राम की महिमा अपरम्पार (kavita)

May 1973

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जल में, थल में, जड़-चेतन में, गूँज रही झंकार

राम की महिमा अपरम्पार, राम की महिमा अपरम्पार।।

खेलता है जब बालक खेल, जुटा कंकर, पत्थर, खपरैल।

बसाकर तब झूठी दुनिया, बिठाता है यथार्थ से मेला।।

खेल जब तक भी चलता रहे।

खेलती अधरों पर मुस्कान।।2।।

किन्तु जब आती घर की याद। त्याग देता हर हर्ष विषाद।

खत्म कर देता सारा खेल, बसाई दुनिया को बरबाद।

खेल ही था, सारा खिलवाड़।

उसे रहता है इतना भान।।3।

न रखता बालक मन में गाँठ, खेल के राग-द्वेष की बात।

भुला तेरे मेरे का भाव, स्नेह आपस में लेता बाँट।।

यही निश्छल, निर्मल व्यवहार।

बालकों के जीवन की शान।।4।।

बाल हठ को हमने दी मात, न छोड़ा नश्वरता का साथ।

दुराग्रह से चिपटे हम रहे, मौत न भी जब पकड़े हाथ।।

गये हम चिर यथार्थ को भूल।

रहे अपने से ही अनजान।।5।।

नरक कर डाली अपनी सृष्टि, बन्द हो गई स्वार्थवश दृष्टि।

हुये जब हम इतने स्वार्थान्ध, दिखाई दी ही नहीं समष्टि।।

देव बन सकता था जो मनुज।

वही बन गया हाय! शैतान।।9।।

राम की महिमा अपरम्पार, राम की महिमा अपरम्पार।।

*समाप्त*


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