मानसिक असंतुलन शारीरिक रुग्णता का प्रमुख कारण

May 1973

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व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि बहुत ही संकीर्ण हो, और दायरा गूलर के भुनगे जैसा क्षुद्र बना लिया गया हो तो इन्द्रिय लिप्सा और संचय तृष्णा ही जीवन सम्पदा को निगल जाने के लिए पर्याप्त है। कोल्हू के दो बेलन गन्ने को पेलते निचोड़ते रहते है। मनुष्य जीवन का अमूल्य अवसर भी गन्ने की तरह लोभ-मोह की चक्की में पिसता और चकनाचूर होता रहता है। क्षुद्रता की संकीर्ण दृष्टि इतने में भी स्वार्थ सिद्ध मान सकती है। स्वास्थ्य को चौपट करने वाला स्वाद ही जिन्हें भारी लाभ प्रतीत होता है और जो भोजन की होली जलाते हुए विषयानन्द लूटते है, उनसे कोई क्या करे ? पर जिनमें तनिक भी दूर दृष्टि है वे यह अन्तर किये बिना नहीं रह सकते कि काया की तनिक सी, क्षण भर की गुदगुदी से स्वार्थ सधता है अथवा सुव्यवस्था एवं सुसम्भावना की दिशा अपनाने मे।

यदि वस्तुतः स्वार्थ सिद्धि ही अभीष्ट हो तो उसके लिए बड़ी दूर दर्शिता अपनाने और भविष्य की बात सोचने का भी कष्ट उठाया जाना चाहिए। सम्पदा कितनी ही आकर्षक क्यों न हो उसका उपयोग बहुत ही सीमित है उपभोग की छोटी सी मर्यादा है न उसका असीम भार उपयुक्त है और न संचय। दोनों ही मार्ग आकर्षक और बहु प्रचलित भले ही लगते हो, अन्ततः अनेकों विकृतियाँ एवं समस्याएँ उत्पन्न करते है। सच्चे अर्थों में लाभान्वित होने का एक ही रास्ता है, व्यक्तित्व का निर्माण। इसी को अध्यात्म की भाषा में आत्मोत्कर्ष, आत्म कल्याण कहते है। इस दिशा में जो जितना सफल हो सका समझना चाहिए उसने उतना ही वैभव कमाया। हीनता से ग्रसितों को न सम्पदा सुख देती है और न अनुकूलता से प्रगति होती है।

व्यक्तित्व ही पारस है, जो जिस वस्तु, व्यक्ति, तथ्य या लक्ष्य से स्पर्श करता है उसे स्वर्ण जैसा सम्मानित कर देता है व्यक्तित्व ही अमृत है, जिसकी अमरता के साथ जुड़ी हुई गरिमा क्षमता एवं निश्चिन्तता के तत्व विद्यमान है। व्यक्तित्व ही कल्प वृक्ष है जिसके सम्पर्क में आने वाले हर दृष्टि से लाभान्वित होते रहते है इस संसार में अगणित सम्पदाएँ सफलताएँ विद्यमान है। श्रेय-सम्मान देने के लिए संसार आतुर है। न सहयोगियों की कमी है। न समर्थकों और न अनुयायियों की, किन्तु वह समस्त विभूतियाँ मात्र व्यक्तित्ववानों के लिए सुरक्षित है। यहाँ तक कि परलोक और दैवी अनुग्रह भी उन्हीं की प्रतीक्षा स्वर्ग एवं वरदान देने के लिए घड़ियाँ गिनता रहता है।

अंधे के हाथ बटेर पड़ना और आसमान से हीरे बरसने लगना दूसरी बात है। पर साधारण नियम यही चलता है कि भौतिक क्षेत्र की प्रतिभाएँ अपने स्तर की सफलताएँ पाती है और आत्मिक क्षेत्र की अपने ढंग की सिद्धियाँ उपार्जित करती है। हीनता तो दोनों ही क्षेत्रों में तिरस्कृत होती है। उपहारों और अनुदानों का लाभ प्रत्यक्ष में भी विशिष्टों को ही मिलता है। वरदान और विभूतियाँ परोक्ष में भी वरिष्ठों के ही पल्ले पड़ती है। शेष असफलताओं का दोष जिस तिस पर मढ़ते हुए मन मसोसते और किसी प्रकार जी हलका करते, दिन गुजारते है। तो भिन्न-भिन्न प्रकार की, पर उनका उपार्जन एक ही सिद्धान्त पर आधारित है मनस्वी और तपस्वी अपने-अपने ढंग के विशिष्ट और वरिष्ठ ही तो होते है।

देवाराधन के सम्बन्ध में इन दिनों भारी भ्रान्ति यह चल पड़ी है। कि अदृश्य के अनुदान स्तवन-पूजन भर से मिल सकते है। देवता पूजा बटोरते और वरदान बखेरते रहते है। जबकि तथ्य सर्वथा भिन्न है। उपासना जीवन साधना का पथ प्रशस्त करती है। अर्थात् व्यक्तित्व सम्पन्न बनने का मनोविज्ञान और क्रियापरक आधार खड़ा करती है। यह प्रगति जिस स्तर की होती है। उसी अनुपात से परिष्कृत पुरुषार्थ निखरता है। यही है साधना से सिद्धि की सीधी सादी, सरल एवं सुनिश्चित प्रक्रिया साधक की यथार्थता और सफलता उसकी व्यक्तित्व सम्पन्नता के आधार पर ही आँकी जाती है।

अब तक जितने भी साधकों ने सिद्धि प्राप्त की हैं, उनका पुरुषार्थ निर्धारित कर्म काण्डों से जुड़ा तो रहा है पर वे इतने भर से सन्तुष्ट नहीं हुए। सिद्ध पुरूषों की प्रतिभा पग-पग पर अपनी प्रखरता का परिचय देती है। वह और कही से कटोरी हुई नहीं होती। वरन् बूँद-बूँद कर के संचित की हुई होती है। पहलवान, विद्वान, धनवान अपना वर्चस्व योजनाबद्ध पुरुषार्थ से चिर प्रयत्न से अर्जित करते है। ठीक यही मार्ग व्यक्तित्ववान, आत्मवान बनने का भी है। सबसे लिए एक ही राज मार्ग है। यहाँ पगडंडियाँ किसी के लिए भी नहीं है। शार्टकट ढूँढ़ने वाले पाते कुछ नहीं, झाड़ियों में उलझते, भटकते और निरर्थक थकने के अतिरिक्त और कुछ उनके पल्ले नहीं पड़ता।

प्राचीन काल के देव युग में इन तथ्यों को जन-जन ने समझा और आस्था पूर्वक अपनाया था। अस्तु वे दूर-दर्शी नीति अपनाते थे। गुण, कर्म, स्वभाव की विशिष्टता अर्जित करते थे। वही उनकी वास्तविक पूजा थी। जिसके सहारे स्वयं आनन्द पाते और दूसरों को सहारा देकर ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने का सौरभ बखेरते थे। वे जानते थे जीवन अनन्त है। इस जन्म की संचित सुसंस्कारिता ही अगले जन्म में अधिक उच्च स्थिति प्रदान कर सकती है। वैभव देखा भर जा सकता है उसे कोई निगल नहीं सकता। अनावश्यक मात्रा में निगलने वाले को उल्टी और दस्त का त्रास सहना पड़ता है। किन्तु वर्चस्व के बारे में ऐसी बात नहीं है।

सुसंस्कारिता का वर्चस्व ही व्यक्तित्व के कण-कण में घुसता और बसता है, फलतः वह सारी सम्पदा शरीर के बाद भी साथ रहनी है और संचित निधि की तरह भविष्य को अधिकाधिक उज्ज्वल एवं सुखद बनाती चली जाती है सुसंस्कारिता का संचय इस लोक की ही तरह परलोक में भी प्रचुर परिमाण में श्रेय देता और समुन्नत बनाता रहता है।

अपने साथियों, सम्बन्धियों की जितनी सहायता उन्हें सुसंस्कारी बना कर दी जा सकती है उतनी और किसी प्रकार नहीं। कहना न होगा कि यह प्रयोजन चन्दन की तरह स्वयं सौरवान बनकर समीपवर्तियों को श्रेयाधिकारी बनाने की तरह ही पूरा हो सकता है। साथियों को समझाते रहने या दवाते रहने से व्यक्तित्ववान नहीं बनाया जा सकता यह कार्य तो जलते दीपक द्वारा पूरा दीपक जलाये जाने की तरह ही सम्पन्न होता है। प्रियजनों का हित साधन जिन्हें वस्तुतः अभीष्ट हो उन्हें अपने को साँचा बनाकर, उनकी उपयुक्त ढलाई करने के रूप में ही प्रयोजन की पूर्ति करनी चाहिए।

अतीत की महान गरिमा का सार तत्व उस समय की समुन्नत सुसंस्कारिता पर निर्भर था। अध्यात्म को आज तो जादूगरी माना जाता है, पर उन दिनों उसका सीधा-साधा अर्थ गुण, कर्म स्वभाव से उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ाने के निमित्त बनाये गये तत्व दर्शन को हृदयंगम करना और व्यवहार में उतारना भर था। विभिन्न साधनायें उसी एक प्रयोजन की पूर्ति के लिए की जाती थी। व्रत, संयम, तप, दान आदि के धर्मानुष्ठानों से संचित संस्कारों का निराकरण और उत्कृष्ठानो से संचित संस्कारों का निराकरण और उत्कृष्टता का उच्चस्तरीय अवधारण ही लक्ष्य था। सत्संगों में यही कहा और स्वाध्याय में यही पढ़ा जाता था। कि अभ्यस्त पशु-वृत्तियों को निरस्त करने के लिए अनवरत अभ्यास किया जाय साथ ही ऐसा क्रिया कलाप अपनाया जाय, जिससे आदर्शवादिता समझने समझाने तक सीमित न हरे, वरन व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बन सके। ईश्वर भक्ति से लेकर योगाभ्यास और तप-साधना के पीछे इसी एक लक्ष्य की पूर्ति का उद्देश्य सन्निहित है। चिंतन और मनन का महात्म्य इसीलिए बनाया गया है कि उससे आत्म सुधार और आत्म निर्माण के दोनों पक्ष पूरे होते है स्वाध्याय ओर सत्संग की महिमा भी इसी आधार पर इतने विस्तार से बखानी गई है।

आरती का इतिहास एक शब्द में जन-जन द्वारा उत्कृष्टता अपनाये जाने और उसे आदर्शवादी प्रयोजनों में प्रयुक्त करने की घटनाओं का समुच्चय मात्र है। पूर्वजों के महान कर्तृत्व इसी आधार पर बन पड़े। उनकी क्षमताओं और विशिष्टताओं का ऋद्धियों और सिद्धियों का उद्गम एक ही रहा है। कि चिन्तन और चरित्र को उच्चस्तरीय बनाने में इन दिनों आशाजनक सफलता पाई गई। संसार भर के अनेकानेक उपाय-उपचारों से जो विविध विधि सेवा की जा सकी उसका विवरण विश्व इतिहास के पन्ने-पन्ने पर अंकित है साधन हीन परिस्थितियों में यह सब कैसे बन पड़ा। इसका एक ही उत्तर है - उन दिनों उत्कृष्टता अपनाने में भाव भरी अभिरुचि ओर दूसरे से आगे बढ़ने की स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा। इसी प्रवाह प्रचलन ने उस समय के देवता, युग और उन परिस्थितियों को स्वर्गोपम बनाया था। उन दिनों सच्चे अर्थ में स्वार्थ भी साता और हाथों हाथ फल देने वाले परमार्थ का भी पूरा लाभ उठाया गया। उन दिनों आज की तरह आदर्शवादिता का मार्ग कठिन या असम्भव नहीं समझा जाता था। किन्तु उसकी सरलता, सुविधा और सुखद प्रतिक्रिया को देखकर हर किसी को यह विश्वास रहता था कि समृद्धि एवं प्रगति का मात्र यही एक मार्ग है।

यह प्रचलन किस प्रकार सम्भव हुआ ? निकृष्टता की पशु प्रवृत्तियाँ सदा से गुरुत्वाकर्षण की तरह हर किसी को अधोगामी बनाने का दवाब डालती है। तो उन दिनों लोग किसी प्रकार उत्कृष्टता के मार्ग पर चलते रहे ? इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर, उन दिनों के विद्या मन्दिरों पर दृष्टि जमती है। साक्षरता की दृष्टि से उन दिनों आज जैसी सुविधा नहीं थी, पर विद्या मन्दिरों की कही कभी न थी। ऋषिकल्प देवता निवृत्तों के लिए आरण्यक, बालकों के लिए गुरुकुल और गृहस्थों के लिए तीर्थ सेवन की त्रिविध सूत्र श्रृंखला का सुनियोजित संचालन करते थे उस त्रिवेणी में स्नान करने का जन-जन को अवसर मिलता था। “काक होहिं पिक बकहु मराला” के अलंकारिक प्रतिपादन में जिस त्रिवेणी संगम का महत्व बताया गया है वह वस्तुतः वह लोक शिक्षण की विविध प्रक्रिया ही है जिससे उच्चस्तरीय प्रेरणा पाने और अभ्यास का लाभ लेने के लिए समुचित अवसर प्राप्त करने की सुविधा रहती है।

ब्राह्मण सीमित क्षेत्र के यजमानों का क्रमबद्ध शिक्षण करते थे। और सन्त बादलों की तरह परिभ्रमण करते और जहाँ तहाँ बरसने का क्रम जारी रखते थे। फलतः निकृष्टता से जूझना और उत्कृष्टता को उभारना उतना कठिन नहीं रह जाता था जैसा कि आज प्रचलन के अभाव में प्रतीत होता है।

युग परिवर्तन की इस पुण्य बेला में नये सिरे से कुछ सोचने की आवश्यकता है, नया क्रम अपनाने की। चिर पुरातन को नित नवीन के साथ जोड़ देने से भली प्रकार काम चल जाएगा। जिस मार्ग पर चल कर पूर्वजों ने देवोपम गरिमा अर्जित की थी, वह अपने लिए भी नितान्त सम्भव है जिस प्रयोग को लाखों वर्षों तक खरा और उपयोगी पाया गया उसकी पुनरावृत्ति में किसी हिचक की आवश्यकता नहीं है। विपत्तियों और विभीषिकाओं में फँस जाने का एक मात्र कारण सदाशयता के राज मार्ग से भटक जाना भर है। भूल को सुधारा जा सकता है और उसी राज मार्ग को अपनाने का विवेक दर्शाया जा सकता है। जो भूतकाल की तरह आज भी अपनी विशिष्टता सिद्ध करने में पूर्णतया सक्षम है।

इस पुनरावर्तन में अखण्ड-ज्योति के प्रबुद्ध परिजन अन्यान्यों से एक कदम आगे बढ़कर अपनी भूमिका निभा सकते है। प्राचीन तत्वदर्शन को जीवन व्यवहार में उतारने की अभिनव प्रयोगशाला गायत्री नगर के रूप में खड़ी की गई है। अब इसमें देव परिवार बसाने का दूसरा चरण उठाया जाना है इस धरती को उस साधना में प्रवृत्त किया जायेगा जिसमें भूत कालीन प्रचलनों को व्यवहार में उतारने का प्रयत्न प्रमुख है स्पष्ट है कि साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा का चतुर्विध उपचार ही व्यक्तित्व निर्माण का, आत्मविकास का, ईश्वर प्राप्ति का सुनिश्चित आधार है, इससे कम से वास्तविक आत्मोत्कर्ष सम्भव नहीं, इस प्रक्रिया को अपनाने के उपरान्त और कुछ अधिक खोजने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

अध्यात्म की चमत्कारी प्रतिक्रिया सिद्ध करने में प्राचीन काल में भी उन्हीं की प्रमुख भूमिका रही है जो आकर्षणों और दबावों से मुक्ति पा चुके। वानप्रस्थ उसी परिस्थिति का नाम है जिसमें व्यामोह की दलदल में फँसे रहने की अपेक्षा ऊँचा उठने का मन चलता और साहस उठता है कहना न होगा कि प्राचीन काल में अतौत को महान बनाने की प्रमुख भूमिका रही हैं अब उसी युग को वापिस लाना है जो उसकी स्तर की भूमिका निभा सके उसी को ही फिर आगे आना होगा। वानप्रस्थ का पुनर्जीवन ही युग परिवर्तन का ठोस आधार है क्योंकि लोक शिक्षण की प्रक्रिया वक्ताओं से नहीं प्रतिभाओं के सहारे सम्पन्न होगी। अध्यात्म क्षेत्र की प्रतिभाओं में उन साहसिकों की गणना होती है जो उच्च स्तरीय प्रतिपादनों को अपने ऊपर उतारने की पहल करते है।

(1) पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त (2) आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी (3) शरीर और मन से सक्षम (4) आदर्श वादी जीवन-चर्या अपनाने के लिए मनोबल सम्पन्न की चार विशेषताओं से युक्त परिजनो को गायत्री नगर में बसने के लिए आमन्त्रित किया गया हैं यहाँ की शिक्षण पद्धति में मात्र पाठ्यक्रम पूरा करने तथा अमुक संख्या में जप-तप कर लेने जितना भर सीमित नहीं है। वरन् व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाले समग्र अध्यात्म की समन्वित जीवनचर्या अपनाने के लिए कटिबद्ध रहना है। प्रयोग शाला का प्रथम परीक्षण इसी रूप में सम्पन्न होगा कि जो भर्ती हो, वे अपना व्यक्तित्व उभारें। इसके उपरान्त दूसरों को उठाने और आगे बढ़ाने का उत्तरदायित्व सँभाले। लोक शिक्षण की यही पद्धति अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत कर सकने में सफल हो सकती है।

महान अध्यात्म परम्पराओं को पुनर्जीवित करने एवं देव युग को वापिस लाने के लिए आज की परिस्थिति में क्या करना होगा और उसका प्रभाव परिणाम किस रूप में प्रस्तुत होगा इस परीक्षण के लिए गायत्री नगर में देव परिवार बसाया जा रहा है इसमें सम्मिलित होने वालो को अग्रगामी, अग्रदूतों की पंक्ति में खड़ा होने का अवसर मिलेगा। उत्कृष्टता के ढाँचे में असंख्यों को ढालने के लिए अपने को जो सुदृढ़, संयंत्र सिद्ध कर सकेंगे वे समय को पहिचानने और उपयुक्त अवसर पर उपयुक्त समय को पहिचानने और उपयुक्त अवसर पर उपयुक्त भूमिका सम्पन्न करने वाले सौभाग्यवानों में गिने जायेंगे।


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