वेदान्त संसार का सर्वश्रेष्ठ दर्शन

May 1973

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ईश्वर की स्तुति में उसे त्वमेव माता व पिता ‘त्वमेव’ कहा जाता है। उसे नर और नारी दोनों के रूप में नमन किया जाता है। अर्धनारीश्वर के रूप में भगवान शिव का आध अंग नारी और आधा नर है। इससे स्पष्ट है कि परब्रह्म में नर, और नारी जैसा कोई मौलिक भेद नहीं है। आवश्यकता एवं भावना के अनुरूप एक ही सत्ता अपने अस्तित्व का परिचय दोनों लिंगों में देती रहती है।

आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह परिस्थिति के अनुसार कभी नर बन जाता है कभी मादा। जो वस्त्र एक बार धारण कर लिया वह यदा ही उसी तरह बना रहेगा यह भी आवश्यक नहीं। साड़ी की काट छाँट कर कुर्ता बनाया जा सकता है। फटी हुई बनियान का कतर ब्योंढ़ करके रूमाल बनाया जा सकता है। आत्मा के सम्बन्ध में भी यही निर्यत है। स्वभाव एवं पसन्दगी के कारण कोई भी प्राणी नर या मादा बना रह सकता है। अभिरुचि एवं परिस्थिति बदल जाने पर यह लिंग भेद बदल भी सकता है। जो एक जन्य में नर था वह दूसरे जन्म में नारी बन गया है और नारी ने नर का चोला बदला। ऐसे उपाख्यानों की कथा, पुराणों में भरमार है।

एक ही शरीर में इस प्रकार के यौन परिवर्तन अनेकों होते रहते है। ऐसी घटनाओं की कमी नहीं जिनमें जन्म समय का लिंग बड़े होने पर पूर्णतया परिवर्तित हो गया। आरम्भ में चिन्ह बदले फिर परिवर्तन प्रबल हुआ और यौन परिवर्तन का आर्श्चयजनक दृश्य सामने आ खड़ा हुआ विदेशों में ऐसी घटनायें सरकारी अस्पतालों के रिकार्ड में हजारों की संख्या में दर्ज हो चुकी है। भारत में भी ऐसी घटनाओं की कमी नहीं। समाचार पत्रों में ऐसे समाचार छपते रहते है। जिनसे प्रतीत होता है कि लिंग परिवर्तन आश्चर्यजनक तो है पर असम्भव नहीं परिवर्तनों के अनेकानेक उपक्रमों में लिंग परिवर्तन भी एक मान्यता प्राप्त तथ्य बन गया है।

प्रकृति में इस प्रकार के अन्तरों के प्रमाण तो असंख्यों दृष्टिगोचर होते है जिनमें पुरुष के हाव-भाव स्वभाव, रुचि एवं गतिशीलता एवं सफलता नारी वाले क्षेत्र में ही दृष्टिगोचर होती रही। कितनी ही नारियाँ ऐसी होती है, जिनकी शरीर रचना भले ही प्रकृति प्रदत्त रही हो पर स्वभाव एवं पराक्रम की दृष्टि से उन्होंने पुरुषों जैसा जीवन यापन किया और उसी स्तर पर पराक्रम भी दिखाया।

हिजड़े वर्ग के लोग ऐसे ही होते है जिनकी आकृति और प्रकृति यौन प्रभाव की मर्यादा को तोड़कर सर्वथा विपरीत स्तर की होती है समलिंगी समागमों में दोनों की यौन संरचना एक जैसी रहते हुए भी प्रकृति में विपरीत स्तर भरा होता है।

कइयों में प्रत्यक्षतः तो ऐसे दृश्य दिखाई नहीं पड़ते पर भीतर ही भीतर चिन्तन एवं रुझान ऐसा चलता रहता है जिसे लिंग भेद की प्रतिक्रिया से विपरीत कहा जा सके। इस प्रकार के लक्षण यह बताते है कि आत्मा अपने कलेवर से असन्तुष्ट है और अगले दिनों अपना लिंग परिवर्तन करने के लिए भीतर ही भीतर बदलता और ढलता जा रहा है। संकल्प बल में परिस्थितियों के बदल डालने की परिपूर्ण क्षमता है उसके प्रमाणों में एक लिंग परिवर्तन को भी सम्मिलित किया जा सकता है।

नर नारी का भेद स्थूल कलेवर तक सीमित है। काया में विद्यमान आत्मा न नर है और न ही नारी। उपनिषद् में वर्णन है-

नैव स्त्री न पुमानेषु न चैवार्थ नपुंसक।

यद मच्छरी मादन्ते तेन-तेन स युज्येन॥

यह जीवात्मा न तो स्त्री है न पुरुष है और न नपुंसक ही है। वह जिस शरीर को ग्रहण करता है उसी के सम्बद्ध हो जाता है।

इस तथ्य का परिचय कभी-कभी अनोखी घटनाओं द्वारा भी मिलता है। यौन परिवर्तन की घटनायें इस सत्य की पुष्टि करती है कि नर-नारी के बीच अन्तर कायिक धरातल तक ही है। आत्मा में दोनों के गुण विद्यमान है।

‘सोलन’ निवासी स्वर्णकार जियालाल को इस बात का दुःख बना रहता था कि उसके कोई पुत्र नहीं है। तीन लड़कियों में एक लड़की का नाम सुनीता है। माता-पिता को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बच्ची में पुरुष के चिन्ह हैं। स्थानीय अस्पताल में दिखाये जाने पर डाक्टरों ने सुझाव दिया कि सुनीता के सेक्स अंग पुरुष की भाँति है। आपरेशन द्वारा पुरुषत्व के चिन्हों को उभारा जा सकता है। स्वर्णकार जियालाल ने तत्काल निर्णय लिया तथा अपनी चार वर्षीय बच्ची को अस्पताल में भर्ती कर दिया। छः डाॅक्टरों के प्रयत्न से आपरेशन सफल रहा। सुनीता अब माता-पिता के लिए एक पुत्र की भूमिका सम्पन्न कर रही है।

इसी प्रकार की घटना अप्रैल 79 में कोल्हापुर के सिविल अस्पताल में घटी। सत्रह वर्षीय कुमारी रंजना कोल्हापुर से अठारह किमी दूर हतकना नगले के निकट स्थित ग्राम ‘हुपारी’ के रहने वाली है। उसे मासिक धर्म न होने के कारण माता-पिता सरकारी अस्पताल में लाये। परीक्षा करने पर डाक्टरों ने पाया कि रंजना में पुरुष के चिन्ह विद्यमान है। आपरेशन द्वारा उसका यौन परिवर्तन किया जा सकता हैं उनके परामर्श से रंजना के माता-पिता ने अनुमति दे दी। रंजना अब रणजीत के नाम से जानी जाती है। उसका स्वभाव पूर्णतया पुरुषों जैसा ही है।

इन घटनाओं द्वारा आत्मा अपनी भक्ति को बोध कराती तथा यह बताती है कि वह प्रकृति के नियमों से परे है। बन्धनों से जकड़ी काया में भी वह परिवर्तन कर सकने में समर्थ है जिसे सामान्यतया असम्भव और आश्चर्यजनक समझा जाता है। जीव-विज्ञान के नियम एवं मान्यताओं को भी यह घटनायें चुनौती देती तथा अन्त में विद्यमान सर्व समर्थ सत्ता आत्मा को बोध कराती है।

इन्दौर से प्रकाशित दैनिक पत्र नई दुनिया के अनुसार मार्च के अंक के अनुसार 12 मार्च 1979 के अंक के अनुसार ‘शहडोल’ के अस्पताल में एक चालीस वर्षीय व्यक्ति रामदीन हर्निया का आपरेशन कराने आया। डाक्टरों को यह देखकर आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि रामदीन के पेट में एक पूर्ण विकसित गर्भाशय मौजूद है। इसे निकाल कर रीवाँ मेडिकल काॅलेज के संग्रहालय में रखा गया है।

प्रकृति भी असामान्य घटनाओं द्वारा आत्म सत्ता की समर्थता का परिचय देती तथा यह बताती है कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।

इस प्रकार की घटनायें मनुष्यों में ही नहीं जीव जन्तुओं में भी देखी जाती है। अविकसित जीवों में तो इस सत्य का बोध और भी स्पष्ट रूप में मिलता है। उन्हें देखकर लगता है कि सृष्टा ने सृष्टि चक्र को सुचारु रूप में संचालन के लिए ही मात्र विकसित जीवों में नर-नारी का अन्तर पैदा कर दिया। अन्यथा कितने जीव तो एक ही शरीर में आरम्भ से ही नर नारी की विशेषताओं को धारण किए हुए है। केंचुआ इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। दोनों ही प्रकार के सेक्स अंग उसके अन्दर मौजूद होते हैं। कई जीव अपनी मर्जी के अनुसार लिंग धारण कर लेते है तथा अपने जीवन काल में अनेकों बार लिंग परिवर्तन करते देखे जाते है। ‘ओइस्टर’ नामक जन्तु नर के रूप में पैदा होता है। दो वर्षों के उपरान्त मादा बन जाता है। ‘ओरटन’ नामक जीव विज्ञानी ने अपने प्रयोग द्वारा पाया कि नर से मादा में परिवर्तित ‘ओइस्टर’ मादा की तरह ही अण्डे देने का कार्य करता हैं आश्चर्य यह है कि अण्डा देने के एक माह बाद वह पुनः नर में बदल जाता है।

मनुष्य ही नहीं अन्य जीव-जन्तुओं के उदाहरण इस बात के साक्षी है कि प्राणि मात्र में कार्य कर रही चेता नर-नारी कोई भी स्वरूप ग्रहण कर सकती है। अर्थात् वह इन विभेदों से रहित है।

नर और मादा में से किसी को भी न तो अपनी विशिष्टता पर अहंकार करना चाहिए और न हीनता अनुभव करने की आवश्यकता है। क्योंकि लिंग भेद शाश्वत नहीं परिवर्तनशील हैं जो आज एक कलेवर में है वह कल दूसरे में बदल सकता है। ऐसी दशा में दोनों के मध्य वरिष्ठ, कनिष्ठ की मान्यता बनाने अथवा सौभाग्य दुर्भाग्य जैसा अनुभव करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। दोनों के मध्य एकता ही नहीं समता भी वाँछनीय है।


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