विराट ब्रह्माण्ड में हम अकेले नहीं हैं।

November 1996

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रात आती है तो आकाश तारागणों, आकाशगंगाओं और निहारिकाओं से जगमगा उठता है। जगमगाते हुए ये ग्रह-नक्षत्र चिरअतीत से मानव मन में यह जिज्ञासा जगाते रहे हैं कि क्या इस विराट ब्रह्माण्ड में हम अकेले ही हैं अथवा पृथ्वी से बाहर और भी कहीं जीवन है? मानवीय जिज्ञासा के इस स्वाभाविक युगप्रश्न के सुलझ जाने से और कोई लाभ हो या नहीं पर एक बात निश्चित है, तब मानवीय दृष्टिकोण और चिन्तन स्वार्थ-संकीर्णता की अंधेरी गुफा में ही कैद नहीं रह सकेगा। शायद इसी कारण मानवीय सभ्यता के आदिम जमाने से लेकर आज तक अपने समय के मनीषी, वैज्ञानिक भांति-भाँति से इस पहेली का हल निकालने की कोशिश कर रहें हैं। साहित्यकारों ने इन प्रयासों को अपनी कल्पना के रंगों से सजाया है। तभी तो प्रायः हर देश के पुराण-कथा साहित्य में लोक-लोकान्तर की कथाएँ पढ़ी-सुनी जा सकती हैं। सम्भवतः इन सबका उद्देश्य मानवीय दृष्टिकोण व्यापक बनाना रहा है। क्योंकि दृष्टिकोण व्यापक बने तो ही सम्भव है कि जीवन के उच्च रहस्य हमारे सामने अभिव्यक्त हों और हम उच्च आदर्शों और कर्तृत्व में आरुढ़ हों।

लेकिन इन तमाम सारे प्रयासों के बावजूद मनुष्य की चिरकालीन जिज्ञासा अपना सार्थक और यथार्थ समाधान नहीं खो सकी है। हमारी तमाम वैज्ञानिक इस सवाल का जवाब जानने के लिए सालों−साल की अपनी मेहनत के बाद भी अपनी धरती के पड़ोसियों का सही पता-ठिकाना लगा पाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। उनकी व्यापक खोजें, अनगिनत शोध-प्रयत्न अधूरे साबित होते रहे हैं।

किन्तु इक्कीसवीं सदी के बढ़ते कदमों की आहटों के साथ अब लगता है कि इस सवाल से धीरे-धीरे परदा उठ रहा है। अज्ञात के विराट अन्धकार में एक रोशनी की छोटी-सी पर प्रभापूर्ण किरण वैज्ञानिकों को दिखाई दी है। वैज्ञानिक उत्साहित हैं कि वे इस पहेली का हल ढूंढ़ने के नजदीक पहुँच गए हैं। धरती से बाहर जीवन है या कभी था, इस चर्चा को नयी हवा तब मिली जब पिछले महीनों में संसार के सुविख्यात पत्र-पत्रिकाओं में दो खबरें छपीं। इनमें पहली थी हमारे पड़ोसी मंगल ग्रह पर जीवन के संकेत और दूसरी थी बृहस्पति के उपग्रह यूरोपा में जीवन सम्भावना।

भारतीय वैदिक साहित्य एवं ज्योतिष ग्रन्थों में मंगल ग्रह की शिद चर्चा देखने को मिलती है। यहाँ इसे ‘धरणी गर्भ सम्भूतं विद्युतकान्ति समप्रथम्’ कहकर सम्बोधित किया गया है। ज्योतिषशास्त्र इसे उदारमना और सद्भावना प्रिय मानने के साथ युद्ध एवं पराक्रम का देवता मानता है। यूनान-रोम आदि देशों में भी इसे युद्ध और पराक्रम का अधिष्ठाता माना गया हैं। चीन में इसे ऊष्मा और अग्नि के प्रतीक रूप में देखा जाता है। वैज्ञानिक दुनिया का मंगल ग्रह का प्रथम परिचय हालैण्ड के प्रख्यात खगोलविद् हुइजेंस ने 1651 में दिया। सूर्य से 14 करोड़ 10 लाख मील दूरी पर स्थित इस ग्रह का व्यास 4200 मील है। 679 दिन में यह सूर्य की एक परिक्रमा लगा लेता है।

वैज्ञानिक समुदाय इसकी खोज-बीन के प्रयत्न अपने शुरुआती दौर से करता रहा है। सन् 1730 के दशक में विहेल्य वीयर और मेडलर ने मंगल के कई क्षेत्रों के बारे में नई जानकारी दी थी। अनुसंधान की इस शृंखला में इटली के खगोलशास्त्री गियाबत्री शियावरेली ने 1799 ई. में मंगल ग्रह की सतही रेखाओं को देखा था। बाद में उन्होंने इसे इतालवी भाषा में ‘कैनाली; नाम से प्रकाशित भी किया। इसी बात को लेकर 1714 में अमेरिकन खगोलविद् पर्सीवल लाबेल ने एक शोध ग्रन्थ लिखा। जिसमें कैनाली को सिंचाई की नहरों एवं घने गहरे भाग का वनस्पति जगत के रूप में उल्लेख किया गया है। इन तथ्यों में अपनी कल्पना की तुलिका से रंग-भरते हुए अँग्रेजी के प्रख्यात उपन्यासकार एच. जी. वेल्स ने मंगलवासियों के पृथ्वी पर आक्रमण के खतरे की जानकारी देते हुए ‘द वार ऑफ वर्ल्ड’ नामक उपन्यास की रचना की। मंगल ग्रह पर जीवन की कल्पना ने सन् 1967 में ओरसन वैलस को रेडियो नाटक तैयार करने के लिए प्रेरित किया।

कल्पनाओं और जिज्ञासाओं को आंशिक सफलता उस समय मिली, जब सन् 1764 में अमेरिका के ‘मेरीनर-4 ने मंगल ग्रह के 1120 कि.मि. पास पहुँचकर 22 क्लाजअप फोटो खींचकर धरती पर भेजने में कामयाबी पायी। इन चित्रों से वहाँ के ज्वालामुखी एवं मरुस्थल की जानकारी मिल सकी। इसके पहले 1762 में रूस के ‘मार्स-1’ एवं सन् 1764 में अमेरिका के मेरीनर-6 को भेजा तो गया था परन्तु किसी तरह की जानकारी पाने में कोई खस सफलता हासिल नहीं हो सकी। सन् 1761 में अमेरिका द्वारा मेरीनर-6 को रवाना किया गया। जो मंगल के 3400 कि.मी. दूर तक पहुँचकर इसके वायुमण्डलीय दबाव के साथ सतही तापमान के वीडियो चि. को सफलतापूर्वक लिया। इसी वर्ष मेरीनर-9 को मंगल के दक्षिणी गोलार्द्ध के 200 चित्र ले पाने में सफलता मिली।

वर्ष 1971 में रूस ने पुन- अपना अनुसंधान जारी रखते हुए मार्स-2 लेण्डर मो मंगल की जमीन पर उतारा। लेकिन यह धूलभरी आँधियों में नष्ट हो गया। इसी वर्ष मार्स-6 लेण्डर मंगल में उतरकर मात्र 20 सेकेंड तक वहाँ के आंकड़े भेज सका, बाद में नष्ट हो गया। इसी साल अमेरिका का मेरीनर-9 ने यहाँ का 74 प्रतिशत भूगर्भीय सर्वेक्षण करने के साथ इसके दो उपग्रहों कोबोस और डीमोस का पता लगाया। 1976 में रूस का मार्स-4 असफल हुआ, लेकिन इसी साल मार्स-6 लेण्डर 149 सेकेंड तक मंगल का परीक्षण भर कर सका। इसी साल भेजे गए मार्स-7 को भी विफल होना पड़ा। सन् 1965 में अमेरिका के वाइकिंग-1 लेण्डर को मंगल की जमीन पर अपने कदम जमाने में पूरी सफलता मिली। इसके द्वारा 26000 चित्रों को खींचे जाने के साथ वहाँ के ध्रुवों पर बर्फ एवं धरातल पर पानी की खोज की जा सकी। इसी साल वाइकिंग-2 लेण्डर ने अभूतपूर्व अन्वेषण किए। इसके द्वारा वहाँ के वायुमण्डल में आर्गन एवं नाइट्रोजन की उपस्थिति का पता चला और वहाँ जीवन की सम्भावना के संकेतों का भी अनुमान किया जा सका। खोज की यह प्रक्रिया 1992 में अमेरिका द्वारा भेजे गए ‘मार्स आर्ब्जवर’ के द्वारा और भी तीव्र हुई। इसके द्वारा पर्याप्त आंकड़े इकट्ठे किए जा सके।

मंगल ग्रह पर जीवन की सम्भावनाएँ आदिकाल से ही व्यक्त की जाती रही हैं। इसका कारण यह रहा है कि मंगल हमारे पड़ोसी ग्रहों में सबसे अधिक पृथ्वी जैसा है। इसके अलावा आकाश चन्द्रमा और शुक्र के अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक पिण्डों से हमारे ज्यादा नजदीक है। अपेक्षाकृत पतले वायुमण्डल वाले इस ग्रह की लाल रंग की सतह पृथ्वी से साफ दिखाई देती है। वजन में यह अपनी धरती के दसवें हिस्से के बराबर और गुरुत्वाकर्षण में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का एक तिहाई है। यहाँ के दिन-रात की कुल अवधि 24 घण्टे, 37 मिनट, 22 सेकेंड होती है। पृथ्वी से 460 लाख किलोमीटर दूर स्थित इस ग्रह के दो चन्द्रमा फोबोस और डीमोस है। फाबोस का व्यास 66 किलोमीटर है डीमोस का व्यास मात्र 10 किलोमीटर है। आधुनिक निष्कर्षों के अनुसार मंगल ग्रह के ध्रुवों पर बर्फ जमी है, तैरते हुए सफेद बादल हैं। यहाँ की हवा का दबाव, ताप एवं जलप्रवाह पृथ्वी के समान ही है। लाल रंग का दिखाई देने के कारण इसे लाल ग्रह या रेड प्लेनेट भी कहते हैं।

यहाँ पर जीवन के चिन्ह मिलने की चर्चा तब प्रकाश में आयी, जब एक छोटे-से उल्कापिण्ड का दो वर्षों तक अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों के एक दल ने घोषणा की 1.7 किलोग्राम का यह उल्कापिण्ड मंगल का है उसमें कभी वहाँ रहे सूक्ष्म जीवन का संकेत मिले हैं। अभी-अभी अमेरिका की प्रसिद्ध पत्रिका न्यूज पीक में 17 अगस्त, 1776 के अंक में प्रकाशित हुआ। इसके विवरण के अनुसार बारह वर्ष पूर्व 27 दिसम्बर, 1974 को अंटार्कटिका के एलानहिल्स के हिमाच्छादित क्षेत्र में सुश्री राबर्ट स्कोर की निगाह गहरे भूरे रंग के एक शिलाखण्ड पर पड़ी। इस उल्कापिण्ड को रासायनिक विश्लेषण हेतु ‘नासा’ के जान्सन स्पेस सेंटर के आठ वैज्ञानिकों के दल को सौंपा गया। इसका नेतृत्व डेविड एस. मैके के हाथों था। इस पिण्ड का नाम उसके स्थान के नाम पर ए.एल.एच. 94002 रखा गया।

वैज्ञानिकों के दल ने अपने अन्वेषणों में पता लगाया कि इस उल्कापिण्ड में कभी वहाँ रहे सूक्ष्म जीवन के स्पष्ट संकेत हैं।

इनके अनुसार 6 अरब वर्ष से भी पहले मंगल पर सूक्ष्मजीवी थे। वे सूक्ष्मजीवी वहाँ पनपे, उन्होंने वहाँ पुनरुत्त्पत्ति की और मर गए। उनके अस्तित्व का सामान्य तथ्य मूलतः इस विचार को प्रोत्साहित करता है कि इस ब्रह्माण्ड में हम अकेले नहीं है। यह उल्कापिण्ड मंगल ग्रह का ही है, वैज्ञानिकों के इस कथन के पीछे कारण यह है कि यह चट्टानी टुकड़ा गर्म किए जाने पर अब भी ऐसी मिश्रित गैस छोड़ता है, जो मंगल के वायुमण्डल की बेजोड़ गैस है। बहुत पहले का मंगल तब अब से बहुत अलग था। तब वहाँ का वायुमण्डल भी पृथ्वी के वायुमण्डल जैसा था। तापमान भी लगभग पृथ्वी जितना था और द्रव रूप में जल वहाँ की सतह पर बहता था।

वैज्ञानिकों के अनुसार ए. एल. एच. 94001 की उत्पत्ति आज से लगभग 3.6 अरब साल पहले हुई होगी। पहले इसके अन्दर कार्बोनेट का निर्माण हुआ। परीक्षण के दौरान अनुमान यह लगाया गया है कि इसके पश्चात् ही मंगल ग्रह का वायुमण्डल एवं तरल पानी प्रभावित हुए। डेढ़ करोड़ वर्ष पहले किसी तारे या धूमकेतु के मंगल ग्रह पर टकराने से यहां उल्कापिण्ड बना होगा। 15,000 वर्ष पहले अंटार्कटिका में गिरने से पूर्व यह पिण्ड सूर्य के चारों ओर परिक्रमारत था। स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के रसायनविद् रिचर्ड नारे ने अति संवेदनशील मास स्पेक्ट्रोमीटर द्वारा इस पिण्ड का परीक्षण किया। इस दौरान इसके अन्दर पाए जाने वाले अणु पी. ए. एच. ( पॉली सायक्लिक एरोमेटिक हाइड्रो-कार्बन) के समान दिखाई दिए। पी. ए. एच. दहन के परिणामस्वरूप बनता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि जीवों के अणुओं में ही यह पाया जाता है। अतः नारे का यह कहना है कि यह जीवाणु मंगल ग्रह का है जो जीवन रूपी चैतन्यता का स्पष्ट संकेत करता है।

पी. ए. एच. कार्बोनेट ग्लाब्यूल्स से एकदम मिलता-जुलता है। जब इसका परीक्षण अति संवेदनशील ‘अल्ट्रा हाई रेजोल्यूशन ट्राँसमिशन इलेक्ट्रॉन-माइक्रोस्कोप’ से किया गया तो कार्बेनेट के किनारे 10 से 100 नेनोमीटर की काली और सफेद धारियाँ पायी गयीं। इसमें आयरन यौगिक के मैग्नेराइट एवं पायराइट भी मिले। यह सब प्रायोगिक निष्कर्ष उल्कापिण्ड के बैक्टीरिया के जीवाश्म को सिद्ध करते हैं। जान्सन बेधशाला के डेविड मैके, एवेरेट गिब्सन ने इस कार्बोनेट का तीन आयामी विधि से सूक्ष्म अध्ययन किया। मैके के अनुसार यह बैक्टीरिया 20 एन. एम. लम्बा और 200 एन. एम. चौड़ा है, जो मंगल ग्रह का ही है। कालान्तर में यह बैक्टीरिया कार्बेनेट में रूपांतरित हो गया। अन्तरिक्षशास्त्री एवं प्रसिद्ध लेखक कार्ल साँगा इसे आशा का नूतन संचार मानते हैं। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी लॉस एंजेल्स के पौलियोबायोलॉजिस्ट विलियम स्काँप जो तीन दशक तक पृथ्वी की उत्पत्ति के बारे में अध्ययनरत हैं, उनका मानना है कि यह जीवाश्म मंगल ग्रह में जीवन की उपस्थिति को बल प्रदान करता है। रिजर्व यूनिवर्सिटी के राल्फ हार्वे एवं टेनिसी यूनिवर्सिटी के स्वीकार करते हैं, कि यदि 3.6 अरब वर्ष पूर्व भी मंगल ग्रह में जीवन की शुरुआत हुई है, तो अब तक वहाँ एक विकसित की आशा की जा सकती है। ह्मूस्टन अंतरिक्ष संस्थान के एलेने ट्रीमैन कहते हैं कि यह जीवाश्म विज्ञान के लिए एक नयी उपलब्धि है । सर्च फॉर एक्स्ट्रा टेरेस्टेरीयल इंटेलीजेंस ‘ सेटी’ के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि मंगल ग्रह की सतह पर दो किलोमीटर चौड़ी पट्टी है, जहाँ पर जीवनदायक तापमान के बराबर जल का निरन्तर प्रवाह हो रहा है। माइक्रो बायोलॉजी प्रोग्राम विभाग हमफोर्ड वाशिंगटन के अध्यक्ष जीम प्रडीक्शन का कथन है कि अगर आज से साढ़े तीन अरब साल पहले, मंगल में जीवन की झाँकी देखी जा सकती है, तो इस वर्तमान में भी खोज निकाला जा सकता है।

सम्भावनाओं की इस नई दुनिया से मित्रता का हाथ बढ़ाने की चाह में ‘नासा’ के वैज्ञानिक गोल्डीन ने घोषणा की है कि नासा आगामी दस वर्षों में 10 रोबोट मिशन मंगल ग्रह में भेजने की योजना बना रहा है। यही नहीं यहाँ से इसी वर्ष के नवम्बर में यहाँ के लिए ‘मार्स ग्लोबल सर्वेयर’ को भेजा जा रहा है। इसी के बाद दिसम्बर में ‘ मार्स पाथ फाइन्डर; भेजने की भी योजना बन रही है। जापान भी इस क्रम में नीचे नहीं है। वहाँ से भी ब्रोब को मंगल की भू-संरचना के अध्ययन के लिए रवाना किया जा रहा है। यूरोपीय एजेन्सियां भी 2006 तक चार मिशन इस ओर रवाना करने के लिए प्रयत्नशील हैं।

मंगल पर जीवन के चिन्ह पाये जाने की घोषणा के ठीक एक सप्ताह के बाद इस दिशा में एक और उपलब्धि वैज्ञानिकों के हाथ लगी, जो मंगल को लेकर छिड़ी जीवन की चर्चा से भी ज्यादा विचारोत्तेजक थी। क्योंकि मंगल पर जीवन के संकेत बताने वाला उल्कापिण्ड 3.5 अरब वर्ष पहले का था। लेकिन बृहस्पति ग्रह के चन्द्रमा यूरोपा में पायी गयी जीवन के किसी रूप की सम्भावना सबको अचरज में डालने वाली थी। ‘यूरोपा’ के नए चित्रों से वैज्ञानिकों को संकेत मिले हैं कि इसकी सतह पर हिमपट्टियाँ सम्भवतः पतले कीचड़ अथवा पानी में तैर रही हैं। यदि ऐसा है तो सचमुच ‘यूरोपा’ में जीवन का कोई रूप आश्रय लिए हुए है। द्रव जल जीवन के लिए महत्वपूर्ण घटक है और ऐसी स्थिति में यहाँ जीवन की उपस्थिति की सम्भावनाएँ आदिकाल से ही व्यक्त की जाती रही हैं। इसका कारण यह रहा है कि मंगल हमारे पड़ोसी ग्रहों में सबसे अधिक पृथ्वी जैसा है। इसके अलावा आकाश चन्द्रमा और शुक्र के अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक पिण्डों से हमारे ज्यादा नजदीक है। अपेक्षाकृत पतले वायुमण्डल वाले इस ग्रह की लाल रंग की सतह पृथ्वी से साफ दिखाई देती है। वजन में यह अपनी धरती के दसवें हिस्से के बराबर और गुरुत्वाकर्षण में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का एक तिहाई है। यहाँ के दिन-रात की कुल अवधि 24 घण्टे, 37 मिनट, 22 सेकेंड होती है। पृथ्वी से 460 लाख किलोमीटर दूर स्थित इस ग्रह के दो चन्द्रमा फोबोस और डीमोस है। फाबोस का व्यास 66 किलोमीटर है डीमोस का व्यास मात्र 10 किलोमीटर है। आधुनिक निष्कर्षों के अनुसार मंगल ग्रह के ध्रुवों पर बर्फ जमी है, तैरते हुए सफेद बादल हैं। यहाँ की हवा का दबाव, ताप एवं जलप्रवाह पृथ्वी के समान ही है। लाल रंग का दिखाई देने के कारण इसे लाल ग्रह या रेड प्लेनेट भी कहते हैं।

यहाँ पर जीवन के चिन्ह मिलने की चर्चा तब प्रकाश में आयी, जब एक छोटे-से उल्कापिण्ड का दो वर्षों तक अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों के एक दल ने घोषणा की 1.7 किलोग्राम का यह उल्कापिण्ड मंगल का है उसमें कभी वहाँ रहे सूक्ष्म जीवन का संकेत मिले हैं। अभी-अभी अमेरिका की प्रसिद्ध पत्रिका न्यूज पीक में 17 अगस्त, 1776 के अंक में प्रकाशित हुआ। इसके विवरण के अनुसार बारह वर्ष पूर्व 27 दिसम्बर, 1974 को अंटार्कटिका के एलानहिल्स के हिमाच्छादित क्षेत्र में सुश्री राबर्ट स्कोर की निगाह गहरे भूरे रंग के एक शिलाखण्ड पर पड़ी। इस उल्कापिण्ड को रासायनिक विश्लेषण हेतु ‘नासा’ के जान्सन स्पेस सेंटर के आठ वैज्ञानिकों के दल को सौंपा गया। इसका नेतृत्व डेविड एस. मैके के हाथों था। इस पिण्ड का नाम उसके स्थान के नाम पर ए.एल.एच. 94002 रखा गया।

वैज्ञानिकों के दल ने अपने अन्वेषणों में पता लगाया कि इस उल्कापिण्ड में कभी वहाँ रहे सूक्ष्म जीवन के स्पष्ट संकेत हैं।

इनके अनुसार 6 अरब वर्ष से भी पहले मंगल पर सूक्ष्मजीवी थे। वे सूक्ष्मजीवी वहाँ पनपे, उन्होंने वहाँ पुनरुत्त्पत्ति की और मर गए। उनके अस्तित्व का सामान्य तथ्य मूलतः इस विचार को प्रोत्साहित करता है कि इस ब्रह्माण्ड में हम अकेले नहीं है। यह उल्कापिण्ड मंगल ग्रह का ही है, वैज्ञानिकों के इस कथन के पीछे कारण यह है कि यह चट्टानी टुकड़ा गर्म किए जाने पर अब भी ऐसी मिश्रित गैस छोड़ता है, जो मंगल के वायुमण्डल की बेजोड़ गैस है। बहुत पहले का मंगल तब अब से बहुत अलग था। तब वहाँ का वायुमण्डल भी पृथ्वी के वायुमण्डल जैसा था। तापमान भी लगभग पृथ्वी जितना था और द्रव रूप में जल वहाँ की सतह पर बहता था।

वैज्ञानिकों के अनुसार ए. एल. एच. 94001 की उत्पत्ति आज से लगभग 3.6 अरब साल पहले हुई होगी। पहले इसके अन्दर कार्बोनेट का निर्माण हुआ। परीक्षण के दौरान अनुमान यह लगाया गया है कि इसके पश्चात् ही मंगल ग्रह का वायुमण्डल एवं तरल पानी प्रभावित हुए। डेढ़ करोड़ वर्ष पहले किसी तारे या धूमकेतु के मंगल ग्रह पर टकराने से यहां उल्कापिण्ड बना होगा। 15,000 वर्ष पहले अंटार्कटिका में गिरने से पूर्व यह पिण्ड सूर्य के चारों ओर परिक्रमारत था। स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के रसायनविद् रिचर्ड नारे ने अति संवेदनशील मास स्पेक्ट्रोमीटर द्वारा इस पिण्ड का परीक्षण किया। इस दौरान इसके अन्दर पाए जाने वाले अणु पी. ए. एच. ( पॉली सायक्लिक एरोमेटिक हाइड्रो-कार्बन) के समान दिखाई दिए। पी. ए. एच. दहन के परिणामस्वरूप बनता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि जीवों के अणुओं में ही यह पाया जाता है। अतः नारे का यह कहना है कि यह जीवाणु मंगल ग्रह का है जो जीवन रूपी चैतन्यता का स्पष्ट संकेत करता है।

पी. ए. एच. कार्बोनेट ग्लाब्यूल्स से एकदम मिलता-जुलता है। जब इसका परीक्षण अति संवेदनशील ‘अल्ट्रा हाई रेजोल्यूशन ट्राँसमिशन इलेक्ट्रॉन-माइक्रोस्कोप’ से किया गया तो कार्बेनेट के किनारे 10 से 100 नेनोमीटर की काली और सफेद धारियाँ पायी गयीं। इसमें आयरन यौगिक के मैग्नेराइट एवं पायराइट भी मिले। यह सब प्रायोगिक निष्कर्ष उल्कापिण्ड के बैक्टीरिया के जीवाश्म को सिद्ध करते हैं। जान्सन बेधशाला के डेविड मैके, एवेरेट गिब्सन ने इस कार्बोनेट का तीन आयामी विधि से सूक्ष्म अध्ययन किया। मैके के अनुसार यह बैक्टीरिया 20 एन. एम. लम्बा और 200 एन. एम. चौड़ा है, जो मंगल ग्रह का ही है। कालान्तर में यह बैक्टीरिया कार्बेनेट में रूपांतरित हो गया। अन्तरिक्षशास्त्री एवं प्रसिद्ध लेखक कार्ल साँगा इसे आशा का नूतन संचार मानते हैं। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी लाज एंजेल्स के पौलियोबायोलाँजिस्ट विलियम स्काँप जो तीन दशक तक पृथ्वी की उत्पत्ति के बारे में अध्ययनरत हैं, उनका मानना है कि यह जीवाश्म मंगल ग्रह में जीवन की उपस्थिति को बल प्रदान करता है। रिजर्व यूनिवर्सिटी के राल्फ हार्वे एवं टेनिसी यूनिवर्सिटी के स्वीकार करते हैं, कि यदि 3.6 अरब वर्ष पूर्व भी मंगल ग्रह में जीवन की शुरुआत हुई है, तो अब तक वहाँ एक विकसित की आशा की जा सकती है। ह्मूस्टन अंतरिक्ष संस्थान के एलेने ट्रीमैन कहते हैं कि यह जीव विज्ञान के लिए एक नयी उपलब्धि है । सर्च फॉर एक्स्ट्रा टेरेस्टेरीयल इंटेलीजेंस ‘ सेटी’ के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि मंगल ग्रह की सतह पर दो किलोमीटर चौड़ी पट्टी है, जहाँ पर जीवनदायक तापमान के बराबर जल का निरन्तर प्रवाह हो रहा है। माइक्रो बायोलॉजी प्रोग्राम विभाग हमफोर्ड वाशिंगटन के अध्यक्ष जीम प्रडीक्शन का कथन है कि अगर आज से साढ़े तीन अरब साल पहले, मंगल में जीवन की झाँकी देखी जा सकती है, तो इस वर्तमान में भी खोज निकाला जा सकता है।

सम्भावनाओं की इस नई दुनिया से मित्रता का हाथ बढ़ाने की चाह में ‘नासा’ के वैज्ञानिक गोल्डीन ने घोषणा की है कि नासा आगामी दस वर्षों में 10 रोबोट मिशन मंगल ग्रह में भेजने की योजना बना रहा है। यही नहीं यहाँ से इसी वर्ष के नवम्बर में यहाँ के लिए ‘मार्स ग्लोबल सर्वेयर’ को भेजा जा रहा है। इसी के बाद दिसम्बर में ‘ मार्स पाथ फाइन्डर; भेजने की भी योजना बन रही है। जापान भी इस क्रम में नीचे नहीं है। वहाँ से भी ब्रोब को मंगल की भू-संरचना के अध्ययन के लिए रवाना किया जा रहा है। यूरोपीय एजेन्सियां भी 2006 तक चार मिशन इस ओर रवाना करने के लिए प्रयत्नशील हैं।

मंगल पर जीवन के चिन्ह पाये जाने की घोषणा के ठीक एक सप्ताह के बाद इस दिशा में एक और उपलब्धि वैज्ञानिकों के हाथ लगी, जो मंगल को लेकर छिड़ी जीवन की चर्चा से भी ज्यादा विचारोत्तेजक थी। क्योंकि मंगल पर जीवन के संकेत बताने वाला उल्कापिण्ड 3.5 अरब वर्ष पहले का था। लेकिन बृहस्पति ग्रह के चन्द्रमा यूरोपा में पायी गयी जीवन के किसी रूप की सम्भावना सबको अचरज में डालने वाली थी। ‘यूरोपा’ के नए चित्रों से वैज्ञानिकों को संकेत मिले हैं कि इसकी सतह पर हिमपट्टियाँ सम्भवतः पतले कीचड़ अथवा पानी में तैर रही हैं। यदि ऐसा है तो सचमुच ‘यूरोपा’ में जीवन का कोई रूप आश्रय लिए हुए है। द्रव जल जीवन के लिए महत्वपूर्ण घटक है और ऐसी स्थिति में यहाँ जीवन की उपस्थिति की सम्भावनाएँ मंगल से भी कहीं ज्यादा बन जाती हैं। यूरोपा के नए चित्र अन्तरिक्षयान ‘गैलीलियो’ ने 1,46,600 किमी. दूर से खींचे है। इन चित्रों से यहाँ की सतह पर गहरे स्थलों की शृंखला का पता चलता है। ये जगहें कीचड़ की उपस्थिति इस बात पर बल देती है कि यूरोजी जमी हुई बर्फ का कोई ठोस पिण्ड नहीं है, बल्कि इसके भीतर पानी भी है। सामान्यतया अभी तक विश्वास किया जाता रहा है कि यहाँ बर्फ की 70 से 90 कि.मी. मोटी सतह बिछी है।

पर अब इस बात की सम्भावना का स्पष्ट होना कि यूरोपा की अपेक्षाकृत गर्भ और चिकली पर्त के चारों ओर हिमपट्टियाँ तैर रही हैं। इस बात को साफ करती हैं कि कोई शक्तिशाली ज्वारीय बल वहाँ के भूपटल को तोड़ता रहा है। बृहस्पति के इस उपग्रह में जितनी भूगर्भीय गतिविधियाँ सक्रिय होंगी, उसमें जीवन के आश्रय पाने की सम्भावनाएँ भी उतनी ही अधिक होंगी, ऐसा वैज्ञानिकों का मानना है। जहाँ तक इस उपग्रह की स्थिति का सवाल है, यह बृहस्पति का चौथा सबसे बड़ा और सन् 1610 में गैलीलियो द्वारा टेलिस्कोप से देखा जाने वाला चाँद है। इसका व्यास अपनी धरती के चन्द्रमा से थोड़ा कम है। इसकी सतह का तापमान 145 डिग्री सेल्सियस है। लेकिन इतना कम तापमान वहीं है, जहाँ कुछ ही मीटर चौड़ी बर्फ की पपड़ी इसकी सतह को घेरती है। बाकी इसकी 60 मील की गहराई में पानी का विशाल सागर होने की सम्भावना है।

अन्तरिक्ष यान गैलीलियो वर्ष 1767 में भेजा गया था। इस यान से यूरोपा की भौगोलिक जानकारियों के एक से बढ़कर एक चित्र वैज्ञानिक समुदाय को देखने के लिए मिल रहे हैं। इन चित्रों की स्पष्टता सन् 1791 में वायजर द्वारा यूरोपा के चित्रों से कहीं अधिक है। इन वैज्ञानिकों को बेसब्री से उस दिन का इन्तजार है, जब इसी साल दिसम्बर में गैलीलियो यूरोपा से सिर्फ 100 मील की दूरी से गुजरेगा। तब उसके द्वारा लिए गए चित्र कई और भी रहस्यों को खोलने वाले होंगे।

पृथ्वी से बाहर अन्यत्र जीवन है या नहीं, इसकी खोज में जुटे वैज्ञानिकों को तब और भी प्रोत्साहन मिला, तब उन्हें पिछले दो सालों में अन्य तारामंडलों में 9 ग्रहों का पता चला। इसी के साथ जिस तरह अपनी धरती में जटिल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवन के अस्तित्व का पता लग रहा है, उससे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है, कि जहाँ कहीं भी पानी होगा, वहाँ सूक्ष्म जीवन रह सकता है। उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों ने सागर की गहराइयों में, ज्वालामुखी सुरंगों में 315 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी जीवाणुओं का पता लगा है। कोलंबिया नदी के नीचे 1,500 मी. की गहराई पर स्थित चट्टानों में भी सूक्ष्मजीवी पाए गए हैं। इन तमाम बातों से सहज ही यह सवाल जन्म लेता है कि पृथ्वी पर जीवन का विकास एक समय की घटना थी या दूसरे ग्रहों पर होने वाली विभिन्न परिस्थितियों का परिणाम था। किसी भी ग्रह पर सूक्ष्मजीवी की उपस्थिति इस अनुमान को बल देती है कि हमारी आकाश-गंगा में कहीं न कहीं बुद्धिमान सभ्यता मौजूद है।

इस तरह अब इन्सानी सोच को बदल डालने के लिए अनेक अवसर आ जुटे हैं। पहले जहाँ हम अपनी छोटी-सी धरती को द्वीपों और देशों में बाँटते रहते थे। इसके छोटे-से टुकड़े के लिए महाविनाश के सरंजाम जुटाते फिरते थे; वहीं अब वैज्ञानिकों ने चेतावनी दे डाली है कि मानव अभी से अपने को विश्व परिवार का नहीं, ब्रह्माण्ड परिवार का सदस्य मानकर अपनी सोच में बदलाव लाए। वैज्ञानिक जान डॉन के शब्दों में, “हम मुख्य ग्रहाधिपति का एक हिस्सा हैं। हमारे शरीर के अणु दूर के सूर्योदय में गढ़े गए हैं। यह भी सम्भव है कि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत अन्य कहीं से शुरू हुई हो और वह किसी धूमकेतु अथवा क्षुद्र ग्रह के जरिए पृथ्वी तक पहुँची हो। यह भी सम्भव है कि जीवन की शुरुआत पृथ्वी पर हुई हो और उसका एक छींटा मंगल के मुँह पर जा पड़ा हो। शायद तभी भारतीय मनीषियों ने मंगल को ‘ धरणीगर्भ सम्भूतं ‘ कहकर सम्बोधित किया है।

जहाँ तक धरती से बाहर किसी और विकसित सभ्यता की बात है, तो इस बारे में कुछ और बातों पर ध्यान रखना होगा। हमारा सूर्य जिससे हमारी पृथ्वी जन्मी, उसकी उम्र लगभग 5 अरब वर्ष है। ब्रह्माण्ड में ऐसे न जाने कितने तारे हैं, जिनकी उम्र 10 अरब साल से भी ज्यादा है। जिस तरह हमारा सौरमंडल बना, उसके एक ग्रह में जीवन विकसित हुआ। इसी तरह यदि 10 अरब वर्ष पहले के तारामंडलों में ग्रह बने होंगे और वहाँ बाद में जीवन विकसित हुआ होगा तो निश्चित ही आज अत्यन्त विकसित होगा। मंगल ग्रह पर तो सूक्ष्मजीवी की उपस्थिति को साढ़े तीन अरब साल पहले की बात माना जा रहा है, इस तरह तो वहाँ भी अब तक विकसित सभ्यता की आशा सँजायी जा सकती है। मनुष्य के चरित्र ( आचरण ) से ही पता चलता है कि यह कुलीन है यह कुलहीन, सच्चा वीर है अथवा यूँ ही डींगे मारने वाला तथा पवित्र है या अपवित्र।

बात कुछ भी हो, लेकिन अभी तक वैज्ञानिकों ने जो तथ्य एकत्रित किए हैं कि इस विराट ब्रह्माण्ड में हम अकेले नहीं हैं, हमारे और भी पड़ोसी हैं। आने वाली इक्कीसवीं सदी में उनका सुनिश्चित पता-ठिकाना लगाए बिना न रहेगी और तब नवयुग प्रस्तुत करने वाली इस अगली सदी मनुष्य देश-जाति और धर्मों की संकीर्ण परिधि में बँधा न रहेगा। समूची पृथ्वी एक राष्ट्र का रूप लेगी, इसमें एक धर्म होगा और एक भाषा बनेगी और एक संस्कृति पनपेगी अगले दिनों हमें अपना परिचय धरती के निवासी के रूप में देना पड़ेगा, तभी हम ब्रह्माण्ड के अन्य सुविकसित प्राणियों से एकता, आत्मीयता स्थापित कर पाएंगे। कुछ ही वर्षों बाद अगली सदी जिस उज्ज्वल भविष्य को लेकर आ रही है उसमें ब्रह्माण्ड परिवार में आत्मीयता से भरे आदान-प्रदान का सिलसिला पनपने की सुनिश्चित सम्भावना है। इसके लिए आवश्यकता अपनी क्षुद्रता छोड़कर व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की है।


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