रंग-बिरंगे रंगों का ज्ञान और विज्ञान

March 1996

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रंगों की दुनिया बड़ी ही निराली हैं कभी इसकी रंग-बिरंगी छटा मन को ऐसा विमोहित कर लेती है कि व्यक्ति सुध-बुध ही खो बैठता है और कभी इतनी वितृष्णा और विषाद का कारण बन जाती है कि जीवन के अन्त का अंदेशा होने लगता है यह जीवनदायी भी है ओर क्लेशदायी भी।

निरभ्र गगन की नीलिमा को जब हम निहारते हैं, तो आँखें उसे देखते थकती नहीं, मन उसे देख कर अघाता नहीं, पर वही आकाश जब मेघ मालाओं से परिव्याप्त हो जाता है तो उस श्वेत’- श्यामक बदरंग मिलन से चित्त अनायास विकर्षित होने लगता है कदाचित् मोर और चकोर को ही यह विचित्र वर्ण आकर्षित करने में सफल हो पाता हो, अन्यथा मानवी हृदय में तो एक प्रकार का जुगुप्सा ही पैदा करता है

शुक्ल पक्ष की शुभ्र ज्योत्स्ना अन्तःकरण को कितना विभोर कर देती है, उसे तमसाच्छन्न ग्राम्य अंचलों में जाकर ही भलीभाँति अनुभव किया जा सकता है पर अमानिषा की कालिमा कैसी भयकारक होती है, इसकी प्रतीति सुनसान-वीरान स्थान में सहज ही होने लगती है।

बत सागर के नीलाभ जली की करें या सावन की रंगहीन रिमझिम फुहार की, दोनों मन को समान रूप से तरंगित करते हैं वनों की हरीतिमा हो अथवा उद्यानों का लुभावनापन, बर्फीले प्रदेश की सफेदी हो या शैलश्रृंगों का चित्ताकर्षण सभी न्यूनाधिक हृदय को गुदगुदाते हैं, पर बसंत के बाद जब पतझड़ का आगमन होता है, तो सूखे पीले ठूँठों पर दृष्टि जाते ही अन्तराल निरानन्द बनने लगता है किन्तु कुछ ही समयान्तराल के पश्चात् नये किसलय और कोंपल फूटते हैं, तो हरियाली का सुहावनापन एक बार पुनः मानस को उत्फुल्ल कर देता है।

यह प्रकारान्तर से वर्णों का ही प्रभाव है।, जो कभी अन्तः प्रदेश को उदासी, तो कभी प्रफुल्लता से ओत-प्रोत करता रहता है। इसे रंगों की विशिष्टता ही कहनी चाहिए जो अपने- अपने ढंग से वातावरण और अंतःकरण को उद्दीप्त करती हैं जिस तरह के रंग जैसे प्रभाव छोड़ते हैं, उसी के अनुरूप उनके गुणों का निर्धारण हमारे प्राचीन आचार्यों ने किया है उदाहरण के लिए श्वेत रंग को ज्ञान, वैराग्य, एकता, समता का प्रतीक माना गया हैं इसका अर्थ यह नहीं कि चाहे जिस वर्ण का चाहे जिस गुण से संगति बिठा दरी गई हो। वास्तव में यह एक पूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया है और रंग के साथ-साथ तद्नुरूप प्रतीक (गुण) के संगतिकरण में उसके सान्निध्य में उठने वाले भाव का पूरा- पूरा ध्यान रखा गया है। इसीलिए ज्ञान की देवी भगवती सरस्वती का परिधान श्वेत है। इतना ही नहीं, उनका वाहन भी धवल हंस है, जो नीर-क्षीर-विवेक में पूर्णतः निपुण माना गया है यही कारण है कि इस वर्ण को ज्ञान-वैराग्य का चिन्ह घोषित किया गया है इसी निमित्त इस मार्ग के पथिक सफेद वस्त्र धारण करते हैं। ईसाई गिरिजा घरों के पादरियों को देखें या वहाँ की ननो को अथवा मध्यपूर्व के सूफी सन्तों को, सभी की पोशाकें श्वेत ही होती हैं ‘ सूफी परम्परा तो उनके ‘ सूफ ‘ या श्वेत वस्त्र धारण करने के कारण ही चल पड़ी है।

इसके विपरीत श्याम रंग से मन में एक अजीब वितृष्णा-सी पैदा होती है और उसके संपर्क में वह विषण्ण बनने लगता है इसी कारण से मूर्धन्य आचार्यों ने इसे शोक विषाद, मृत्यु का सूचक बताया हैं सरकारी कर्मचारियों अथवा मजदूरों को जब किसी बात का विरोध करना होता है, तो प्रबन्ध समिति अथवा संगठन प्रमुख को वे काले झण्डे दिखाते या काले बिल्ले लगाकर इस बात का प्रदर्शन करते हैं कि वे उनकी वर्तमान रीति-नीति से प्रसन्न नहीं हैं जापानी कर्मचारियों को जब हड़ताल करनी होती है, तो वे भारतीयों की तरह काम करना बन्द नहीं कर देते वरन् काले बिल्ले लगाकर काम के घण्टे को बढ़ा देते और उत्पादन की गति को अचानक तीव्र कर देते हैं इससे खपत कम और उत्पादन अधिक बढ़ जाने से मालिक दिवालियापन के समीप पहुँच जाता है। इसलिए वह ऐसे अवसरों से सदा सावधान रहते हैं।

मुस्लिम देशों की महिलाएँ प्रायः काले बुर्के ही पहनती हैं यह इस बात का द्योतक है कि उन पर बुरी नजर डालना हदीस के नियमों के विरुद्ध है और पाप है। पाप सदा दुःखदायी होता है इसलिए इस विशेष रंग द्वारा मनचलों को एक प्रकार से चेतावनी दी जाती है कि दुराचरण अथवा छेड़खानी उनके लिए मृत्यु तुल्य साबित हो सकते हैं।

महाकाल और महाकाली की प्रतिमाएँ सदैव काले रंगों में रंगी होती है। काल शब्द मृत्यु का संदेशवाहक है। अतः उन्हें देख कर सदा यह स्मरण बना रहता है कि ईश्वरीय नियमों में किसी प्रकार का उल्लंघन खतरे से खाली नहीं है।

काले रंग की यह विशेषता है कि वह अन्य वर्णों की उदात्तता को ग्रहण नहीं करता, अपितु उसका यही प्रयास रहता कि वह दूसरे वर्णों को भी स्वयं में मिला ले और उन्हें भी अपने रूप गुण के अनुरूप बना लें। कलियुग का स्वरूप इसीलिए काला बताया गया है, कारण कि इस युग में काले कारनामे वाले लोगों की ही अधिकता और प्रमुखता है। श्वेत-सात्विक बुद्धि वालों को तो इनके कारण सर्वत्र प्रताड़ित और लाँछित ही होना पड़ता है। इसे काले स्वभाव वाले ‘कलि’ की प्रबलता ही कहनी पड़ेगी।

मूर्धन्य मनोविज्ञानी फ्रैंज हरमन ने एक पुस्तक लिखी है, नाम है-’कलर साइकोलॉजी’। अपने उक्त ग्रन्थ में विद्वान लेखक ने इस बात का जोरदार शब्दों में समर्थन किया है कि रंगों के प्रति भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न रुचियाँ भी प्रकारान्तर से उनके व्यक्तित्व को प्रकट करती है। उदाहरण के लिए वे लिखते हैं कि यदि किसी श्याम वर्ण प्रिय हैं, तो इससे काफी हद तक यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति कपटपूर्ण, झूठा और धोखेबाज है। हलका नील वर्ण अथवा आसमानी से शांतिप्रियता प्रकट होती है। सफेद रंग से जिनका ज्यादा लगाव है, वे प्रायः सादगी पसन्द होते हैं। वासंती वर्ण को चाहने वाले सात्विक प्रकृति के होते देखे गये हैं। हरे के प्रति रुझान प्रसन्नचित्तता प्रकट करता है। पीला वीरता की निशानी है, जबकि लाल रंग प्रिय लगने वालों के बारे में यह अन्दाज लगाना कठिन नहीं कि वे स्वभाव से रूखे, क्रोधी, उद्दंड और दुस्साहसी हैं।

ज्योतिर्विज्ञान ने भी रंगों के शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभावों को स्वीकारा है और इस बात पर जोर दिया है कि यदि सप्ताह के हर एक दिन, उस दिन के अधिष्ठाता देव तथा ग्रह विशेष से संगति बिठाते हुए रंग का चयन और तद्नुरूप वस्त्र का धारण किया जाय, तो व्यक्ति को उस देवता का स्वतः संरक्षण प्राप्त हो जाता है, किन्तु यह निर्धारण सामान्य बुद्धि वाले साधारण जन नहीं कर सकते । इसे तो कोई प्रज्ञावान पुरुष ही करने सक्षम है। किसे, किस दिन, किस वर्ण का वस्त्र और कैसा आहार (जिसमें आहार का रंग भी सम्मिलित है) ग्रहण करना है, यह राज योगियों के लिए विशेष ज्ञातव्य है। इससे साधना मार्ग में आने वाले विघ्न-बाधाओं से उनकी रक्षा हो जाती है। इसमें दिवस विशेष के अधिपति देव उनकी सहायता करते हैं। उदाहरण के लिए सोमवार के स्वामी शंकर बताये गये हैं। परिधान का रंग इसमें मटमैला होना चाहिए। मंगलवार के दिन लाल? बुध, हरा, गुरुवार पीला, शुक्रवार श्वेत, शनिवार काला, रविवार सफेद वसन अभीष्ट है।

योग विज्ञान में भी चक्रों के पृथक-पृथक रंग अकारण नहीं है। उन-उन चक्रों और रंगों की अपनी विशिष्टताएं हैं। विशिष्ट रंग वाले किसी विशेष चक्र के जागरण व्यक्ति में उस चक्र और वर्ण की विशेषता वाली विभूतियाँ स्वयमेव पैदा हो जाती है, ऐसा योगविज्ञानियों का मतभेद है। उदाहरण के लिए मूलाधार चक्र का वर्ण लाल है। इसके जागरण से पराक्रम पैदा होता है। इसी प्रकार सिंदूरी रंग के स्वाधिष्ठान चक्र के उद्बुद्ध होने पर प्रतिभा उत्पन्न होती है। नील वर्ण युक्त मणि पूरित चक्र परकाया प्रवेश, धूम्र वर्णी विशुद्धाख्य चक्र त्रिकालदर्शित्व, श्वेत वर्ण आज्ञा चक्र विवक एवं बहुरंगी सहस्रार या शून्य चक्र के उन्मेष से उपरोक्त समस्त विभूतियाँ साधक का करतलगत हो जाती है।

ऐसे ही किसी विशेष कामना सिद्धि हेतु विशेष रंग के वस्त्राभूषण से सुसज्जित देवी-देवताओं का जप, ध्यान और पूजन का तंत्र शास्त्रों में विधान है। रंगों के चयन में तंत्र शास्त्रों में विधान है। रंगों के चयन में तंत्रविद्या विशारदों ने इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा है कि साधक किस मनोरथ के निमित्त तंत्र कृत्य करना चाहता है। उदाहरण के लिए यदि दरिद्रता निवारण उसका प्रयोजन है, तो पीताम्बरधारी भगवती के पूजन और ध्यान का विधान है। उल्लेखनीय है कि पीतवर्ण का सम्बन्ध ‘लक्ष्मी’ तत्व से है। लक्ष्मी वैभव की अधिष्ठात्री है। इसीलिए पीतवर्णा भगवती का ध्यान और वैसे ही रंग के आहार का निर्देश उस तत्व को आकर्षित करने के लिए तंत्रविदों ने दिया है। ऐसे ही दूसरे काम्य प्रयोजनों के लिए तद्नुरूप रंगों का निर्धारण है।

इसी प्रकार ऋतुओं के परिवर्तन के साथ-साथ पहनावे के रंग में बदलाव को आवश्यक बतलाते हुए आयुर्वेद में इस बात पर बल दिया गया है कि मौसम के साथ-साथ पोशाक के रंग-परिवर्तन से शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य उत्तम बना रहता है। खाद्यों का भी उसी के अनुरूप निर्धारण है। आश्विन और चैत्र मास-यह दोनों ऋतु की दृष्टि से संक्रमण काल हैं। इनमें पाचक रस न्यून पड़ जाते हैं और प्राण का अवस्थान सुषुम्ना में हो जाता है। संवत्सर के महीनों में आरोग्य संवर्धन और आत्मकल्याण के लिए जप, तप, व्रत-उपवास की व्यवस्था आवश्यक बतायी गई है। इन निर्धारणों के समय संवत्सर के ‘करण’ ‘जाति’ ‘बालव’ आदि तत्वों पर भी समान रूप से विचार किया जाता है, यथा-’बालव’ संवत्सर के लिए निष्णातों ने मुख्य वस्त्र पीला, उवपसत्र गहरा लाला, भक्ष्य पायस, तिलक कुमकुम निर्धारित किये हैं। फाल्गुन माह में ‘फाग’ के अवसर पर टेसू के फूलों से निर्मित वासंती रंग, वसन्त पंचमी के दिन पीत वसन एवं अमृताषन-यह सब कुछ सप्रयोजन थे, पर समय के साथ-साथ बुद्धिवाद जैसे-जैसे बढ़ा, हम इन निर्धारणों को रूढ़िवाद की उपज मान कर त्यागते चले गये, फलतः हमारा शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य भी तद्नुरूप दिन-दिन लड़खड़ाता गया। इसे समय की विडम्बना और सभ्यता का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जब हमें स्वस्थता और आरोग्यता की अधिक उम्मीद और आवश्यकता थी, तब हम शनैः-शनैः और दुर्बल बनते गये।

विज्ञान की इस संदर्भ में सराहना ही करनी पड़ेगी कि उसने हमारी भूलों को उजागर कर यह सोचने पर विवश किया कि जिन तथ्यों को अब तक अवैज्ञानिक और आधारहीन कह कर तिरस्कृत और उपेक्षित किया जाता रहा है, वह कितने वैज्ञानिक और कितने प्रमाणिक हैं। उसके प्रयोगों से अब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है कि रंग मानवी मनोभावों के अतिरिक्त पौधों को भी समान रूप से प्रभावित करते हैं। रंग के प्रभावों का अध्ययन करते हैं। रंग के प्रभावों का अध्ययन करने वाले वनस्पति शास्त्रियों में ‘यू. एस. डिपार्टमेन्ट ऑफ एग्रीकल्चर’ के एच. के. बोर्थविक, न्यू हेम्पषायर यूनिवर्सिटी के स्टुअर्ट डन, एवं फिलिप्स रिसर्च लेबोरेटरिज के आर. वान डरविन तथा जी. मिजर प्रमुख हैं। बोर्थविक ने अपने प्रयोगों के दौरान देखा कि लाल रंग का दृश्य प्रकाश और अदृश्य अवरक्त किरणों परस्पर विरोधी आचरण प्रदर्शित करते हैं। लाल रंग के प्रकाश में लेटुस के बीज तेजी से अंकुरित होते दिखाई पड़े, किन्तु जब उन्हें अवरक्त किरणों के मध्य रखा गया, तो अंकुरण अवरुद्ध हो गया। इसी प्रकार लाल रंग की लाल रंग की किरणें अल्पजीवी पौधों के विकास को रोकती पायी गयीं, किन्तु दीर्घजीवी पौधों का विकास इसके संपर्क में आकर तीव्र हो गया। प्रयोग के दौरान नीले रंग के प्रकाश का भी वाँछित असर देखा गया, किन्तु हरी और पीली प्रकाश-किरणों किसी प्रकार की क्रिया करने में अक्षम पायी गईं, जबकि पराबैगनी प्रकाश का अवांछनीय प्रभाव तत्काल दृष्टिगोचर होने लगा। बान डरविन और मिजर ने अपने प्रयोगों में जो महत्वपूर्ण बात देखी, वह थी लाल और नीली रोशनी के प्रति पौधों की अति सक्रियता, जबकि पीली और पीली-हरी किरणों के प्रति वे निष्क्रिय बने रहते हैं।

मूर्धन्य वनस्पति शास्त्री स्टुअर्ट डन ने अपने परीक्षण टमाटर के पौधों पर किये। उन्होंने देखा कि श्वेत लैम्प प्रकाश में टमाटर की उपज अपेक्षाकृत अन्य प्रकाश की तुलना में सर्वाधिक होती है। इसके उपरान्त नीले और गुलाबी प्रकाश लैम्पों का नम्बर आता है। हरे और लाल प्रकाश किरणों के संपर्क में उपज सबसे न्यून देखी गयी। लेकिन जब पौधों को तीक्ष्ण रक्त वर्ण प्रकाश के समक्ष रखा गया, तो उपज सबसे अधिक प्राप्त हुई।

इन परीक्षणों से जो महत्वपूर्ण जानकारी हस्तगत हुई है, वह है भिन्न-भिन्न प्रकाश-किरणों के प्रति पौधों के भिन्न-भिन्न अवयवों की सक्रियता और निष्क्रियता। उदाहरण के लिए यदि पीतवर्णी प्रकाश तने की तीव्र वृद्धि के लिए जिम्मेदार है, तो रक्त वर्ण वाली किरणें फल को अधिक रसदार और गूदेदार बनाती हैं, जबकि नीली रोशनी उनके रस और गुदे को घटाती है। इसी प्रकार कृत्रिम प्रकाश किरणों के अंतर्गत फूलों को उगाने से उनके स्वाभाविक रंगों में भी परिवर्तन आ जाता है। यदि नैसर्गिक नीले वर्ण वाले पुष्पों को किन्हीं अप्राकृतिक प्रकाश में रखा गया और उनका वर्ण

लालिमा लिए हुए नीला हो जाय, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इसी प्रकार पीले कुसुम यदि चित्तिदार हो जायं अथवा उनमें कई प्रकार की आभाओं का सम्मिश्रण हो जाय, तो इसे कृत्रिम प्रकाश का चमत्कार ही कहना चाहिए। आजकल अमेरिकियों में यह अभिरुचि बड़ी तेजी से पनपती और फैलती चली जा रही है। इसके माध्यम से वे प्राकृतिक वर्णों को बदल कर फूलों को रंग-बिरंगी छटा प्रदान कर सर्वसाधारण को चमत्कृत और चकित कर रहे हैं।

अभी हाल की शोधों से ज्ञात हुआ है कि यदि नवजात शिशु नीले रंग के प्रकाश के संपर्क में आ जाय, तो उसके पीलियाग्रस्त होने की शत-प्रतिशत सम्भावना रहती है। शोधकर्मी वैज्ञानिकों ल्यूक थोरिंगटन एवं एल. कनिंघम के अनुसार ऐसा इसलिए होता है कारण कि रक्त में बिलिरुबिन नामक रसायन की मात्रा अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाती है।

रंगों के इन्हीं प्रभावों को ध्यान में रखते हुए अब आस्ट्रेलिया और अरब देशों में भेड़ों को गहरे रंगों में रंगने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है, क्योंकि सामान्य तौर पर देखने में आता है कि इनके प्राकृतिक रंगों वाली भेड़ें प्रकाश के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, इसलिए उनमें अक्सर तरह−तरह की असमानताएं पैदा हो जाती हैं। जब उन्हें गहरे कृत्रिम रंगों में रंग दिया जाता है, तो इस तरह की असामान्यताओं से वे मुक्त हो जाती हैं।

इस प्रकार यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है कि रंगों की दुनिया यदि मनमोहक, मनभावन और लाभकारी है तो इसकी हानियों के प्रति भी हमें सचेत रहना चाहिए और बिना जाने समझे किसी ऐसे वर्ण के संपर्क में अधिक समय नहीं रहना चाहिए, जो अपने अवाँछनीय प्रभाव से बाद में हमें बीमार बना दे।


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