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May 1973

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राजा जनक की सभा में अष्टावक्र ने अपने वक्र शरीर के लिए अपमानित अवस्था दूर करने का निश्चय किया। श्रुति ने बताया इस जगत का निर्माण ब्रह्मा ने किया है। पालन करने वाले विष्णु है और संहार करने वाले महेश्वर शंकर है। उनकी शरण जाने से ही कल्याण सम्भव है।

अष्टावक्र ने ब्रह्मा की उपासना प्रारम्भ की। वर्षों तक अन्न जल आदि का परित्याग कर उन्होंने विधि का अर्चन किया। उनकी तपश्चर्या से अभिभूत ब्रह्मा प्रकट हुए और पूछा-वत्स तुमने आह्वान किस हेतु किया ?

आप विधाता है अष्टावक्र ने पूछा-आप की सृष्टि का सृजन करते हो ? निःसन्देह में हो-ब्रह्मा बोले ? तो फिर आपने मुझे विकलांग क्यों बनाया। क्या आपको सुन्दर सृष्टि रचने का ज्ञान नहीं? अष्टावक्र के शब्दों की रुष्टता स्पष्ट प्रकट थी। पर ब्रह्मा जी निर्विकार रहे-बोले तात यह तो तुम्हारे अपने प्रारब्ध का फल है।

“प्रारब्ध” - यदि आप सृष्टा होकर भी प्रारब्ध के दास है तो मुझे आपसे और कुछ नहीं कहना आप जा सकते हो।

एक दिन भगवान शंकर भी प्रकट हुए। अष्टावक्र ने भगवान शिव को प्रणाम कर कहा-मृत्युंजय आपके लिए सृष्टि में कुछ असम्भव नहीं। शीघ्रता कीजिये मेरे इस विकृत शरीर का नाश कर बस लज्जाजनक जीवन यंत्रणा से मुझे मुक्त कीजिये।

भगवान शंकर मुस्कराये और बोले वत्स! मैं संहारक हूँ अवश्य, पर बस प्रारब्ध पर ही ऐसा कर सकता हूँ, अपने भीतर देखो, अपने प्रारब्धों की खोज कर उन्हें सुधारो तो जो वस्तु तुम मुझसे चाहते हो वह स्वतः प्राप्त कर लोगे।


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