ऋषि श्रेष्ठ काकभुसुण्डि की जीवनगाथा

March 1996

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‘मनुष्य तो मनुष्य ही है। उसमें कोई गलती न हो, प्रमाद न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। ‘, उस ब्राह्मण कुमार ने कहा।

‘ मनुष्य-मनुष्य अवश्य है, किन्तु मनुष्य के लिए। शिष्य के लिए वह मनुष्य नहीं और देवता भी नहीं । उसके लिए वह नित्य निरन्तर जागरुक ज्ञान है। ‘ ऋषि ने समझाया।

हाथ में बिल्व पत्र एवं अर्क पुष्पों का दोनों तथा जल से भरा कमण्डलु लिए वह भगवान शंकर की आराधना के लिए जा रहा था। रास्ते में उसे ये एक ऋषि मिल गए थे। वे भी मन्दिर ही जा रहे थे, अतः दोनों साथ हो लिए

‘मैंने कोई भी अपराध किया नहीं था। मेरे प्रमादवश ग्रन्थ नष्ट भी नहीं हुआ। वह तो गुरु पत्नी के हाथों से दीपक गिर जाने के कारण तेल से भीग गया था। फिर भी गुरुदेव मुझ पर अकारण ही कुपित हो उठे।’ ब्राह्मण कुमार ने कहा।

मैं कह चुका कि तुम्हें गुरु की आलोचना का पाप नहीं करना चाहिए। ‘ ऋषि ने समझाया- ‘ शिष्य को केवल इतना ही देखना चाहिए कि गुरु उसे किसी पाप कर्म में प्रेरित तो नहीं करते। यदि ऐसा हो तो वह कोई दम्भी होगा। उसका त्याग कर दें। ऐसा नहीं है तो वह सचमुच गुरु है-शिष्य के लिए नित्य जागरुक ज्ञान। उनमें दोष न देखें।

‘क्रोध तो अज्ञान से होता है। ब्राह्मण कुमार ने शंका की-’ अकारण क्रोध जागरुक ज्ञान में कैसे सम्भव है।?

‘ माता का रोष पुत्र के लिए अज्ञान जन्य नहीं होता।’ ऋषि ने कहा-’ आश्रम की वस्तुओं, विशेषतः ग्रन्थों की रक्षा का भार छात्रों पर ही रहता है। तुम्हारा ही प्रमाद था कि ग्रन्थ ऐसे स्थान पर पड़ा रहा, जहाँ तेल गिरने की आशंका थी।

‘यह तो मैंने स्वीकार किया। ‘ विप्र कुमार ने कहा- किन्तु गुरु मानव नहीं है, उनमें साधारण मानवोचित दुर्बलताएँ नहीं हो सकतीं- यह बात हृदय में नहीं बैठती।’

‘ठीक ही है स्वानुभव के बिना ऐसी बात हृदयंगम हो नहीं सकती।’ ऋषि ने गम्भीरता से कहा जड़-पाषाण प्रतीक में तो हम चिद्धन देवता की भावना कर सकते हैं, किन्तु चेतन प्रत्यक्ष ज्ञान देने वाले प्रतीक में वही भाव स्थिर नहीं होता।

विप्रकुमार को यह युक्ति कुछ ठीक अवश्य प्रतीत हुई, पर वह उसे आत्मसात् नहीं कर सका। मन्दिर आ गया था। ऋषि मूर्ति को मस्तक झुका कर एक कोने में बगल से मृगचर्म निकालकर पद्मासन में बैठकर ध्यान करने लगे और विप्रकुमार ने मूर्ति का अर्चन किया।

जल, विल्व पत्र, अ-पुष्पादि चढ़ाकर स्तुति के पश्चात! अर्ध परिक्रमा करके उसने साष्टाँग दण्डवत् किया और वह भी एक ओर जब मालिका लेकर गोमुखी में हाथ डालकर बैठ गया। धीरे-धीरे मन अस्तित्व की गहराइयों में डूबने लगा।

“ कल्याण हो।” एक अन्तर्ध्वनि की गूँज के कारण उसने चौंक कर नेत्र खोल दिए वह ध्यानस्थ हो गया था और उसे भगवान शंकर के हृदय देश में दर्शन हुए थे। उन्हीं को प्रमाण करने के लिए उसने मस्तक झुकाया था। शब्द ने उसे चौंका दिया।

सामने चौड़ी किनारे की रेशमी धोती पहने सुन्दर उत्तरी धारण किए , ऊर्ध्वपुण्ड लगाए गुरुदेव को देखकर वह उठ खड़ा हुआ। गुरु के अपमान का कुफल वह पा चुका था उसे अपने पूर्व जन्म का स्मरण था और उस घटना की स्मृति उसे रोमांचित कर देती थी। उठकर उसने पुनः अभिवादन किया।

सम्भवतः गुरुदेव पूजन कर चुके थे। उनके हाथ के पात्र में एकाध छिन्न बिल्वपत्र तथा दो-तीन फूलों की पंखुड़ियाँ चिपकी रह गयी थी। उन्होंने शिष्य को बैठकर जप करने का आदेश दिया और स्वयं भी एक ओर आसन पर जा विराजे।

‘मैंने भगवान शंकर के लिए किया था।’ ब्राह्मण कुमार सोच रहा था, पता नहीं, कब गुरुदेव सम्मुख उपस्थित हो गए। भगवान के निमित्त किया हुआ नमस्कार उन्होंने अपने लिए स्वीकार कर लिया। यह देवापराध हुआ। मुझे क्या करना चाहिए? चिन्तामग्न हो रहा था वह।

ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च। ॐ नमः शिवाय च श्वितराय च ॥

गम्भीर ध्वनि ने विप्रकुमार की चिन्तन शृंखला को भंग कर दिया। वह इधर-उधर उस ध्वनि का उद्गम ढूँढ़ने लगा। उसने दो कि महर्षि एकत का मुखमण्डल ज्योतिपूर्ण हो गया है और अवरुद्ध ध्वनि उनके समीप जाने पर बड़े प्रखर वेग से मस्तिष्क में गूँजने लगती हैं सम्भवतः महर्षि अपने प्राणों से परावाणी में इन मन्त्रों का उच्चारण कर रहे है।

तेज का आकर्षण अद्भुत था। वहाँ से लौट जाना उसके लिए सम्भव नहीं रह गया। वहीं घुटनों के बल बैठकर उसने उन मन्त्रों की सस्वर आवृत्ति प्रारम्भ की, क्योंकि वह ध्वनि ऐसा करने के लिए उसे विवश कर श्क में जो गुँजार वह अनुभव कर रहा था उसे मुख से प्रकट किए बिना सह लेना सम्भव नहीं था।

‘ब्रह्मचारी उठो! क्रमशः तेज कम हुआ और ध्वनि शान्त पड़ी। सम्भवतः ब्राह्मण बालक की वाह्य ध्वनि इस उफान में कारण हुई। धीरे-धीरे नेत्रों को खोलते हुए ऋषि ने कहा’ आओ नित्य ज्ञान धन के दर्शन करो।’

‘नित्य बोध स्वरूप तो भगवान शिव हैं।’ विप्रकुमार गदगद हो उठा। जीवन में ऐसा सौभाग्य प्राप्त होगा, इसकी उसे कभी आशा नहीं थी। ऋषि की कृपा से असम्भव क्या रहता है। वह उठकर खड़ा हो गया।

‘ गर्भगृह के भीतर ऋषि एक ओर खड़े हो गए। एक प्रकार की अद्भुत शांति तो वहाँ थी। किन्तु और कुछ भी विशेषता नहीं थी। मध्य में पुष्पदल पूजित भगवान शंकर की मूर्ति और एक ओर आसन लगाए ध्यानस्थ गुरुदेव। ब्राह्मण कुमार ने ऋषि के मुख की ओर देखा।

‘अभी भी तुम्हारी प्रकृति पूर्णतः परिवर्तित नहीं हुई है।’ ऋषि ने कहा-’अपने पूर्वकृत गुरु के अनादर का फल तुम भोग चुके हो। भगवान शंकर ने तुम्हें श्री राम भक्ति प्राप्त करने का वरदान दिया है और वे स्वयं ही तुम्हारे अन्तः कालुष्य को मिटाकर अधिकारी बनाने का अनुग्रह भी कर रहे हैं।’

‘तब क्या मेरे इस गुरु रूप में स्वयं......।’ वह अपनी कल्पना से स्वयं चौंक उठा।

‘ चौंकने का कोई कारण नहीं। ‘ ऋषि ने कहा-’शिष्य के लिए गुरु नित्य बोध स्वरूप भगवान शंकर का स्वरूप, उनसे भिन्न चल प्रतीक होता है।’

डसने देखा-गुरुदेव के मुख पर स्निग्ध मुस्कराहट झलक रही है। उनका उत्तरीय गज चर्म का है कमर में व्याघ्राम्बर है। गले का यज्ञोपवीत काले सर्प में बदल गया है और भाल पर ऊर्ध्वपुण्ड नहीं, वह तो तृतीय नेत्र है।

वह दौड़ा और उसने चाहा कि उनके उन ज्योतिर्मय चरणों पर मस्तक रख दें, पर उसे निराशा ने आकुल कर दिया। उसका मस्तक मन्दिर की उज्ज्वल पाषाण भूमि पर पड़ा। उसके गुरुदेव वहाँ नहीं थे।

‘दुःखी मत हो वत्स।’ पीछे से ऋषि ने कहा-’ अब तुम्हारा आश्रम लौटना भी कोई अर्थ नहीं रखता। समय आ गया है, जब तुम श्री रामचंद्र के पावन चरणों की भक्ति प्राप्त करो। अतः तुमको महर्षि लोमश के आश्रम को प्रस्थान करना चाहिए।

ऋषि मुड़े और चले गए। उसने भी लोमश ऋषि के आश्रम की ओर प्रस्थान किया। महर्षि से उसे शाप और अनुग्रह दोनों प्राप्त हुए। कभी की गई गुरु अवज्ञा के दण्ड में उसे कौए का शरीर मिला और लगातार की गयी साधना का पुरस्कार उसे तत्वज्ञान और प्री भक्ति के रूप में प्राप्त हुआ।

‘अब अपनी निर्मल मति में गुरु का शिव स्वरूप उसे स्पष्ट हो चुका। पक्षियों में काकभुशुंडि के रूप में जाने-जाने वाले उन पक्षी श्रेष्ठ के पास धीरे-धीरे सभी पक्षी आने लगे। एक दिन जब पक्षियों के अग्रणी राजहंस ने उन सभी को काकभुशुंडि को प्रणाम करने का आदेश दिया तो जैसे सभी चौंक पड़े।

‘उस म्लेच्छ जातीय कौए में आपने ऐसी क्या विशेषता देखी जो हम सबको उसे प्रणाम करना चाहिए।’ एक तरुण हंस ने रोषपूर्ण स्वर में कहा।

‘आप लोग एक ब्राह्मण कुमार का अपमान कर रहे हैं।’ राजहंस ने चेतावनी दी। ‘ महर्षि लोमश के शाप से उनका शरीर परिवर्तन हो गया हैं वैसे उन्हें स्वेच्छया शरीर धारण करने की शक्ति भी महर्षि ने दे दी है। किन्तु पक्षी जाति पर उनका यह अनुग्रह है कि उन्होंने हमारे सबसे तुच्छ शरीर को स्वीकार करके हमें गौरवान्वित किया है।’

काकभुशुंडि को प्रणाम करने के कारण पक्षियों में जो रोष जाग्रत हो गया था, वह शांत हो गया। अपने नायक की दूरदर्शिता के सम्मुख उन्होंने मस्तक झुकाया।

वट वृक्ष के नीचे एक विस्तृत वेदिका पर बीच में काकभुशुंडि बैठे थे। मानसरोवर से वृद्ध हंसों का समुदाय पहले ही आ गया था। कुछ और पक्षी भी

आ विराजे थे। इस नव जात समुदाय के लिए पर्याप्त स्थान था। ये सभी पीछे की ओर बैठ गए। वृक्ष पर किसी का भी बैठना अनुचित था, क्योंकि स्वयं वक्ता वेदिका पर नीचे बैठे थे।

सहसा पक्षियों में खलबली मच गयी। भुशुंडी जी भी उठ खड़े हुए। सबने देखा कि पक्षिराज गरुड़ पधार रहे हैं। आते ही उन्होंने भुशुंडी जी के चरणों में अभिवादन किया। यद्यपि इससे उनको बड़ा संकोच हुआ। वे पक्षिराज का सत्कार करने लगे।

‘श्री हरि के साक्षात् वाहन श्री गरुड़ जी भी इन्हें अभिवादन करते हैं? अवसर देखकर एक हंस ने कहा।

यों तो श्री राम भक्त सभी के पूजनीय हैं। फिर श्रद्धा भक्तिपूर्वक जो भी गुरु को नित्य ज्ञान स्वरूप तथा साक्षात् शिव समझकर उनकी शरण लेता है, वह भी जगत्पूज्य हो जाता है ये तो साक्षात् भगवान शंकर के शिष्य हैं, जिनके ललाट पर पहुँचने के कारण टेड़ चन्द्रमा भी विश्ववंद्य को गया हैं इनकी जाति की ओर ध्यान देने का अब किसी में न तो साहस है और न किसी को अधिकार ही है।’ वृद्ध राजहंस ने सबको धीरे-धीरे समझाया। उन हंसों को क्या पता था कि प्रश्नकर्ता बने हंस के वेष में स्वयं भगवान शिव रामकथा सुनने पधारे हैं और गुरु महिमा की चर्चा चला रहे हैं।


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