भला यह भी कोई सिद्धि चमत्कार है

May 1973

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दर्शन का लक्ष्य है परम सत्य का ज्ञान प्राप्त करना धर्म का उद्देश्य है-आध्यात्मिक मूल्यों को भावनात्मक ढंग से स्वीकार करना। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दर्शन विचारात्मक प्रयास है, जबकि धर्म व्यावहारिक। दर्शन सन्देह, तर्क, प्रमाण के समस्त उपादानों के सहारे सत्य को तौलना चाहता है जबकि धर्म आस्था, विश्वास, श्रद्धा तथा भक्ति द्वारा हृदय को स्नेह से अभिसिंचित करना चाहता है। धर्म तर्क से परे जाना चाहता है। जबकि दर्शन में तर्क की पूरी गुंजाइश है। धर्म भावना से परिपुष्टि होता है जबकि दर्शन विचारों से। वस्तुतः दोनों एक दूसरे के पूरक है। धर्म को दर्शन की आवश्यकता इसलिए है कि भावना प्रवाह में अन्धविश्वास असत्य बातों का समावेश होना सम्भव है। उनका निराकरण दर्शन की विचारणा द्वारा ही हो सकता है। दर्शन को धर्म की आवश्यकता इसलिए है। कि वैचारिक उड़ान जब तक जीवन का अंग नहीं बन जाती तब तक वह उपयोगी नहीं हो सकती। दोनों के सम्मिलन से ही अध्यात्म का समग्र स्वरूप बनता परिपुष्ट होता है।

मानव बुद्धि सीमित होते हुए भी विराट् को विराट बता सकने में सक्षम है। विराटता का प्रतिपादन भी तो बुद्धि विराट् का अनुभव करती है। अगली भूमिका भावनाओं की होती है। वह उस अनन्त सत्ता से संपर्क जोड़ती है। दर्शन की-विचारों की उपयोगिता यहाँ मात्र इतनी है। कि कहीं भावनाएँ तुच्छ को ही तो महान् विराट् नहीं समझ बैठी है। सीमित-असीम का भेद वृद्धि ही कर पाती है। ईश्वर ने बुद्धि का वरदान भी मनुष्य को इसीलिए दिया है, जिससे वह सत्यासत्य का निर्धारण कर सके। पक्षी अनन्त आकाश में उड़ते हैं अनन्तता की अनुभूति उन्हें उड़ने के पश्चात ही होती है। बिना प्रयास के अनन्त मान लेने बात अनुभूति नहीं भावकुता होगी। सच तो यह है कि गहन अनुभूतियाँ गहरे ज्ञान के पश्चात ही होती तथा टिकाऊ रहती है।उसके बिना धर्म के स्वास्थ्य स्वरूप का दिग्दर्शन कर सकना असम्भव है। दर्शन बौद्धिक स्तर पर किया गया वह प्रयास है जो अनुभूति की पृष्ठभूमि बनाता है इसकी गहराई में पहुँचने वाला व्यक्ति ही सच्चा धार्मिक हो सकता है। दर्शन धर्म को माँजता, संवारता तथा उसमें उग रहे झाड़-झंखाड़ों को काटता छाँटता है।

धर्म के सिद्धान्तों, मान्यताओं में जहाँ पूरे विश्व में विषमतायें दिखायी पड़ती है। वहीं विज्ञान के सिद्धान्तों में सार्वभौमिकता देखने को मिलती है। वैज्ञानिक चाहे एशिया के हों अथवा यूरोप के, सबसे विचारों में एकरूपता है। उनके फार्मूले एक है, उनकी भाषा एक है, सिद्धान्त एक है। उनमें आपसी सहयोग भी है। यही कारण है कि विज्ञान का इतना विकास सम्भव हो सका जबकि चारों और धर्मों में विषमताएँ दिखायी पड़ती हैं।

धर्म को यदि अपने अस्तित्व की रक्षा करनी है तो उसे अपना स्वरूप ऐसा रखना होगा जो तर्क संगत, प्रामाणिक एवं उपयोगी हो। यह तथ्य धर्म की मूल सत्ता में आरम्भ से ही मौजूद है। दुराग्रहों ने उन्हें कुंठित किया था। तथ्य और सत्य जो जानना विज्ञान और दर्शन का उद्देश्य रहा है। फलतः वे फले-फूले और विश्व भर में अपनी एकरूपता बनाये रहे। धर्म को भी प्रगतिशील होना होगा इसके लिए एक ही उपाय है विज्ञान और दर्शन के सहारे अपने शाश्वत एवं उपयोगी स्वरूप का अभिनव प्रस्तुतीकरण।


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