहक बनकर आ कूदी है।

बुन्देलखण्ड को अपने दुस्साहसी कारनामों से कँपाए रखने वाले इस खतरनाक डाकू को आज भली प्रकार अहसास हो गया कि नारी जिसे वह अबला समझता रहा है, कितनी बलवान है। वह शक्तिस्वरूपा है, समर्थ शक्ति का पुँज है। इसके पहले वह और कुछ करे, कि रानी ने डपटकर कहा, “खबरदार! यदि ज्यादा कुछ करने की कोशिश की तो तलवार मुँह में ठूँस दूँगी।”

सागरसिंह को रानी और मुन्दर के बल की प्रतीति हो गयी थी और उसने अपनी रक्षा को अपने भाग्य के हवाले कर दिया। थोड़ी दूर चलने पर झाँसी की सेना का दस्ता आ धमका। सागरसिंह उस वज्रपाश में से निकला और रस्सियों से बाँध दिया गया। घोड़े पर लादकर यह टुकड़ी एक जगह ठहर गयी। मोतीबाई, काशी और सुन्दर की बाट देखने लगी। रानी ने बिगुल बजवाया। वे तीनों थोड़ी देर में उस स्थल पर आ गयीं। मालुम हुआ कि बाकी डाकू निकल भागे। दीवान रघुनाथसिंह को समाचार देकर रानी बरुआ सागर चली आयीं। उन्होंने कहा,”ये भागे हुए डाकू इस समय हाथ नहीं लगेंगे। समय काफी हो चुका है। बरुआ सागर संध्या के पहले पहुँच जाना चाहिए।

समय पर सागरसिंह रानी के सामने पेश किया गया।

रानी ने पूछा, “तुम्हारा नाम?”

उसने उत्तर दिया, “कुँवर सागरसिंह, श्रीमन्त सरकार।”

रानी मुस्कराई। सागरसिंह उस मुसकराहट से काँप गया। रानी कहा- “कुँवर होकर यह निकृष्ट आचरण कैसा?”

सागरसिंह बोला, “सरकार हमारा वंश सदा लड़ाइयों में भाग लेता रहा है। महाराज ओरछा की सेवा में लड़ा। महाराज छत्रसाल की सेवा में रहकर युद्ध किए। जब अँग्रेज आए तब उनकी आधीनता जिन ठाकुरों ने स्वीकार नहीं की, उनमें हम लोग भी थे। हमको जब दबाया गया, हम लोग बिगड़ खड़े हुए और डाके डालने लगे। मैं अपने लिए और अपने साथियों के लिए गंगाजी की शपथ लेकर कह सकता हूँ कि हम लोगों ने स्त्रियों और दीन-दरिद्रों को कभी नहीं सताया।”

रानी ने कह- “इन दिनों जिन लोगों ने यहाँ तुमने डाके डाले, वे सब मेरी प्रजा हैं, अँग्रेजों की नहीं। डाके के लिए दण्ड प्राणों का है। तैयार हो जाए। तुम्हारे साथी भी न बचेंगे और तुम्हारे उनके घर। मिट्टी में मिलवा दूँगी।”

सागरसिंह ने कनखियों से रानी की आँखों की ओर देखा। उसने इतनी बड़ी, ऐसी कजरारी प्रभापूर्ण आँखें न देखी थीं। उसको ऐसा लगा मानो साक्षात् दुर्गा सामने खड़ी है।

वह बोला, “सरकार, मैं कुछ प्रार्थना कर सकता हूँ?”

रानी ने अनुमति दी।

सागरसिंह ने प्रार्थना की, मुझको प्राणदण्ड गोली या तलवार दिया जावे, फाँसी से नहीं। यदि फाँसी दी गयी तो मेरा और जाति भर का अपमान होगा। बागी बढ़ जावेंगे। घटेंगे नहीं सरकार।”

“तुमको यदि छोड़ दूँ तो क्या करोगे?”

“श्रीमंत सरकार के सामने झूठ नहीं बोलूँगा। यदि काम न मिला तो फिर डाके डालूँगा, परन्तु सरकार के राज्य में नहीं।”

“यदि मैं कहूँ कि तुम डाके बिलकुल न डालो तो इसके बदले में क्या चाहोगे?”

“सरकार की सेना में नौकरी।”

“तुम्हारे कितने साथी हैं?”

“जंगल में पन्द्रह-सोलह थे। गाँव में साठ-पैंसठ हैं और अदृश्य सहायक मेरे सब नातेदार।”

“वे लोग क्या करेंगे।”

“सरकार की आज्ञा हुई, तो सरकार की सेना में मेरे साथ नौकरी।”

“तुम सबसे बड़ी सौगंध किसकी मानते हो?”

“गंगाजी की, अपनी तलवार की और सरकार के चरणों की।”

“मैं तुमको छोड़ती हूँ सागरसिंह। सौगंध खाओ और अपने साथियों सहित झाँसी की सेना में भरती हो जाओ।”

रानी के इस कथन पर सागरसिंह एक पल के लिए अचरज में पड़ गया। उसे इतनी आसानी से अपने क्षमादान की आशा नहीं थी। उसे अपने अंतर्मन की गहराइयों में अनुभव हुआ कि नारी समर्थता में, नहीं-नहीं, क्षमा-करुणा में भी पुरुष से श्रेष्ठ है। नारी के लिए ‘देवी’ का पर्याय सर्वथा उचित है। वह भावों से भर गया। भावनाओं के वशीभूत होकर वह उनके पैरों पर गिर पड़ा, उसकी आँखों से श्रद्धा बिन्दू झर रहे थे। जो सामने बैठी उस देवी का श्रद्धार्चन कर रहे थे, जिसे इतिहास झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई के नाम से जानता है।


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