सबसे बड़ा दरिद्र

November 1996

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सोनपुर एक छोटा गाँव था। यह सिंहगढ़ राज्य की सीमा के पास ही था। सोनपुर में एक महात्मा कहीं से विचरते हुए आ गए। उन्होंने गाँव की प्राकृतिक सुरम्यता, मनोरम शान्ति को देखकर विचार किया कि इस गाँव में कुछ दिन ठहरा जाय। महात्माजी के साथ दो शिष्य भी थे, ज्ञान और आनन्द। एक दिन महात्माजी अपने दोनों शिष्यों के साथ भिक्षा माँगने के लिए जा रहे थे। तभी सड़क पर पड़ा एक सिक्का महात्माजी को दिखा। उन्होंने वह चमकता सिक्का उठा लिया और झोली में सहेजकर रख लिया।

इसे देखकर ज्ञान चकित हुआ। वह सोच रहा था-निर्लिप्त वीतराग सन्त को सिक्के से क्या काम? गुरुजी को पहले तो इसे उठाना ही नहीं था, फिर उठा भी लिया तो झोली में सहेजकर किसलिए रखा। ज्ञान की ही भाँति आनन्द का मन भी सिक्के की चकाचौंध में सक्रिय हो गया था। वह कल्पना कर रहा था- काश ! यह सिक्का मुझे दिखता। मैं इसे उठाता तो आज बाजार से मिठाई लाता।

महात्माजी भाँप गए कि इस सिक्के को लेकर उनके शिष्य उलझन में पड़ गए हैं। हँसते हुए वे बोले- “बच्चों! जानते हो यह सिक्का मैंने क्यों उठाया। यह साधारण सिक्का नहीं है। ईश्वर ने मुझे इसलिए दिया है कि इसे मैं किसी सुपात्र को दूँ। सुपात्र मिलते ही मैं इसे उसे सौंप दूँगा। यह उसी की धरोहर है। कहीं लुप्त न हो जाय, इसलिए संभालकर तो रखना ही पड़ेगा।” शिष्य चुप थे।

ज्ञान ने अनुमान किया- सुपात्र तो कोई निर्धन ही हो सकता है। कोई निर्धन न मिला, तब संभव है कि गुरुजी इसे मुझे ही दे दें। यदि ऐसा हुआ तो मैं नई पोथी लाऊँगा। आनन्द सोच रहा था सुपात्र वह जो सिक्के का सही उपयोग करे। यदि गुरुजी ने मुझसे पूछा तो मैं कहूँगा- इस सिक्के की सुन्दर माला लाकर भगवान की मूर्ति को अर्पण की जाय।

भिक्षाटन के बाद महात्माजी गाँव के बाहर डेरे पर आ गए। भोजन-भजन हुआ। दुःखी गरीब महात्माजी के दर्शन के लिए आए। सबने अपनी-अपनी करुण कहानी कही। महात्माजी ने हरेक को नीति पालन, सदाचार और ईश्वर भक्ति की शिक्षा दी। उन्होंने बताया प्रभु दयामय, भक्तवत्सल हैं। उनसे प्रार्थना करनी चाहिए। दयामय प्रभु भक्त की आन्तरिक पुकार सुने बिना नहीं रहते। द्रौपदी, गज की कहानियाँ उन्होंने इतने विश्वास और भावुक मन से सुनाये, कि सुनने वाले भी विभोर हुए बिना न रहे। दोनों शिष्य पास ही थे। वे सोच रहे थे। गुरुजी ने सिक्का किसी को नहीं दिया। इतने गरीब, इतने कष्ट पीड़ितों के बीच कोई सुपात्र-सत्पात्र नहीं। तब कौन है वह सुपात्र जिसे वे वह सिक्का देंगे। दोनों शिष्यों की जिज्ञासा तीव्र हो उठी।

दूसरा दिन भी गुजर गया। एक से एक दरिद्र, दुःखी लोग आए। किन्तु महात्माजी ने किसी को सिक्का नहीं सौंपा। इसी भाँति कई दिन गुजरने लगे। महात्माजी सुपात्र खोजते रहे। प्रतिदिन शिष्य भी अपने मन में अनुमान करते रहते, किन्तु सिक्का जहाँ का तहाँ था।

तभी महात्माजी को खबर मिली कि सिंहगढ़ के महाराज अपनी विशाल सेना के साथ इधर से गुजर रहे हैं। वे पड़ोसी राज्य पर हमला करने आ रहे हैं। राज्य की सीमाओं का विस्तार करना ही उनका उद्देश्य है। सोनपुर सीमान्त गाँव था। घोड़ों की टापों से उड़ती धूल, हाथियों की चिंघाड़ वातावरण में एक अनजानी दहशत भर रही थी। सेना के बढ़ते कदमों के साथ विनाश-लीला के वे दृश्य भी साकार होने लगे, जिसे रचने के लिए सेना आगे बढ़ रही थी और उसके पहले कदम सोनपुर में पड़ने थे।

महात्माजी ने अपने शिष्यों को बुलाया-”वत्स सोनपुर छोड़ने की घड़ी आ गयी। चलो तैयारी करो-चलते हैं।” ज्ञान ने हामी भरी, आनन्द भी सहमत। ज्ञान का विचारी था, युद्ध से जितना दूर रहा जाय, उचित है। आनन्द तो बचपन से ही लड़ाई-भिड़ाई से भयभीत रहता था। मगर दोनों शिष्य सोच रहे थे- आज तक गुरुजी एक गाँव से प्राप्त धन-धान्य कभी दूसरे गाँव लेकर नहीं गए। सिक्का अब तो किसी न किसी को अवश्य देंगे। कौन होगा वह सुपात्र?

शिष्यों सहित महात्माजी चल पड़े। तभी सिंहगढ़ के राजा की सवारी आ गयी। मंत्री, सलाहकारों ने राज को सूचित किया कि ये महात्माजी जा रहे हैं। राजा जानता था कि महात्मा बड़े ज्ञानी, परोपकारी सन्त हैं। वह हाथी से नीचे उतरते हुए बोला-”सिंहगढ़ के राजा सिद्ध महात्मा को प्रणाम करते हैं। सम्पूर्ण राज्य में आपकी चर्चा है। दर्शन का सौभाग्य आज मिला। आप आशीर्वाद दें।”

शान्त भाव से महात्माजी ने अपनी झोली में हाथ डाला। राजा ने सोचा कोई बहुमूल्य सौगात मिल रही है। महात्माजी ने राजा की हथेली पर सिक्का रखते हुए कहा-”हे सिंहगढ़ के अधीश्वर ! तुम्हें मैं यह सिक्का दे रहा हूँ।”

राजा आश्चर्य से हतप्रभ, मंत्री, सहयोगी, सेनाधिकारी सभी के विस्मय का पार न था। दोनों शिष्य तो अचरज से अवाक् थे-सिक्के का सुपात्र राजा कैसे?

सभी को ठगा-सा खड़ा देखकर महात्माजी कहने लगे- “देखो राजा! तुम्हारा राज्य धन-धान्य से सम्पन्न है। तुम्हारे पास अथाह कोष और विपुल सेना है। तुम स्वस्थ, सुन्दर और बलवान हो। तुम्हारी रानी सुशील और गुणवान है। मंत्री, सेनापति, अधिकारी भी योग्य हैं। प्रजा में अमन-चैन भी है। इस पर भी मेरे विचार से तुम सबसे बड़े दरिद्र हो। इसे तुम बहुमूल्य सिक्का समझो। ईश्वर ने यह मुझे विशेष रूप से दिया है। ताकि मैं सुपात्र को दूँ। राजा तुम सबसे बड़े सुपात्र हो।”

राजा महात्मा के सम्मुख नतमस्तक थे। मंत्री, सेनापति, सलाहकार, विद्वान सभी महात्माजी की बात सुनकर सोच में पड़ गए। ज्ञान एवं आनन्द दोनों सोच रहे थे- आखिरकार गुरुजी ने सुपात्र की तलाश कर ही ली।

वातावरण में व्याप्त मौन को तोड़ते हुए महात्मा विश्वास भरे शब्दों में बोले-”हे राजा! मुझे अपार खुशी है। तुम समझ गए होंगे कि मैंने तुम्हें सबसे बड़ा दरिद्र क्यों कहा? इतना सब होते हुए भी तुम्हारे लालच का अन्त नहीं। अपनी इस घोर लिप्सा की पूर्ति करने के लिए तुम क्या कुछ करने के लिए नहीं तैयार हो। न जाने कितने लोग मारे जाएँगे, खेत उजड़ेंगे, लहू बहेगा, हाहाकार मचेगा। तनिक विचार करो नरेश तुमसे बड़ा लालची और दरिद्र और कौन होगा?”

राजा सन्तवाणी का गूढ़ अर्थ समझ गए। उन्होंने सेनापति को संकेत दिया। सेना के कदम वापस मुड़ चले और राजा हाथी पर नहीं महात्माजी के पीछे पैदल-पैदल चल पड़ा था।


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