युवराज विक्रमसिंह को गुरुकुल से वापस लौटते ही राजसिंहासन सम्हालना पड़ा। महाराज रणवीरसिंह की आकस्मिक मृत्यु के कारण यह भार बरबस उन पर आ पड़ा था। अब वे एक विशाल साम्राज्य के स्वामी थे। महावीर योद्धाओं की चतुरंगिणी सेना उनके एक इंगित पर सब कुछ करने के लिए सत्रद्ध थी। हीरे-जवाहरात, रत्न-मणियों से भरा-पूरा राजकोष उनके लिए खुला था। दास-दासियाँ हाथ जोड़े उनके संकेत की प्रतीक्षा में आठों प्रहर खड़े रहते थे।
इतनी साधना-सम्पन्नताओं से घिरे रहने के बावजूद विक्रमसिंह को अपना गुरुकुल भूला ना था। जहाँ उन्होंने शिक्षा के साथ श्रमनिष्ठा भी अर्जित की थी। सायं-प्रातः के अध्ययन के अतिरिक्त, गौओं की सेवा, यज्ञ के लिए समिधा लाने जैसे कार्य वहाँ उन्हें करने पड़ते थे। अपने गुरुकुल वास में उन्होंने यही पाया कि बौद्धिक श्रम से शारीरिक श्रम के मूल्य को कम नहीं आँका जा सकता। यही कारण था कि इतने बड़े साम्राज्य के अधीश्वर बनने के बावजूद वे उसे भूले नहीं। राजकोष का उपयोग वे प्रजा के हित में संकल्पपूर्वक करते थे। अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्होंने खाली समय में बाँस की टोकरियाँ बनाने का काम शुरू किया। इस काम से उन्हें गुजारे भर के लिए आवश्यक धन जुट जाता था।
महाराज विक्रमसिंह के गुरु राजधानी से थोड़ी दूर पर बसे एक छोटे-से गाँव में रहते थे। वे अब बूढ़े हो चले थे। खेती ही उनकी आय का जरिया था। एक साल बरसात नहीं हुई। खेत सूखा पड़ा था। गुरुजी को जीवनयापन में कठिनाई होने लगी। एक दिन उन्होंने सोचा कि, क्यों न अपने शिष्य राजा विक्रमसिंह के पास जाऊँ। वह मेरी आर्थिक सहायता अवश्य करेगा। उनकी सेवा में सदा तत्पर रहने वाला विनम्र विद्यार्थी अब तो महाराज बन चुका है। अब उसे क्या कमी है। यही सब सोचते-विचारते वे पैदल ही राजधानी की ओर रवाना हो गई। राजमहल पहुँचकर उन्होंने द्वारपाल से राजा को सूचना देने को कहा।
राजा उस समय बाँस की टोकरियाँ बनाने में तल्लीन थे। सूचना पाते ही वे स्वयं द्वार पर आए और अपने गुरुजी के चरणस्पर्श कर आदरसहित महल में ले गए। कुछ देर बाद जब भोजन का समय हुआ तो राजा ने गुरुजी से पूछा, “गुरुजी, आप शाही भोजनशाला में भोजन करेंगे या मेरे साथ? क्योंकि मैं तो केवल दाल-साग, रोटी का साधारण भोजन ही करता हूँ। भोजनशाला में मेहमानों के लिए तरह-तरह के व्यंजन बनते हैं। “
गुरुजी ने कहा- “हम भोजन तुम्हारे साथ ही करेंगे।”
भोजन के पश्चात् गुरुजी ने आराम किया । गुरुजी को वहाँ रहते हुए कई दिन हो गए थे। एक दिन उन्होंने राजा से कहा- “हम वापस गाँव जाना चाहते हैं।”
राजा ने गुरुजी से कहा- “मैं आपको विदाई में कुछ देना चाहता हूँ।”
गुरुजी मन-ही-मन बहुत खुश हुए। राजा ने एक सन्दूक खोला और एक छोटी सी पोटली निकाली। पोटली में चाँदी का एक सिक्का था। राजा ने वह सिक्का गुरुजी को भेंट कर दिया। चाँदी का सिक्का लेते समय गुरुजी दुःख और प्रसन्नता के बीच हिचकोले खा रहे थे। दुःख इस बात का था कि उन्हें इतनी दूर पैदल आने के बावजूद सिर्फ एक चाँदी का सिक्का मिला। भला इस एक सिक्का से उनके अकाल पीड़ित परिवार का क्या हित हो सकेगा। प्रसन्नता इस बात की थी, कि उनका शिष्य सम्राट होने के बावजूद गुरुकुल की पुनीत परम्पराएँ नहीं भूला है। इन्हीं विचारों में खोए वह अपने गाँव चले गए।
संयोग से अगले वर्ष वर्षा अच्छी हुई। गुरुजी ने अपना खेत जोता और चाँदी के सिक्के से बीज खरीद कर खेत बो दिए। कुछ ही दिन में फसल अच्छी लहलहाने लगी। उन्होंने अच्छे दाम में उसे बेचा और खूब धन कमाया। उसी पैसे से दूसरा व्यापार किया, तो उनके घर में जैसे धन की वर्षा होने लगी। उनके दिन आराम से कटने लगे।
एक दिन उन्होंने सोचा कि राजा के दिए हुए चाँदी के सिक्के से ही यह कमाल हुआ है। चलकर कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए।
वे फिर राजधानी पहुँचे। जब राजा गुरुजी के पास बैठे तो उन्होंने राजा से पूछा- “हे राजन्! मैं एक बात पूछना चाहता हूँ। तुमने चाँदी का सिक्का मुझे दिया था, उसने तो हमारे दिन ही फेर दिए। उस चाँदी के सिक्के के कारण अब हम धनवान बन गए हैं। कृपया हमें अब बताओ कि उसमें क्या करामात थी?”
सुनकर राजा ने एक सेवक को बुलाकर कहा- “सेठ सोहनलाल को तुरन्त उसके पिछले साल के बहीखातों सहित बुलाकर लाओ।”
सेठ बहीखाते पलटकर सब खर्चें बतलाता रहा। फिर बोला एक चाँदी का सिक्का एक मजदूर को दिया। राजा ने कहा- “यह बतलाओ कि वह चाँदी का सिक्का एक मजदूर को दिया। राजा ने कहा- “यह बतलाओ कि वह चाँदी का सिक्का मजदूर को क्यों दिया था?” सेठ बोला- “राजन! बरसाती रात थी। बड़ी ही तेज पानी बरस रहा था। कपड़े की गाँठें मकान के ऊपर वाले कमरों में रखी हुई थीं। पानी इतना तेज था कि छत से पानी नीचे कमरे में रखी गाँठों को भिगो रहा था। मैं और मेरा बेटा गाँठें उठा-उठा कर नीचे लाने लगे। लेकिन इतना बोझ हम नहीं उठा सके। हम लोग बहुत थक गए सुबह चार बजे हमने सड़क पर खड़े एक मजदूर को देखा। उसे काम बताया तो वह राजी हो गया। उसने सारा माल अकेले नीचे उतार कर रख दिया। तभी दूर से मंदिरों के घण्टे बजने की आवाज आने लगी। वह मजदूर हड़बड़ाकर बोला, अब मैं जाऊँगा। उस दिन मेरी जेब में केवल एक ही चाँदी का सिक्का था, वह मैंने उस मजदूर को देते हुए कहा, बाकी पैसे फिर ले जाना, सिक्का था, वह मैंने उस मजदूर को देते हुए कहा, बाकी पैसे फिर ले जाना, सिक्का लेकर वह चला गया, पर बाकी पैसे लेने दुकान पर नहीं आया।”
सारी बातें सुनने के बाद राजा बोले- “गुरुजी! वह मजदूर मैं ही था और वह मेरी कड़ी मेहनत की कमाई थी।” अब गुरुजी को चाँदी के सिक्के से हुए चमत्कार का रहस्य समझ में आ गया। वह बोले- “मेहनत और ईमानदारी- जीवन में सफलता प्राप्त करने की कुँजी है। यही कारण है तुम्हारे मेहनत से कमाए गए चाँदी के एक सिक्के ने मेरे दिन फेर दिए।”