सप्ताह में आप भी करें एक बार उपवास

March 1996

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उपवास करने की परम्परा भारतीय संस्कृति में अति प्राचीन काल से ही चली आ रही है। विभिन्न मानसिकता वाले लोगों के लिए भिन्न-भिन्न दिनों किसी न किसी देवी-देवता के बहाने उपवास करने का विधान शास्त्रों में जोड़ा गया है। गुरुवार एवं रविवार के उपवास करना ही चाहिए। लगभग सभी भारतीय धर्मों में उपवास की महत्ता को स्वीकार किया गया है। मुसलमानों में रोजा इसी का परिचायक है। भारतीय साधना पद्धति में चान्द्रायण साधना को इसीलिए महत्व दिया गया है। शारीरिक-मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए, गन्दगी की सफाई के लिए उपवास का अपना अलग महत्व है।

अधिकांश लोगों का उपवास करने का कारण धार्मिक होता है। कुछ लोग चिकित्सकीय सलाह या अन्य कारणों से भी उपवास करते हैं। भोजन प्राणिमात्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक है इसलिये उपवास प्रकृति के विपरीत होते हैं, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हैं। मानव−शरीर पर उपवास का प्रभाव सकारात्मक होता है या नकारात्मक यह जानने का प्रयास वैज्ञानिक समय-समय पर करते रहते हैं।

उपवास का शाब्दिक अर्थ भोजन का पूर्ण या आंशिक रूप से त्याग है। समाज में उपवास का भिन्न-भिन्न अर्थ लगाया जाता है। कुछ लोग उपवास में जल भी ग्रहण नहीं करते (जैसे निर्जला एकादशी के दिन), तो कुछ लोग परम्परागत अनाज को छोड़कर फलादि खाते हैं। कुछ लोग एक समय भोजन करने को ही उपवास मानते हैं। किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से जल के अतिरिक्त कुछ भी ग्रहण नहीं करना उपवास की श्रेणी में आता है। पातंजलि के योग सिद्धान्तों में भी उपवास की महत्ता को स्वीकारा गया है। बापू जी का लम्बा व्रत सुप्रसिद्ध है। विनोबा भावे भी उपवास किया करते थे। नव-रात्रि के दिनों में ऋतु परिवर्तन के कारण उपवास एवं अनुष्ठान को हर मनुष्य के लिए अनिवार्य बताया गया है।

जो भोजन मुँह द्वारा अन्दर लेते हैं वह सीधे हमारे शरीर का भाग नहीं बन जाता। शरीर में मुँह से लेकर मलद्वार तक एक लम्बी नली पाई जाती है। मुँह से भोजन इस नली में जाता है।जब भोजन आहार नाल में धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, तो इसमें पाचक दस ऐंजाइम मिलते हैं। पाचक रसों के प्रभाव से भोजन के प्रमुख अंश विलय अवस्था में आ जाते हैं। जब भोजन आहार नाल के छोटी आँत वाले भाग में पहुँचता है तो भोजन के विलय अंश अवशोषित कर रक्त में मिला दिये जाते हैं। शेष भाग, मलाशय में मल के रूप में एकत्रित हो जाता है। रक्त में आए अंशों का शरीर के विभिन्न भागों में वितरण कर दिया जाता है।

छोटी आँत की भीतरी भित्ति पर पचे हुए भोजन को अवशोषित करने के लिए विशिष्ट प्रकार की रचनाएँ पाई जाती हैं जिन्हें सूक्ष्माँकुर कहते हैं। सूक्ष्माँकुर के कारण आँतों की भीतरी सतह का क्षेत्रफल बहुत बढ़ जाता है। भोजन के पचे हुए भाग को अवशोषित कर, उसे रुधिर में मिलाने की जिम्मेदारी मूलतः ये सूक्ष्माँकुर करते हैं, जब सूक्ष्माँकुर बनाने वाली कोशिकाएं वृद्ध हो जाती हैं, तो इनकी कार्य क्षमता भी क्षीण हो जाती हैं। अन्ततः ये कोशिकाएं मर जाती है तथा उनके स्थान पर नई कोशिकाएं बन जाती हैं। प्रतिस्थापन की इस प्रक्रिया में शरीर को बहुत अधिक ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। उपवास के समय पुरानी कोशिकाओं को ही पुनः प्रभावकारी बना दिया जाता है। तथा कम खर्च करने में ही आहार नाल की अवशोषण प्रक्रिया सही बनी रहती है।

उपवास हमारे शरीर की ऐंजाइम प्रणाली को सक्रिय बनाये रखने में सहायक होते हैं। पाचन क्रिया के फलस्वरूप भोजन की अतिरिक्त मात्रा को ग्लाइकोजीन व वसा में बदलकर शरीर में एकत्रित कर लिया जाता है। जब शरीर को भोजन नहीं मिलता तब जिगर में संग्रहित ग्लाइकोजीन व वसा को ग्लूकोज में बदल शरीर की ऊर्जा आपूर्ति को बनाए रखा जाता है। ग्लाइकोजीन व वसा को ग्लूकोज में बदलने की क्रिया एक विशिष्ट है यह ऐंजाइम तंत्र भी तभी सक्रिय होता है, जब शरीर भूखा होगा। उपवास करते रहने से इस ऐंजाइम तंत्र को सक्रिय बने रहने में मदद मिलती है। इसके विपरीत उपवास न करने की स्थिति में इस ऐंजाइम तंत्र के धीरे-धीरे निष्क्रिय होते चले जाने का खतरा रहता है।

उपवास का लाभ कैंसर रोकने में भी होता है। अमेरिका के स्वास्थ्य विज्ञानी डा. ग्रासीकराउप ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला कि शरीर में भोजन रूपी कैलोरी आपूर्ति कम होने पर जन्तुओं और मानव में कैंसर होने की आशंका कम हो जाती है। उपवास के बाद प्रीनि ओप्लास्टक कोशिकाओं के ही कैंसर कोशिकाओं में बदलने की आशंका रहती है।

इन प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट कहा जा सकता है उपवास शरीर के लिए नितान्त उपयोगी ही नहीं परम आवश्यक भी है। उपवास (इम्यूनिटी) भी बढ़ जाती है। मन भी पवित्र होता चला जाता है। इसीलिए उपवास को अनिवार्य बताया जाता है।


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