समाज-व्यवस्था संबंधी वर्तमान अवधारणा में अपराध और अपराधी के लिए दण्ड का पूरा-पूरा प्रावधान होने के बावजूद देखने में यही आता है कि यह दोनों ही सम्प्रति ‘दिन दूनी रात चौगुनी’ गति से बढ़े हैं ; जबकि सजा का विधान सिर्फ इसलिए किया गया था कि अपराध और अपराधी पर अंकुश लगाकर समाज को स्वस्थ बनाया जा सके; पर ऐसा न हो सका, आखिर क्यों ?
इसके लिए पूर्ववर्ती समाज-व्यवस्था पर दृष्टिपात करना होगा और देखना होगा कि वह कौन-सा तत्व था, जो समाज को अपराध-मुक्त बनाये हुए था। गम्भीर अन्वेषण से एक ही तथ्य उभरकर सामने आता है कि तब अध्यात्म चेतना की जनजीवन में इतनी गहरी पैठ थी कि छोटी-से-छोटी भूल को भी नैतिक अपराध की श्रेणी में गिना जाता और उसके परिमार्जन-परिष्कार के लिए प्रायश्चित प्रक्रिया से गुजरकर अपराध बोध का परिचय दिया जाता। जहाँ इतना कठोर आत्मानुशासन हो, वहाँ उच्छृंखल आचरण भला कैसे बन पड़े। धीरे-धीरे यह अनुशासन घटता चला गया और आज स्थिति एकदम विपरीत हो गयी। आत्मानुशासन विधि-शासन बन गया। अन्दर का अनुशासन घटा, तो संतुलन-सुव्यवस्था के लिए बाह्य शासन जरूरी हो गया। इसी पृष्ठभूमि में कानून और दण्ड का विधान बना।
भिन्न-भिन्न समय और संस्कृतियों में यह विधान भिन्न-भिन्न थे और उनमें अपराध की परिभाषा भी पृथक थी। उदाहरण के लिए , भौतिक विज्ञान के विकास काल को लिया जा सकता है। तब लिखने और बोलने की स्वतंत्रता सीमित थी और प्रचलित मान्यता के विरुद्ध कुछ भी कहना अपराध माना जाता था, जिसके अंतर्गत कर्त्ता को दण्ड स्वरूप कठिन यंत्रणाओं से होकर गुजरना पड़ता । ब्रूनो से लेकर गैलीलियो तक को इसी कारण जीवन से हाथ धोना पड़ा। ब्रूनो को तो जिन्दा जला दिया गया, जबकि कोपरनिकस और गैलीलियो की कठोर यातनाओं के कारण मृत्यु हो गई। दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने एक वैज्ञानिक सत्य को संसार के समक्ष रखना चाहा; पर तत्कालीन पूर्वाग्रही समाज को यह मान्य न हुआ और परम्परा को बदलने संबंधी उनकी इस धृष्टता को अक्षम्य अपराध मानकर उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया गया। उन दिनों और उसके पूर्व के समय में छोटी-छोटी बातों के लिए इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था सामान्य बात थी। उनके तरीके जाति और संस्कृति के आधार पर अलग-अलग अवश्य थे, पर सभी का उद्देश्य एक होता-प्राणहरण। इस्लाम धर्म में अपराधियों को जनता के सुपुर्द कर दिया जाता, जिनकी चौराहों पर पत्थर मार-मार कर जान ले ली जाती। यहूदियों में इसके लिए गला घोंटने की प्रथा चलन में थी। रोमनों में ऊँची मीनारों से अभियुक्त के नीचे धकेल कर यह सजा दी जाती, जबकि पारसी समाज में गला मरोड़ना उक्त दण्ड-विधान का अभिन्न अंग था। प्राचीन चीन और जापान इनसे भी नृशंस उपाय अपनाते और जीवित व्यक्ति की चमड़ी उधेड़ ली जाती। अँग्रेजों का प्राणदण्ड भी कोई कम भयानक नहीं था, वहाँ जीवित व्यक्ति को खौलते पानी में डालकर उबाल दिया जाता।
तब से लेकर अब तक मनुष्य ने लम्बी विकास-यात्रा की है। इस दौरान उसके चिन्तन में खुलापन आया है और व्यापकता भी आयी है। एक हद तक उसने पूर्वाग्रही मान्यताओं से पीछा भी छुड़ाया है। कुछ समाजवादी और इस्लामी देशों को छोड़ दिया जाय, तो यही कहना पड़ेगा कि वर्तमान समाज और शासन प्रणाली में उतनी और वैसी कट्टरता अब नहीं रही, जिसके लिए पूर्ववर्ती व्यवस्था बदनाम थी। आज न तो किसी बालक को छोटी-सी चोरी के लिए मौत की सजा दी जाती है, जैसा कि प्राचीन इंग्लैण्ड में प्रचलित था और न किसी वयस्क को स्वतंत्र विचार-अभिव्यक्ति के जुर्म में फाँसी के फंदे पर लटकाया जाता है। हाँ, समाज-प्रणाली को छिन्न-भिन्न करने वालों के लिए दण्ड-व्यवस्था अवश्य है, होनी भी चाहिए।
यहाँ बार-बार एक प्रश्न उभर कर सामने आता है कि आज का समाज, व्यक्ति और चिन्तन पहले की तुलना में अधिक विकसित, सभ्य और प्रगतिशील है; शासन-तंत्र भी अधिक सुव्यवस्थित है। इतने पर भी क्या कारण है कि आपराधिक वृत्तियाँ पहले की अपेक्षा ज्यादा बढ़ी हैं। उत्तर एफ. टैनिनबाँन अपनी पुस्तक ‘क्रिमिनोलाँजी’ में देते हैं। वे लिखते हैं कि अपराध को सीधे सभ्यता और प्रगतिशीलता के साथ जोड़ना उतना न्यायसंगत नहीं होगा। हाँ, यह भी कुछ सीमा तक निमित्त कारण हो सकती है, पर वास्तविक कारण समाज में फैली विसंगतियाँ ही हैं, उनके अनुसार यदि कोई दो दिनों का भूखा बालक कहीं से क्षुधातृप्ति के लिए कुछ रोटियाँ चुरा लेता है, तो इसे उसकी आपराधिक मनोवृत्ति कहना गलत होगा और यह कहना भी अनुचित होगा कि माता-पिता ने गीली मिट्टी के समान उसके मन को सद्प्रवृत्तियों के साँचे में गढ़ने की कोशिश नहीं की। वस्तुतः बालक का यह कृत्य दुष्प्रवृत्ति की तुलना में उसकी तात्कालिक माँग और बाध्यता को अधिक दर्शाता है। अतः इसके द्वारा उसके विकासशील व्यक्तित्व का मूल्याँकन करना गलत होगा। यह कहना कि बालक चोर है, यथार्थ में उसके कोमल मन पर कुठाराघात करना होगा। समाज का यही व्यवहार कालान्तर में उसे दस्यु बनने के लिए बाधित कर सकता है। अतएव टैनिनबाँम का विचार है कि ऐसा निष्कर्ष निकालने से पूर्व तथाकथित ‘दोषी’ के सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं आर्थिक पहलू का अध्ययन करना पड़ेगा और देखना होगा कि कहीं उक्त विसंगतियों ने तो उसे ऐसा करने पर मजबूर नहीं कर दिया।
आज किसी ने हत्या कर दी। ठगी कर ली अथवा डाका डाल दिया, तो सिर्फ अपराध के स्वरूप के आधार पर उसे आजीवन कारावास दे दिया जाता है। जिन परिस्थितियों में उसने ऐसा किया, उस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता अथवा यों कहना चाहिए कि आज की न्यायप्रणाली वकीलों के हाथ की कठपुतली बनी हुई है जो जिरह करने में जितने वाचाल और वाक्पटु होते हैं, उनकी जीत की सम्भावना उतनी बलवती होती है। वे चाहें तो अपने अकाट्य तर्कों द्वारा सच को झूठ और झूठ को सच साबित कर दें। ऐसे में न्याय-प्रणाली सर्वथा त्रुटिहीन कहाँ रहे। इसका खामियाजा तो निरपराध को ही भुगतना पड़ेगा। यथार्थ अपराधी तो मौज-मजे करता फिरेगा। इससे उसे अन्याय’-अत्याचार की प्रेरणा ही मिलेगी। एक बिल्कुल ताजा उदाहरण कैलीफोर्निया का है। केविन ग्रीन नामक एक अमरीकी को सोलह साल जेल में काटने के बाद पिछले दिनों 22 जून, 1996 को न्यायालय ने निर्देश घोषित करते हुए रिहा कर दिया। उस पर अपने अजन्मे बच्चे की हत्या का आरोप था। यों न्यायालय ने इसके लिए उससे क्षमा-याचना कर ली; पर सवाल यह है कि क्या इस गम्भीर जुर्म के लिए क्षमा-याचना पर्याप्त है। क्या इससे सम्पूर्ण न्याय-तंत्र की पोल नहीं खुलती ? क्या इस प्रक्रिया में वकील, न्यायधीश, गवाह से लेकर वादी पक्ष तक समान रूप से दण्ड के भागी नहीं हैं, जिनने अन्याय का सहारा लेते हुए एक निर्दोष व्यक्ति को दोषी सिद्ध करने का अपराध किया? क्या किसी को 16 साल जितनी दीर्घ प्रगति से वंचित कर देने की तुलना केवल लिखित या मौखिक क्षमा-याचना से हो सकती है। कदापि नहीं। इस लम्बी अवधि में एक-एक क्षण का उपयोग करते हुए क्या पता वह कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाता; कितना आर्थिक, बौद्धिक, नैतिक विकास कर लेता; पारिवारिक स्थिति कितनी प्रतिष्ठापूर्ण बन जाती, कितने लोगों को सही सलाह और प्रेरणा देकर उन्हें सन्मार्गगामी बनाता; अपनी समृद्धि के कारण कितनों को रोजगार देकर समाज का कितना भला करता, कौन जाने? इन सबसे उसे वंचित बना दिया गया। इनकी भरपाई कैसे हो? कौन करे? यह प्रश्न न्यायतंत्र में अनुत्तरित हैं। ऐसे में प्रतिशोध की भावना से अन्याय का शिकार व्यक्ति कुछ कर बैठे, तो इसके लिए जिम्मेदार सामूहिक रूप से वह सभी होंगे, जिनने उसके महत्वपूर्ण सोलह वर्ष छीन लिए। बढ़ते अपराध का एक कारण यह हो सकता है।
दूसरे कारण के संबंध में यह कहा जा सकता है कि इन दिनों की न्याय-प्रक्रिया इतनी जटिल और समयसाध्य हो गई है कि अक्सर न्याय मिलते वर्षों लग जाते हैं, जबकि मुद्दई इसकी तत्काल आवश्यकता अनुभव करता है। इस स्थिति में यदि वह अधीर होकर कानून अपने हाथ में ले ले और इसमें कौन कितना दोषी है-यह कहने की आवश्यकता नहीं।
इसका एक अन्य आर्थिक पहलू भी है। गरीब व्यक्ति, जिसके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं, मुश्किल से वह परिवार की गाड़ी को किसी प्रकार खींचता है, वह यदि शोषण, उत्पीड़न, अन्याय, अत्याचार का शिकार हो जाये तो न्याय की गुहार पैसे के बिना किससे करे? मुकदमें के लिए पैसा चाहिए, पैसा उसके पास है नहीं। इस दशा में वह बागी होकर व्यक्ति , समुदाय अथवा समाज से बदला लेने के लिए उद्यत हो सकता है। कितने ही पीड़ित आये दिन इस कारण बगावत करते और संबंधित व्यक्ति अथवा वर्ग से प्रतिशोध लेते देखे जाते हैं। जब इस प्रकार की शृंखला चल पड़ती, तो फिर पीढ़ियों तक रुकने का
नाम नहीं लेती। इसमें बड़े पैमाने पर धन-जन की बर्बादी होती है। निर्धनता से पिण्ड छुड़ाने के लिए भी लोग अपराध में लिप्त होते देखे जाते हैं।
वर्तमान को टी.वी. संस्कृति का भी इसमें कोई कम बड़ा योगदान नहीं है। इन दिनों टी.वी. और सिनेमा ने अपराध जगत को जितना समृद्ध बनाया है, उसे अभूतपूर्व ही कहना चाहिए। इसका एक ज्वलन्त प्रमाण हाल में घटी पश्चिम बंगाल की इस घटना से मिल जाता है, जिसमें एक पन्द्रह वर्षीय किशोर ने माँ की जघन्य हत्या कर दी और सबूतों को उसी अन्दाज में मिटाने का प्रयास किया, जैसा फिल्म में देखा था । पुलिस द्वारा पूछताछ के दौरान उसने यही कहा कि माँ से उसका कोई बैर नहीं था। वह तो सिर्फ यह अनुभव प्राप्त करना चाहता था कि उक्त तरीके द्वारा हत्या सम्भव है क्या?
जहाँ किशोर मानसिकता इतनी घातक हो, वहाँ की भावी पीढ़ी कैसी होगी, इसका अन्दाज लगाया जा सकता है, पर इसके लिए दोष इस अपरिपक्व मानसिकता को नहीं, वर्तमान संस्कृति को देना पड़ेगा। किशोर तो जिज्ञासु था। वह एक प्रयोग कर रहा था। प्रयोग भी इतना भयावह, जिसे ममतामयी माँ की जान लेकर पूरा करना पड़ा । यदि यही प्रेरणा उसे किसी रचनात्मक दिशा में मिली होती , तो आज वह और उन जैसे अनेकों बालक अपने जीवन के वे महत्वपूर्ण क्षण किसी बालसुधारगृह में नहीं, शोधकार्य में गुजार रहे होते और विज्ञान, कला, साहित्य जगत की महान विभूतियाँ बन जाने की आधारभूमि तैयार कर रहे होते । इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि वर्तमान में मातृ गर्भ में अभिमन्यु और अष्टावक्र जैसे प्रतिभावान बालक नहीं अपराधी और उच्छृंखल ही विनिर्मित हो रहे हैं। इस माता-पिता के चिन्तन और आचरण का प्रभाव न कहें तो और क्या कहें।
पिछले दिनों भारत की प्रमुख अस्सी जेलों में रहने वाले कैदियों का एक सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ था। इस क्रम में लगभग आठ सौ कैदियों से संपर्क कर यह जानकारी चाही गयी कि उनसे किन परिस्थितियों में कैसे अपराध बन पड़े। करीब 80 प्रतिशत ........................... अभियुक्तों ने यह स्वीकार किया कि उनकी प्रतिपक्ष से किसी न किसी मामले को लेकर रंजिश थी, जिसका परिणाम जुर्म के रूप में सामने आया। 5 प्रतिशत लोगों का कहना था कि वे बिल्कुल निर्दोष हैं। उन्हें जानबूझकर कुचक्र में फँसा दिया गया। जबकि 15 प्रतिशत कैदी ऐसे थे, जो यह मानते थे कि अपराध करना उनकी आदत है। इसके लिए किसी कारण का होना आवश्यक नहीं।
उक्त सर्वेक्षणों से भी यही विदित होता है कि स्वभाव से अपराधी तो बहुत कम ही होते हैं, अधिकाँश ऐसे हैं जिन्हें विवश होकर इस प्रकार के कठोर कदम उठाने पड़ते हैं। यह विवशता शोषण, उत्पीड़न, जमीन-जायदाद, वर्चस्व, जातिगत, सम्प्रदायगत किसी भी प्रकार की ही, इन्हें सामाजिक विषमता यदि किसी प्रकार दूर की सके, , तो फिर अहिंसक समाज की स्थापना कोई कठिन कार्य नहीं, इसकी प्रतिष्ठा स्वयमेव हो जाएगी।
इस प्रकार का प्रयोग साम्यवादी शासन प्रणाली में हो चुका है; पर वह सफल रहा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मार्क्स ने शासनयुक्त समाज रचना की कल्पना नहीं की। उनके अनुसार साम्यवाद की चरम परिणति शासनमुक्त समाज है, पर समाजवाद में वैसा कुछ हो नहीं सका। बाहर से उसमें भले ही साम्य प्रतीत होता है, पर पूर्व सोवियत संघ में करोड़ों रुबलों के घोटालों से प्रणाली की कलई खुल गई और अन्दर तथा बाहर का विरोधाभास स्पष्ट रूप से सामने आ गया। इस कारण बाद में वह खण्ड-खण्ड होकर बिखर गया। वास्तव में इस शासन तंत्र में कठोर नियंत्रण द्वार भौतिक स्तर पर समानता लाने का प्रयत्न किया गया है; जबकि मानसिक विकास की उपेक्षा कर दी गई। असफलता का सूत्र यही साबित हुआ, कारण कि आन्तरिक परिष्कार के बिना बाह्य समानता संभव नहीं, यदि हुई भी तो वह अस्थायी ही होगी। इस कारण समाजवादी देशों की जनता साम्यवादी तो हो गई, पर वह साम्यनिष्ठ नहीं हो सकी। जिसमें साम्य की निष्ठा नहीं होती, वह न तो अहिंसक हो सकता है, न शासनमुक्त।
अध्यात्म के इसी सूत्र-सिद्धान्त को अपनाते हुए अब बिहार की जेलों में एक अभिनव प्रयोग आरम्भ किया गया, ताकि अपराधियों के विचार परिवर्तित कर उन्हें सन्मार्गगामी बनाया जा सके। उन्हें नियमित रूप से आसन, प्राणायाम, ध्यान, उपासना जैसे अंतरंग को बदलने वाले आध्यात्मिक उपचारों का अभ्यास कराया जाता है। इसके अतिरिक्त फुर्सत के समय स्वाध्याय के लिए सत्साहित्यों का वितरण किया जाता है। बीच-बीच में यज्ञ, दीपयज्ञ, कीर्तन, आरती जैसे कार्यक्रम भी कराये जाते हैं। उनके प्रति स्नेह और प्रेम प्रदर्शित करने के लिए रक्षा-बन्धन जैसे त्यौहारों में उनकी कलाइयों में राखी बाँधी जाती है। इसके अतिरिक्त समय-समय पर उनसे मिलने और उन्हें श्रेष्ठ चिन्तन देकर रचनात्मक कार्यों के प्रति रुचि जगाने का भी उपक्रम होता रहता है।
इन सबका उत्साहवर्द्धक परिणाम सामने आया है। सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि इससे उनकी शारीरिक-मानसिक परेशानियाँ घटी हैं और सबमें स्वयं को बदलने की अदम्य इच्छा जाग्रत हुई है।
इस कार्यक्रम में दो संगठन क्रियाशील हैं-प्रथम युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार और दूसरा मुँगेर का योग विद्यालय। इटली, फ्राँस की सरकारों एवं यूनेस्को ने इससे प्रभावित होकर बिहार सरकार से इसकी विस्तृत जानकारी माँगी है।
निरक्षरों को साक्षर बनाने का भी समांतर कार्यक्रम इनमें चल रहा है। पिछले एक वर्ष में इस योजना के अंतर्गत सात हजार छह सौ से भी अधिक कैदियों को साक्षर बनाया गया। वर्तमान में 3825 कैदी इस योजना के अंतर्गत अध्ययनरत है। इच्छुक कैदियों को स्वनियोजन और तकनीकी प्रशिक्षण भी दिये जा रहे हैं, ताकि कारामुक्त होकर वे अपना जीविकोपार्जन कर सकें। इस प्रकार बिहार की जेलें अब कारागृह न रहकर एक प्रकार से रिफार्मेटरि (सुधार गृह) बन चुकी हैं। उक्त योजना चलाई जानी चाहिए, ताकि वहाँ से निकलने वाले बन्दी अपराधी नहीं, नेक इंसान बनकर निकलें ।
सच तो यह है कि विसंगतियाँ चाहे सामाजिक हों अथवा पारिवारिक, सभी के मूल में विकृत चिन्तन ही समाये होते हैं। कोई यदि किसी की सम्पत्ति का छल-बल द्वारा अपहरण करता है , तो यहाँ भी धनवान बनने की उसकी संकीर्णता का ही परिचय मिलता है और कोई किसी का शोषण-उत्पीड़न करता है, तो यह भी कर्ता की विकृत मानसिकता को ही दर्शाता है। दोनों ही अपने-अपने प्रकार के अपराध और अपराधियों से समाज को तब तक मुक्त नहीं किया जा सकता, जब तक उनका चेतनात्मक परिष्कार न हो, जेल और कानून तो एक प्रकार के नियंत्रक हैं, मुक्ति प्रदाता नहीं। सम्पूर्ण मुक्ति और अहिंसक समाज को स्थापना अध्यात्म उपचार के अवलम्बन से ही सम्भव है, इससे कम में नहीं।