उच्छृंखला उल्का स्वयं नष्ट होती है और

May 1973

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भारतीय संस्कृति में संस्कारों पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। अनगढ़ व्यक्तित्व को सुगढ़ बनाने-ढ़ालने के लिए आदि कालीन ऋषियों ने संस्कारों की व्यवस्था बनायी। षोड्श संस्कारों के सृजन में ऋषियों का मूल प्रयोजन या मानवी चेतना पर सूक्ष्म विधि उन आदर्शों की प्रतिष्ठापना करना। जिनके द्वारा व्यक्तित्व परिष्कृत एवं श्रेष्ठ बनता हो। यह परम्परा पूर्णतया वैज्ञानिक थी। व्यक्ति और समाज को श्रेष्ठ एवं शालीन बनाने में संस्कारों का महत्वपूर्ण योगदान होता था। ऋषियों की इस परम्परा में मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण का सशक्त आधार मौजूद है।

सभ्य एवं सुसंस्कृत संस्कृति की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जा रही है। वे ऐसे आधार ढूँढ़े जा रहे है जो व्यक्ति को शालीन एवं समर्थ बनाते हो। शिष्टाचार सिखाने के लिए एट्टीकेट्स विद्यालय खोले जा रहे है। मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण की बाध्य व्यवस्था भी बनायी जा रही है। यह सभी प्रयास इस बात के प्रमाण है कि संस्कारों की आवश्यकता इन दिनों भी पूर्व काल की तरह ही अनुभव की जा रही है।

इटली के मेंडले नामक विद्वान ने संस्कार शास्त्र पर आधारित एक शास्त्र की नींव डाली जिसे यूजेनिक्स कहा गया। हिन्दी में इसे सुसन्तान शास्त्र, अभिजनन शास्त्र कहते है। मेंडले के कार्यों से प्रेरणा लेकर इस सदी के आरम्भ में इंग्लैण्ड के विद्वान सर फानिक्स गाल्टन’ ने अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग लन्दन विश्वविद्यालय को इस क्षेत्र में शोध के लिए दिया। इस विश्वविद्यालय में ‘यूजेनिक्स’ के शोध कार्य में अनेकों विद्वान लगे हुए है। यूरोप के अन्य देशों में भी यह शास्त्र लोकप्रिय हो रहा है। यूजेनिक्स के वंश परम्परा, विवाह आदि के सम्बन्ध में विस्तृत शोध चल रहा है। इसमें भारतीय संस्कृति में विवाह सम्बन्धी मर्यादाओं एवं निषेधाओं से सम्बन्धित सभी तथ्यों का समावेश हैं उस क्षेत्र में शोध कर रहे विद्वानों का कहना है कि “सन्तति को सुसंस्कारी एवं शरीर बनाने में प्रत्यक्ष उपदेशों प्रशिक्षणों का कम धार्मिक संस्कारों का अधिक योगदान होता है।”

मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि मनुष्य किसी भी बात के सामान्य उपदेशों प्रशिक्षणों अथवा परामर्शों द्वारा दिये गये निर्देशों की तुलना में अनुकूल वातावरण में शीघ्रता से सीखता है।

नाटक सिनेमा में देखे गये दृश्यों का भला-बुरा प्रभाव दर्शक के ऊपर स्थायी रूप से पड़ता है। मन की प्रकृति निम्नगामी होने के कारण स्वभावतः मनुष्य अच्छी प्रेरणाओं को ग्रहण नहीं कर पाता। कुप्रभाव से निम्नगामी प्रवृत्तियाँ अपनाता है। बच्चे अधिक सम्वेदनशील होते है। उत्तेजक, अश्लील दृश्यों का प्रभाव तो उनके मानस पटल पर स्थायी रूप से पड़ जाता है। फलस्वरूप वे भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं।

वातावरण का बच्चों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव ने मनोवैज्ञानिकों का ध्यान धार्मिक संस्कारों की ओर आकर्षित किया है। ‘यूजेनिक्स’ के शोध में लगे वैज्ञानिकों ने विश्व भर में प्रचलित सभी धर्म सम्प्रदायों में किये जाने वाले संस्कारों पर गहन शोध करना आरम्भ किया है। हिन्दू धर्म के संस्कारों की शोध में लगे एक वैज्ञानिक का कहना है कि इन संस्कारों की पृष्ठभूमि मनोवैज्ञानिक सूझबूझ पर बनी है। जिसमें व्यक्तित्व के समग्र विकास की पूरी-पूरी सम्भावना है। संस्कार मात्र कर्मकाण्ड नहीं, आत्म निर्माण के सशक्त माध्यम हैं। इनका नये सिरे से अध्ययन एवं व्यापक स्तर पर प्रचलन किया जा सके तो व्यक्ति एवं समाज के नव-निर्माण की आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है।


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