इक्कीसवीं सदी-नारी सदी, संकल्प है महाकाल का

March 1996

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ज्वालामुखी फटने से पहले धरती के अन्दर ढेरों रासायनिक प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं। सालों लम्बी चलने वाली इन प्रक्रियाओं को जन साधारण भले न समझ पाए, लेकिन भूगर्भवेत्ता इन्हीं के आधार पर ज्वालामुखी फटने की सटीक भविष्यवाणी कर देते हैं। जो समय आपने पर खरी उतरती है। इक्कीसवीं सदी-नारी सदी के उद्घोष के पीछे भी यही तथ्य निहित है। अगले ही कुछ वर्षों बाद नयी सदी में होने वाला ‘नारी शक्ति’ का विस्फोटक उनके लिए जरूर अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक लगेगा, जो वर्तमान सदी की हलचलों से आँख मूँदे हैं। अन्यथा इसे नियन्ता की प्रेरणा से सतत् क्रियाशील प्रक्रिया का सुनियोजित परिणाम ही समझना चाहिए।

विपन्नताओं और विषमताओं से घिरी मध्ययुगीन नारी ने भले ही अपना सब कुछ खो दिया हो, पर संघर्ष की शक्ति और धैर्य नहीं खोया। समाज के कतिपय चतुर लोगों ने उसे व्यक्ति नहीं वस्तु का दर्जा दे डाला। बौद्धिक विकास, शिक्षण-सामाजिक अधिकार सभी से उसे वंचित कर दिया। बस वह उपभोग की वस्तु बन कर रह गयी, जिसका मनचाहा उपभोग करने के बाद फेंक देने में ही भलाई समझी जाने लगी। जीने के अधिकार तक से वंचित नारी ने अपने उज्ज्वल भविष्य की ओर पहला कदम उस समय रखा, जब एक लम्बे संघर्ष के बाद सन् 1894 में न्यूजीलैण्ड ने विश्व के प्रथम राष्ट्र के रूप में महिलाओं को वोट का अधिकार दिया।

यह अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य में विस्मयकारी घटना थी जिसे समर्थन कम विरोध अधिक मिला। क्योंकि समाज पर अपना वर्चस्व बनाए रखने वाले संवेदनहीन लोगों को यह आशंका व्याप गयी थी कि देर से सही, पर अब महिलाओं के विकास को रोका न जा सकेगा और यही हुआ भी। बीसवीं सदी की शुरुआत में ही सन् 1901 में आस्ट्रेलिया में भी महिलाओं में ने अपने वोट का अधिकार प्राप्त कर लिया। देखते-देखते सन् 1911 में जो कि युग चेतना के अवतरण का वर्ष था, विश्व भर की जाग्रत महिलाओं ने मिल-जुलकर 8 दिवस के रूप में सम्पन्न किया गया यह अन्तर्राष्ट्रीय समारोह इस बात की स्पष्ट घोषणा थी कि अब नारी शक्ति युगशक्ति बनने जा रही है। उसकी इस नियति को रोक पाना, किसी व्यक्ति, संस्था, वर्ग अथवा समाज के बूते की बात नहीं।

सन् 1917 तो जैसे विश्व में क्रान्ति का संदेश लेकर ही उतरा था। बोल्शेविको द्वारा उठाए गए समता के स्वरों ने समाज में असमानता की जड़ें हिला दीं। साम्यवादियों ने यहाँ तक कहा कि औरत का भाग्य और समाजवाद की स्थापना अनिवार्यतः परस्पर सम्बद्ध है। अब वे जमाने गए जबकि औरत को रोमन कानून में बेवकूफ और असन्तुलित कहा जाता था। अरास्ताइन जैसे लोग बिना सोचे समझे कहते थे कि औरत वह जीनह जो न स्थिर है और न कृतसंकल्प। इन सबके विरोध में बेबल ने लिखा-’कि औरत और सर्पहारा दोनों ही दलित हैं और दोनों सामाजिक जागरण की सम्भावना साम्यवादी व्यवस्था में अधिक है। पूँजीवादी अवरोधों की समाप्ति के साथ ही स्त्री और पुरुष समानाधिकार प्राप्त कर लेंगे।

इस बीच भारत में भी राजा राममोहन राय, केशव चन्द्र सेन, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर एवं स्वामी विवेकानन्द के प्रयासों से नारी अपनी संघर्ष क्षमता पा चुकी थी। उसे इस बात का विश्वास होने लगा था कि वह बेजान वस्तु नहीं सप्राण व्यक्ति है। उसका व्यक्तित्व आधा-अधूरा नहीं सर्वांगीण है। जो नारी संघर्ष के इन बढ़ते कदमों के साम्यवादी क्रान्ति के वर्ष सन् 1917 में कनाडा में महिलाओं ने पहली बार वोट का अधिकार प्राप्त कर लिया।

महिलाओं के संघर्ष का यह दौर अनेकों अंतर्राष्ट्रीय तूफानों से घिरा रहा। हिंस्र और बर्बर राजनीतिज्ञों ने जन-जीवन को एक के बाद एक दो विश्व युद्ध से उबरने के बाद नारी चेतना ने एक नयी अंगड़ाई ली और सन् 1945 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा की पहली बैठक में महिला जागरुकता के लिए एक उप आयोग की स्थापना हुई। इन उप आयोग की पहली और अन्तिम बैठक में एक पूर्ण आयोग की आवश्यकता महसूस की गई और इसी के परिणाम स्वरूप सन् 1946 में मानवाधिकार आयोग की पहली बैठक में एक महीने बाद फरवरी में महिला आयोग की पहली बैठक सम्पन्न हुई।

इसी समय 15 अगस्त 1947 को भारत की महिलाओं ने पुरुषों के साथ मिलकर लड़ी गई विदेशी ताकतों के खिलाफ लड़ाई में जीत हासिल की। महिलाओं को बराबरी के अधिकार प्राप्त हुए। सन् 1949 में संयुक्त राष्ट्र स्तर पर घोषणा की गई, जिसमें नारी के शोषण को अपराध माना गया। सन् 1949 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने महिलाओं के यौन शोषण तथा वेश्यावृत्ति के खिलाफ सम्मेलन को विश्व स्तर पर मान्यता प्रदान की। इसके दो ही सालों के बाद सन् 1951 में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने स्पष्ट घोषित किया कि बिना स्त्री पुरुष का भेद समान कार्य के लिए समान वेतन देय होगा। यह इस तथ्य का स्पष्टीकरण था कि महिलाएँ श्रमशीलता में पुरुषों से किसी तरह कम नहीं है।

वर्ष 1952 में संयुक्त राष्ट्र ने महिलाओं के राष्ट्रीय अधिकारों को मान्यता दी। यह मान्यता प्रदान करते समय संयुक्त राष्ट्र के प्रवक्ता ने कहा कि अब वह समय आ गया है जबकि नारी घर की दीवारों में कैद नहीं रह सकती। उसके घर के आँगन की सीमाएँ विस्तृत होकर विश्व परिसर में फैल गयी हैं। 1957 में संयुक्त राष्ट्र ने इस बात पर अपनी सहमति व्यक्त की कि किसी महिला की शादी के बाद उसकी मर्जी से उसे पति की राष्ट्रीयता प्रदान की जाएगी। वर्ष 1961 में पैराग्वे तथा सम्पूर्ण लैटिन अमेरिका की महिलाओं ने एक लम्बे संघर्ष के बाद अपने मत का अधिकार पा लिया।

विधवा विवाह समस्या के समाधान की अधूरी खोज थी। इसे तब तक पूरा नहीं किया जा सकता जब तक बाल विवाह पर रोक न लगायी जाय। सन् 1962 में इस बात को विश्व स्तर पर माना गया कि विवाह के लिए स्त्री-पुरुष दोनों की सहमति जरूरी है और विवाह की न्यूनतम आयु के निर्धारण के साथ विवाह के पंजीकरण को जरूरी माना गया। 1964 में रोजगार नीति में महिलाओं के साथ किए जाने वाले भेद-भाव को समाप्त किया गया।

भारत में इसी समय शासन की बागडोर श्रीमती इन्दिरा गाँधी के हाथों में आयी। उनकी सूझ-बूझ एवं नीति कुशलता में भारत में राष्ट्रीय स्तर पर नारी विकास के नये आयाम जुड़े। वर्ष 1967 में ईरान जैसे मुस्लिम और पर्दानशीन देश को भी अपने परिवार सुरक्षा कानून के तहत बिना पति की अनुमति के महिलाओं को काम करने की स्वतन्त्रता प्रदान करनी पड़ी। सन् 1968 में मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन तेहरान को प्रचार के लिए मान्यता मिली। इस सम्मेलन में विश्वभर के विचारशील महिलाओं के प्रति किए जाने वाले भेद-भाव को समाप्त करने के लिए संकल्प लिया। 1970 के पूर्वार्द्ध में ‘टेक बैक द नाइट’ के प्रचार का प्रारम्भ हुआ जिसके माध्यम से समूचा विश्व महिलाओं के सुरक्षा साधनों पर सोचने के लिए आपात काल एवं शस्त्र संघर्ष की स्थिति में भी महिलाओं सुरक्षा की जाएगी।

प्रबुद्ध नारी चेतना अपना विकास एवं विस्तार करते वर्ष के रूप में मनाने का संकल्प लिया। इस साल महिलाओं के विकास, शांति एवं समता के लिए मैक्सिको घोषणा पत्र को मान्यता मिली। साथ ही संसार के बहुसंख्यक देशों ने अनेकों महिला संगठनों एवं कार्य योजनाओं का विकास किया। 1976 में चार से आठ मार्च तक बेल्जियम में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर न्यायाधिकरण की घोषणा की गई। इस अवसर पर लगभग 40 देशों की 2000 महिला प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इसी वर्ष यानि कि सन् 1976 में ही संयुक्त राष्ट्र दशक के रूप में घोषित किया।

महाकाल की चेतना और उसकी सक्रियता निराली है। मानव समाज में किए जाने वाले बड़े काम हों अथवा सृष्टि की व्यापक फेर बदल, उसकी सामर्थ्य असम्भव को सम्भव बनाती चलती है। सड़ी-गली मान्यताओं, समाज के खण्डहर हो गए भवन को मटियामेट कर उसके स्थान पर नया सृजन करने वाली महाशक्ति का उद्गम स्त्रोत यही है। जो मनुष्यों संस्थाओं और आन्दोलनों को यन्त्र बना कर अपने शाश्वत प्रयोजन के लिए इस्तेमाल करता है। यह तो अन्तः स्थित वह विश्वात्मा है, जिसकी शक्ति सर्वत्र संचरित है और विश्व की प्रगति एवं मानव की नियति का निर्माण करती है। उसी का आवेग खुद को काल में चरितार्थ करता है और जब उससे गति और प्रेरणा मिल जाती है तो काल और शक्ति उसका भार ग्रहण करते हैं। उसे तैयार करने, पकाने और पूरी तरह सफल बनाने में जुट जाते हैं। काल के इस अधीश्वर के अपने हाथों में बागडोर थामते ही संसार की समस्त शक्तियां एक जुट होकर उसके संकल्प की पूर्ति हेतु संलग्न हो जाती है। चाहे मनुष्य सहायता दे अथवा प्रतिरोध करे, किन्तु उसका काम रुकता नहीं, जब तक संकल्प पूर्ति न हो जाए।

इक्कीसवीं सदी-नारी सदी का संकल्प उसी नियन्ता का है, सृष्टि जिसकी रचना है। सृजन की देवी को उसका गौरव वापस दिलाने के लिए वर्ष 1979 में महिलाओं के विरुद्ध हर प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें महिलाओं के पूर्ण विकास और आधुनिकीकरण तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकारों के दिवाने के लिए विश्व के प्रमुख जन जन प्रतिबद्ध हुए। अगले ही वर्ष 1980 में 14 से 19 जुलाई को कोपेन हेगन में महिलाओं के लिए मध्य दशकीय एक और विश्व स्तरीय सम्मेलन हुआ जिसमें कार्य योजना हेतु दस्तावेजी कारण किया गया। इसके तीसरे साल 1983 में नीदरलैण्ड में महिलाओं के यौन शोषण के विरुद्ध एक वृहत कार्यशाला आयोजित की गई जिसमें संसार के सुविख्यात विचारशीलों ने समस्या सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्षों पर विचार किया और उन त्रुटियों और तकनीकों का विश्लेषण किया, जिसके आधार पर समस्या का समाधान सम्भव है। सन् 1985 में महिलाओं पर होने वाले क्रूरता पूर्ण अमानवीय अथवा मानहानि कारक व्यवहार एवं उत्पीड़न या दण्ड के विरोध में एक अंतर्राष्ट्रीय सन्धि हुई इसी साल नैरोबी में 15 से 26 जुलाई में महिला वर्ष के दशक की समाप्ति पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। जिसमें महिलाओं की उन्नति की रणनीति बनाने की सम्भावनाओं की ओर अग्रगामी नीति का निर्धारण हुआ। ताकि अगली सदी में नारी समाज के कर्णधार की भूमिका का सफलता पूर्वक निर्वाह कर सके।

वर्ष 1990 में 25 नवम्बर से 10 दिसम्बर तक महिलाओं पर हिंसा के सक्रिय विरोध में पहली बार 16 दिनों तक लगातार विश्व स्तर पर प्रदर्शन किया गया। स्थान-स्थान पर एक साथ किए गए इस प्रदर्शन में विश्व के लगभग हर देश की महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी निभाई। इस प्रदर्शन ने समाज के अन्धे-बहरे प्रतिगामी तत्वों को यह देखने-सुनने और सोचने के लिए मजबूर किया कि नारी वस्तु नहीं व्यक्ति है। जीवन के हर पहलू में समान भागीदारी उसका नैसर्गिक अधिकार है।

1993 महिलाओं जाग्रति एवं प्रगति का विशिष्ट वर्ष रहा। इस साल न्यूजीलैण्ड में महिलाओं के मताधिकार का सौवां वर्ष मनाया गया। वियना में इसी साल 15 से 20 तक मानवाधिकारों पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। 16 जून को महिलाओं के मानवाधिकारों के हनन के विरोध में न्यायाधिकरण की बैठक हुई, जिसमें महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के विरोध में 5 लाख हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन संयुक्त राष्ट्र को दिया। साथ ही गैर सरकारी संगठनों ने भी महिलाओं के हित में मानवाधिकार न्यायाधिकरण स्थापित किया। इसी साल 6 अक्टूबर को महिलाओं के विरुद्ध किए जाने वाले भेदभाव के उन्मूलन पर अभिसमय में वहाँ समाज भी शामिल हुआ। वर्ष के अन्त अर्थात् दिसम्बर में सबसे घनी आबादी वाले नौ देशों के शासनाध्यक्षों का ‘सबके लिए शिक्षा’ का प्रथम शिखर सम्मेलन नई दिल्ली में हुआ जिसमें महिलाओं को शिक्षित करने के लिए विशेष रूप से विचार किया गया।

दिसम्बर में ही 20 तारीख को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति का निर्णय लिया। महासभा ने आयोग से दस वर्षों के लिए मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए एक कार्य योजना तैयार करने को कहा। इस योजना में इस बात पर विशेष रूप से बल दिया गया कि महिलाओं पर किए जाने वाले अपराधों में कमी आए और वे अपना स्वतन्त्र विकास कर सकें।

अगले वर्ष यानि के 1994 में फरवरी-मार्च के महीनों में दक्षिण अफ्रीका में पहली बार रंगभेद रहित सभी महिलाओं का समान रूप से वोट का अधिकार मिला। इसी साल जून महीने में एशिया और प्रशांत क्षेत्र में महिलाओं के विकास के लिए जकार्ता घोषणा पत्र जारी किया गया। सितम्बर की 5 से 13 तारीखों में मिश्र की राजधानी काहिरा में ‘जन संख्या नियन्त्रण तथा विकास’ पर एक विशेष अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें यह निर्णय लिया गया कि गर्भ निरोधक साधनों में महिलाओं को निर्णय लेने की पहल का अधिकार है।

1995 के वर्ष में 11-12 मार्च की तारीखों में सामाजिक विकास के लिए विश्व शिखर सम्मेलन कोपेन हेगन में सम्पन्न हुआ। इसमें गरीबी निवारण, व्यवसाय के अवसर और सामाजिक एकीकरण में महिलाओं की सार्थक एवं सक्रिय भूमिका पर व्यापक विचार किया गया। इसी वर्ष 4 से 15 सितम्बर की तिथियों में चीन की राजधानी बीजिंग में संयुक्त राष्ट्र द्वारा चौथा अन्तर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें समता, विकास और शांति के संदर्भ में महिलाओं की भूमिका की चर्चा के साथ-साथ सन् 1996 से 2001 तक के लिए पंचवर्षीय कार्य योजना तैयार की गई।

इसी साल नवम्बर महीने अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा अपने संस्थापक की जन्मस्थली आँवलखेड़ा में आयोजित किए गये प्रथम पूर्णाहुति महा समारोह का संचालन ब्रह्मवादिनी महिलाओं

द्वारा किया गया। इस कार्य से प्रतिगामी तत्वों का भले ही निराशा हुई हो, पर यह सत्य गजागर हो गया कि नारी समाज में अपनी समान भागीदारी की ही हकदार नहीं, बल्कि उसके संचालक होने का दायित्व भी निभा सकती है। विराट अश्वमेध महायज्ञ के ब्रह्मवादिनी नारियों द्वारा किए गए सफल संचालन ने यह भी सिद्ध कर दिया कि भारत में अभी भी गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, विश्ववारा की वह पीढ़ी मौजूद है, जो मानव समाज को आर्थिक राजनैतिक ही नहीं वैचारिक एवं आध्यात्मिक नेतृत्व भी प्रदान कर सकती है।

हो भी क्यों न ? इक्कीसवीं सदी को नारी सदी का रूप देने का संकल्प स्वयं महाकाल का है। उसने हम सबसे इसके लिए साहस भरा कदम उठाने का आवाहन किया है। परवाह नहीं यदि हम शक्ति से पूरित होते हैं। यह वही सामर्थ्य है जो धरती से लाखों गुना भारी भरकम नक्षत्रों को उनकी कक्षाओं में ऐसी आसानी से घुमाती है, जैसे कोई बालक छोटी सी गेंद घुमाता है। उसके लिए असम्भव क्या ? वह असम्भव को सम्भव बनाने में सिद्ध हस्त है। हम क्या हैं ? कैसे हैं ? भूलकर जैसे भी हैं, संकल्प पूर्ति के इस महत्वपूर्ण चरण में अपनी भूमिका निभाने के लिए तत्पर हों। आने वाली सदी में आज की यह हलचलें नारी शक्ति को युग शक्ति बनाए बिना न रहेंगी। नारी शक्ति के इस विस्फोट से उपजे संवेदना प्रवाह से अपना वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन गौरवान्वित हुए बिना न रहेगा।


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