अगले दिनों हमें घास खाकर ही जीना पड़ेगा

May 1973

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रात्रि की गतिविधियाँ प्रभात होते ही बदल जाती हैं। सोने वाले जागते हैं और निष्क्रियता छोड़कर प्रस्तुत समस्याओं का सामना करने के लिए कटिबद्ध होते हैं। पक्षी घोंसला छोड़कर शरीरचर्या में प्रवृत्त होना पड़ता है। फूल खिलते हैं और अंकुर उगते हैं। दिनकर की ऊर्जा तमिस्रा को विदा करती है और निशाचर को अपनी हलचलें बन्द करने की सूक्त हैं। युग सन्धि की यह घड़ी पुण्य प्रभात जैसी है, उसमें अन्धकार युग की तमिस्रा का अन्त और आलोक ऊर्जा का आरम्भ प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

इस पावन बेला में मूर्धन्यों का कुछ विशेष कर्तव्य है, उन्हें मन्दिरों में आरती सँजोनी और शंख घड़ियाल बजाकर उनींदों में चेतना भरनी चाहिए। अचेतनों की गतिविधियाँ जो भी रहें, चेतन तो उदीयमान सूर्य के अभिमुख होते और सन्ध्या वन्दन करते ही दृष्टिगोचर होंगे। प्रभात पर जिनकी श्रद्धा हैं, वे उस पावन बेला का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात ही सोच सकते हैं। जागकर स्वयं उठते और दूसरों को उठाते हैं। सौभाग्य की तरह उदीयमान आलोक की अवमानना कुछ अभागे ही करते हैं। अन्यथा जागरण की बेला में विवेकवानों के लिए एक ही मार्ग है। आज की आवश्यकताओं को समझना और उनकी पूर्ति में योजनाबद्ध क्रम बना कर जुट पड़ना।

व्यक्तिगत चिन्तन के लिए सर्वोपरि समस्या है जीवन का सदुपयोग। यह अलभ्य उपहार कुचक्र से निकल कर पूर्णता तक पहुँचने के लिए समस्त सुविधाओं से भरा पूरा है। उसने बड़ा स्वार्थ साधन दूसरा क्या हो सकता है कि वाह्य जीवन में बन्धन मुक्ति की अनुभूति का आनन्द उठाते हुए इस सुअवसर का लाभ उठाया जाये इसी समस्या का दूसरा पक्ष है प्रगति पथ पर अग्रगमन, अभिनव उपलब्धियों का रसास्वादन। यह सफलता भी आत्मिक क्षेत्र की ही है। भौतिक प्रगति की निर्वाह भरके लिए आवश्यकता है। इससे अधिक करनी हो तो वह सामूहिक सुविधा सम्वर्धन के रूप में ही श्रेयस्कर है। निजी सम्पदा औरत माप दण्ड से बढ़ने पर अनेकानेक विकृतियाँ उत्पन्न करती है। पेट में अधिक खाया गया भोजन और सामर्थ्य से अधिक उठाया गया वजन कितना कष्ट कारक होता है यह सभी जानते हैं। महत्त्वाकाँक्षाएँ आत्मिक क्षेत्र की होती हैं। लोभ और मोह की आग भड़काने वाले स्वयं जलते और जलाते भर है। आत्मिक प्रगति की आकाँक्षा को परमार्थपरायणता कहते हैं। मनुष्य को ईश्वरीय अनुदानों का दूसरा उद्देश्य यही है कि वह उदार एवं सहृदयता का प्रमाण देकर अपनी विशिष्टता सिद्ध करे। इस प्रतियोगिता में जो जितने नम्बर लाता हैं, उसे उसी अनुपात से ईश्वरीय अनुदानों का पुरस्कार मिलता है।

सामान्य जन पेट और प्रजनन के कुचक्र में ही फँसे मौत के दिन पूरे करते है। उन्हें न आगे की कुछ सूझती है और न अधिक की आवश्यकता अनुभव होती हैं। पर असामान्यों की बात दूसरी है, वे जीवन्तों की तरह अग्रगमन की बात सोचते हैं और उन्मुक्त आकाश में स्वतन्त्र चिन्तन एवं विशिष्ट साहस के दोनों पंख खोलकर लम्बी उड़ान भरते हैं। ईश्वरीय अनुग्रहों में महा मानव ऋषि कल्प, देवदूत अवतार जैसी कितनी ही ऐसी विभूतियाँ है। जिन्हें पाने वाला धन्य होकर रहता है। इन्हें पाने के लिए परमार्थ अपनाना पड़ता है।

परमार्थ का तात्पर्य है सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्द्धन सदाशयता का प्रचलन, पीड़ा और पतन का उन्मूलन यही है वह विशिष्टता जो क्षुद्रजनों के गले नहीं उतरती जो इस अग्नि परीक्षा में प्रवेश करने का साहस करते है वह खरे सोने की तरह अपना समुचित और सम्मानजनक मूल्य प्राप्त करता है। कृपणों की गर्दन पर संकीर्ण स्वार्थपरता लदी रहती है, फलतः बेल पर वार्थ की बात सोचते हैं और न ईश्वरीय अनुदानों के अधिकारी बनते हैं। प्रगतिशीलों को न क्षुद्रता भाती है, और संकीर्णता रचती हैं। वे अपना मार्ग आप बनाते और अपने पैरों पर आप चलते हैं। यही है प्रगतिशीलता की रीति नीति जो इसे अपनाते है, वे देव मानव होकर होती हैं।

सूरज तो रोज ही निकलता है और रोज ही अस्त होता हैं, पर जीवन प्रभात की पुण्य वेला उस दिन आती जिस दिन मनुष्य शान्त चित्त से अपनी स्थिति पर विचार करता और उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए सिरे से सोचने और नये निर्धारण करने के लिए होता हैं। यह अवसर जिसे मिले उसे सच्चे अर्थों में सौभाग्यशाली कहा जाता है। ईश्वर का अनुग्रह इसी में बरसता है। सद्गुरू इसी रण में अपने अनुदान देते सौभाग्योदय इसी उपलब्धि को कहते हैं। आत्म जागरण आत्मोपलब्धि आदि अनेक नामों से इसे बखाना जाता है। ईश्वर दर्शन भी यही है। इस प्रभात की रचना करते हुए ही अन्तःकरण में तमसो मा ज्योतिर्गमय हूक उठती रहती है।

युग प्रभात विराट ब्रह्म की इच्छा और आवश्यकता निमित्त होता है। विनाश को निरस्त और विकास सशक्त करने के लिए अदृश्य जगत में अभिनव लहर उठती है तो उसकी प्रखरता और प्रचण्डता युग चेतना स्तर की होती हैं। भक्त लोग इसे अवतार मानते हैं। तत्वदर्शी इसी को युग अवतरण मानते हैं। नक का प्रकटीकरण इसी रूप में होता है, यही युग है। इस पुण्य बेला में जागरूकों को बुलाया जाता और वे अदृश्य प्रेरणा के दृश्य प्रयासों में अपनी भाव भूमिका निभाते हैं। इतिहास पुराणों के पृष्ठ इसी से भरे पड़े हैं कि अदृश्य की प्रेरणाओं को अपना जागरूकों ने अग्रदूतों का उत्तरदायित्व उठाया, सूर्य की प्रथम झाँकी पर्वत शिखरों पर चमकने वाली ही कराती हैं। मूर्धन्यों की गति विधियाँ सामान्यों वहीं रहतीं, वे शिखरों की तरह सर्वप्रथम हैं, और न केवल प्रभात का वरन् शिखरों के का भी परिचय देती हैं। दर्शक इस प्रथम दर्शन से विमुग्ध होकर शिखरों का भी नमन करते हैं।

कई बार सामान्य समय में भी जीवन प्रभात का सौभाग्य कइयों मिलता हैं, पर युग प्रभात में तो एक प्रवाह आता है और विशिष्टों को अनायास ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा देखा जाता हैं। जागने और जगाने की प्रक्रिया देवालयों में दूसरों से पूर्व ही चल पड़ती हैं। जागरूकों को देवात्मा कहा जाता हैं। वे जीवन्त देवालयों की श्रेणी में ही गिने जाते है।

युग सन्धि की इस पुण्य वेला में दृश्य क्षेत्रों में प्रभात का परिचय और दर्शन सहज ही मिलता हैं। जागृतों के अन्तःक्षेत्र में समुद्र मन्थन चल रहा है। वे ईश्वरीय अनुदान के रूप में उपलब्ध हुई मनुष्य जीवन की गरिमा का अनुभव इस प्रकार कर रहे हैं मानो निद्रा त्याग कर प्रथम बार अनसे सत्य को देखा हो। स्वार्थ सिद्धि के लिए उत्कृष्टता अपनाने और परमार्थ सिद्धि के लिए आदर्श पथ पर चल पड़ने में ही उन्हें कल्याण दिखता है, युग प्रभात को इसके लिए नया निमन्त्रण भेजा हैं। महान परिवर्तन की भूमिकाएँ समय समय पर देव मानवो ही निभाई है। इन दिनों भी उन्हीं का पुरुषार्थ जन नेतृत्व करेगा। अध्यापकों की बात दूसरी है, उनका काम छात्रों को समझाने के लिए वाणी का उपयोग कर लेने से चल जाता है, पर लोक मानस में उच्चस्तरीय प्रवृत्तियाँ उभारने के लिए अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत करने के अतिरिक्त दूसरा चारा नहीं। यह कार्य जागरूकों का है। वे ही इस प्रयोजन को समय समय पर पूरा करते रहे हैं। इस आड़े समय में भी उन्हें अपनी पूर्व भूमिका निभानी है।

अंगद, हनुमान, नल, नील, गीध, गिलहरी की भूमिका निभाने वाली आत्माएँ मात्र त्रेता के लंका काण्ड में ही प्रकट हुई हों, ऐसी बात नहीं है, युग परिवर्तन के समस्त अवसरों पर उन देवदूतों ने विभिन्न आवरण ओढ़कर विभिन्न भूमिकायें पर उन देवदूतों ने विभिन्न सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप निभाई हैं। प्रस्तुत युग संधि भी ठीक ऐसी ही वेला है जिसका आपत्ति कालीन आमन्त्रण जीवन्तों के क्षेत्र में अनसुना किया ही नहीं जा सकता।

तमिस्रा के अवसान और आलोक के पुनरोदय के अवसर पर पूर्वजों की महान परम्पराओं का पुनर्जीवन होना स्वाभाविक है। कहना न होगा कि भारतीय तत्वदर्शन का मेरुदण्ड वह प्रचलन है, जिसमें जीवन को दो भागों में विभक्त किया गया है। आधे में शरीर यात्रा और आधे में ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति का विभाजन ही वर्णाश्रम धर्म है। यह क्रम जब तक चला अतीत का गौरव भी अक्षुण्ण रहा। जैसे जैसे कृपणता बढ़ने लगी वैसे वैसे तमिस्रा छाई। अब नव प्रभात के उदीयमान होते ही उन परम्पराओं का व्यवहार में उतरना भी स्वाभाविक है, जो मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की कल्पना जल्पना नहीं रहने देती, वरन् यथार्थता में परिणित करती है।

जागरूकों में इन दिनों वे प्रवृत्तियाँ उभार की उच्च सीमा को छूती दिखाई पड़ती हैं जिन्हें अपना स्वयं का निर्धारण और दूसरों के लिए अनुकरण का पथ प्रशस्त करना है। अध्यात्म युग में लोक जीवन का यही क्रम होगा कि भौतिक लिप्साओं को नियंत्रित करें और आत्मिक विशिष्टताओं को उभारने में उतना पुरुषार्थ करें जो जन जन में अभिनव चेतना भरने के लिए समर्थ हो सके।

उच्चस्तरीय जीवन दर्शन अपनाने पर भी जन समाज को विपत्तियों और विभीषिकाओं से उबरने का अवसर मिलेगा। समृद्धि और शालीनता की उभयपक्षीय सुखद संभावनाएँ उत्कृष्टता अपनाने से ही सम्भव हो सकती हैं। इस दिशा धारा को अपनाने के लिए उपयुक्त लोक शिक्षण की व्यवस्था रहना प्रगति का प्रथम चरण हैं। इसके लिए युग प्रवक्ता चाहिए, जो मात्र वाणी से ही कहते सुनते न रहे, वरन् अथवा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध भी करें कि जो कहा जा रहा है वह सरल एवं व्यावहारिक ही नहीं वरन् सुखद एवं श्रेयस्कर भी हैं। प्रतिपादनों के अनुरूप प्रवक्ताओं का चरित्र एवं व्यक्तित्व न होगा तो उसका प्रभाव नहीं के बराबर ही होगा। लोग सुनेंगे तो सही पर अपनाने के लिए किसी की अन्तःप्रेरणा न उठेगी। दीपक को दीपक ही जलाता है और चरित्र ही चरित्र को प्रभावित करता हैं। जागरूक को अपना जीवन क्रम नवयुग की प्रयोगशाला के रूप में प्रस्तुत करना होगा जिसमें झाँक कर यह देखा जा सकेगा की आदर्शवादिता व्यावहारिक एवं उपयोगी भी हो सकती है या नहीं, यह विश्वास कराये बिना लोक मानस को न पुराना ढर्रा छोड़ने के लिए सहमत किया जा सकता है। और न नया अपनाने के लिए।

प्रतिपादनों और प्रवचनों का जमाना चला गया। पिछले दिनों आदर्शवादिता के समर्थन में इतना लिखा जा चुका है कि उनकी निरर्थकता को देखते हुए उसी की पुनरावृत्ति करने में कुछ सार दिखाई नहीं पड़ता। कारगर परिणाम निकलने की सम्भावना इसी एक तथ्य पर निर्भर हैं कि कुछ लोग आगे बढ़कर यह सिद्धि करें कि आदर्शवाद मात्र चर्चा का एक मनोरंजक विषय भर नहीं है, वरन् उसका अपनाया जाना न केवल सरल है, वरन् हर दृष्टि से लाभदायक भी है। दिग्भ्रान्त लोक मानस को इससे कम में इसके लिए सहमत नहीं कर सकते, जिसे किये जाने की आशा सँजोकर नव युग का स्वप्न देखा गया है।

आदर्शवादिता न केवल समाज कल्याण के लिए, ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं वरन् उससे स्वार्थ भी पूरी तरह सधता है। सादगी और संयम अपनाने में हानि इतनी भर है कि अन्धों में काना राजा बनने का अवसर नहीं मिलता। मूर्खों के बीच धूर्त जिस प्रकार अपनी नाक बढ़ाते और ठाठ बनाते देखे जाते है, उस बचकानेपन में कमी आने के अतिरिक्त और कहीं कोई बाटा नहीं हैं। लोभ और मोह की आग में ईधन की तरह जलने वाली क्षमताओं को तृष्णा के व्यामोह में से छुटकारा पाते ही इतनी बचत हो सकती है कि उसके सहारे आत्म कल्याण और लोक कल्याण का दुहरा प्रयोजन पूरा हो सके।

इसके लिए मात्र इतना ही करना पड़ता है कि अभ्यस्त इच्छाओं और आदतों का नये सिरे से पर्यवेक्षण कर सकने की सूक्ष्म बुद्धि अपनाई जाय, यह एक कदम हुआ। दूसरा यह है कि अनुपयुक्त को छोड़ने और औचित्य को अपनाने का इतना साहस संजोया जाय जिसमें संचित कुसंस्कारों और तथाकथित प्रियजनों को बाधक बनने का अवसर ना मिल सके। इन्हीं दो कदमों को उठाते हुए उस महान लक्ष्य तक इसी जीवन में पहुँचा जा सकता है जिसमें आत्म सन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह से सम्बन्धित विपुल विभूतियाँ उपलब्ध करने का अवसर मिल सके।

हर व्यक्ति यह सोचता है कि वह बहुत व्यस्त एवं उत्तरदायित्वों से लदा है। इसलिए सत्प्रयोजनों में भाग लेने की स्थिति उसकी नहीं है। इस मान्यता में सार कम और भ्रम अधिक है। जिस प्रकार सोचने की आदत है और जिस प्रकार से समाधान चाहें गये हैं, उसी पर अड़े रहना हो तो बात दूसरी है अन्यथा हर समस्या के हजार समाधान हैं। एक प्रकार से बात न बनती हों तो उसे दूसरे प्रकार बनाया जा सकता हैं। एक रास्ता रुक गया हो तो दूसरे रास्ते जाया जा सकता है। आदर्शवादी रीति नीति अपनाने में परिस्थितियाँ उतनी बाधक नहीं होती जितनी की पूर्वाग्रहों के दलदल में फँसी हुई मनःस्थिति। दृष्टि बदलने और दूसरे मार्ग खोजने पर हर स्थिति के व्यक्ति को इतना अवसर मिल सकता है वह अपनी दिनचर्या में उन गतिविधियों का समावेश करने के लिए पर्याप्त अवसर प्राप्त कर सके।

एक नई दृष्टि से सोचा जाय कि विपत्ति की घड़ी आई, शरीर रुग्ण या अपंग हो गया तब अभ्यस्त ढर्रा छोड़कर कोई न कोई दूसरी राह खोजनी और गाड़ी किसी दूसरे रास्ते चलानी पड़ेगी । कई बार ऐसे कमाऊ व्यक्तियों की भी मृत्यु हो जाती है, जिनके सहारे गृह व्यवस्था चला करती थी। उन दिनों घबराने वाले यही देखते थे कि सब कुछ चौपट हो गया और उबरने का काई रास्ता शेष नहीं रहा। घबराहट दूर होने और शोकावेग हलका होने पर देखा जाता है कि दूसरा रास्ता निकल आया और रुका हुआ गतिचक्र फिर किसी रास्ते चल पड़ा। सृष्टा की इस विश्व व्यवस्था में हर घटक बहुमूल्य है। उसका अपना कार्य और उपयोग है। इतने पर भी दूसरी सचाई भी यथास्थान है किसी के भी न रहने पर यहाँ कहीं भी अवरोध उत्पन्न नहीं होता। गति चक्र अड़ता नहीं, वह एक रास्ता रुकते ही दूसरा नया रास्ता खोज लेता है। जिसने अपने ही सिर पर धरती लदी हुई समझी उसकी बात दूसरी है, पर जो तथ्यों से परिचित हैं वे जानते हैं कि दुर्घटनाओं की क्षतिपूर्ति होते रहने की यहाँ परिपूर्ण व्यवस्था विद्यमान है। यदि पुराने ढर्रे को बदल कर नये में प्रवेश करने की बात को भी दुर्घटना जैसी मान लिया जाय तो प्रतीत होगा कि उस परिवर्तन से जो भय प्रतीत होता था, जो आशंका दीखती थी वह सब कुछ काल्पनिक प्रतीत हुआ। व्यवस्था ने परिस्थितियों के साथ अपना तालमेल बिठा लिया और अपने हटते ही जो अनर्थ होने का भय था, वह सर्वथा निर्मूल सिद्ध हुआ।

यहाँ उनकी चर्चा है, जो वस्तुतः उत्तरदायित्वों से लदे हैं और जिन्हें सचमुच ही गाड़ी खींचनी पड़ती है ऐसे लोग भी यदि पूरी तरह युग प्रयोजनों में लगना चाहें तो भी उनका स्थान लेने लिए दूसरी सम्भावना मौजूद है। पर यहाँ तो उतनी बात भी नहीं हो रही है। इस समय तो इतने भर से काम चल सकता है कि लाभ और मोह की कीचड़ से उबारा जाय और निर्वाह तथा परिवार सम्बन्धी महत्त्वाकाँक्षाओं को थोड़ा हलका कर लिया जाय। जिस परमार्थ को असम्भव और निरर्थक माना जाता है, उसे उपयोगी और आवश्यक समझा जाय। इतना आन्तरिक परिवर्तन जो भी कर सकेंगे वे देखेंगे कि जीवन प्रभात और युग प्रभात में जागरूकों का जो कर्तव्य था, उसका परिपालन तनिक भी कठिन नहीं रहा। आदर्शवादी निर्धारण न केवल सरल है वरन् सुखद और श्रेयस्कर भी। इस तथ्य की सचाई की कोई भी कभी भी जाँच कर सकता है। इस प्रयोग परीक्षण के लिए आज जैसा उपयुक्त अवसर फिर कदाचित् ही कभी किसी को मिल सके।


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