पशुबलि की कुप्रथा (Kahani)

November 1996

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देवी-देवताओं के नाम पर प्रचलित-अन्धविश्वासों में प्रमुख है-पशुबलि। इस जंजाल में अनेकों फँसते देखे जा सकते हैं।

राजा कुमारपाल प्रजाप्रिय राजा थे। उनके गुरु हेमचन्द्राचार्य सदा उच्च कोटि के परामर्श दिया करते थे। उस राज्य में विजयदशमी के दिन देवी पर पशुबलि बड़े धूम-धाम से मनाई जाती थी। उस दिन सैंकड़ों पशु काटे जाते थे।

गुरु ने राजा को इस कुप्रथा को बन्द करने के लिए कहा। राजा ने कहा प्रजा इसके लिए तैयार न होगी। उसे मैं कैसे रुष्ट करूं। गुरु ने प्रजा को समझने का काम अपने ऊपर लिया।

सजधज कर बलि के निमित्त प्रजाजन पशुओं को लाये। गुरुदेव ने उन सब को एकत्रित करके पूछा-देवी तो सबकी माता है। पशुओं की बलि लेकर तो वह रुष्ट होगी।

प्रजानन ने एक स्वर से कहा-देवी बलि चाहती है और बलि से प्रसन्न भी होती है। यदि ऐसा न होता, तो हम लोग इस प्रथा को क्यों चलाते?

गुरुदेव ने कहा-आप लोगों के कथन की सच्चाई की वास्तविकता अभी परखे लेते हैं। देवी के मन्दिर में सभी बलि चढ़ने वाले पशु बन्द कर दिए गए। सवेरा होते ही दरवाजा खोला गया और देखा गया कि कितने पशु देवी ने भक्षण किए हैं।

दरवाजा खुलने पर सभी पशु गिने गए। एक भी कम न हुआ। गुरुदेव ने उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा-देखा आप लोगों ने । देवी ने एक भी पशु नहीं खाया । उन्हें प्यारा पुत्र समझकर छोड़ दिया। फिर आप लोग ही प्राणि-हत्या क्यों ओढ़ते हैं?

गुरुजी की उक्ति से सभी प्रजाजन सन्तुष्ट हुए। पशुबलि रुक गई और प्रजानन रुष्ट न होने पाए।


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