चलते रहो-चलते रहो

July 1968

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ऐतरेय ब्राह्मण में इन्द्र और रोहिताश्व का एक प्रसंग आता है। उसमें इन्द्र रोहिताश्व को जीवन की सफलता का रहस्य बतलाते हुए कहते हैं-

“हे रोहित! जो पुरुष अपने आपको श्रम से थका नहीं डालता उसे लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती।”

“बैठे हुए मनुष्य को पाप दबा लेता है। मेरा स्नेह और मित्रता वही पाता है, जो निरन्तर चलता रहता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।”

“जो मनुष्य चलता है उसकी जंघाओं में फूल खिलते हैं। उसकी आत्मा भूषित होकर फल प्राप्त करती है। चलने वाले का पाप थक कर सो जाता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।”

“बैठे हुए का सौभाग्य बैठा रहता है, खड़े होने वाले का सौभाग्य खड़ा हो जाता है, और उठ कर चलने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।”

“सोने वाले का नाम कलि है, अंगड़ाई लेने वाला द्वापर है। उठकर खड़े होने वाला त्रेता है और चलने वाला कृत-युग है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।”

“चलता हुआ मनुष्य ही मधु पाता है। चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है। सूर्य का परिश्रम देखो, जो नित्य चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता। इसलिए चलते रहो।”

रोहित और इन्द्र के इस प्रसंग में गतिशीलता का महत्व बतलाया गया। गति जीवन का पर्यायी है। जो गतिशील है, वह जीवित है। जो स्थिर है वह मृतक ही माना जायेगा। जो जीवन में उन्नति, विकास और श्रेय का काँक्षी है, उसे निरन्तर गतिशील रहना चाहिये। आलस्य, प्रमाद अथवा अकर्मण्यता मनुष्य के सौभाग्य के शत्रु हैं।

इन्द्र ने जो उपदेश रोहित को दिया है उसकी विवेचना करने और भावार्थ पर विचार करने से यही पता चलता है कि मनुष्य का सारा सौभाग्य उसकी गतिशीलता पर ही निर्भर रहता है। इस गतिशीलता का अर्थ केवल चलते रहने से नहीं है। इसका तात्पर्य व्यापक है और इसके अंतर्गत सारे पुरुषार्थ, सारे उद्योग और सारे कर्तृत्व का भाव आ जाता है।

इन्द्र कहते हैं कि जो पुरुष अपने आपको श्रम से थका नहीं डालता उसे लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती। कितनी सरल और सार्थक बात है। यद्यपि संसार में चारों ओर श्री ओर श्रेय फैले पड़े हैं तथापि कहीं भी कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ पर इनका कोई भण्डार एक स्थान पर रखा हो, जिससे मनुष्य जब चाहे जाकर अपनी वाँछित लक्ष्मी अथवा श्रेय उठालाये। श्री और श्रेय पसीने के मूल्य पर परिश्रम के उपलक्ष में मिलते हैं। वह भी केवल साधारण परिश्रम के बल पर नहीं। उसके लिये अपने को परिश्रम से थका डालना पड़ेगा।

रोहित एक राजकुमार था। उसके पिता के राजकोष में अपरिमित लक्ष्मी थी, जिसका वह अधिकारी था। तब इन्द्र को उसे इतने कड़े श्रम का उपदेश देने की क्या आवश्यकता पड़ गई? यह विचारणीय बात है। बात यह है कि इन्द्र यह जानते थे कि जो अपनी पैतृकता अथवा किसी संयोग से पाई लक्ष्मी पर निर्भर हो जाता है, वह आलसी और अकर्मण्य बन जाता है। यहाँ पर महात्मा इन्द्र ने रोहित को धनवान बनने और जीविका चलाने के लिए श्रम का उपदेश नहीं दिया है। यहाँ पर रोहित को उस पुरुषार्थ का उपदेश दिया गया है, जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिक उन्नति से है।

आध्यात्मिक क्षेत्र की सफलता अखण्ड-पुरुषार्थ और कठोर कर्मण्यता पर निर्भर है। उसमें जिन साधनों, नियमों और संयमों का पालन अपेक्षित है वह किसी आलसी के वश की बात नहीं होती है। उनका निर्वाह तो कठिन परिश्रम और स्वावलम्बन पर निर्भतर व्यक्ति ही कर सकता है। आध्यात्मिक पुरुषार्थ का अभ्यास भी भौतिक पुरुषार्थ के स्त्रोत से ही निकलता है। जो अपने दैनिक जीवन में पुरुषार्थ और परिश्रम नहीं कर सकता, उसका अध्यात्म क्षेत्र में पुरुषार्थी बन सकना सम्भव नहीं।

साथ ही रोहित के माध्यम से पुरुषार्थ एवं परिश्रम का यह उपदेश समाज को भी दिया गया है। इन्द्र का स्पष्ट उपदेश है कि यदि किसी को रोहित की तरह धन सम्पत्ति अनायास भी मिल जाय तब भी उसे श्री एवं श्रेय प्राप्त करने के लिए कड़ा परिश्रम करना ही चाहिये। क्योंकि आत्म-अर्जित श्री में जो सौंदर्य एवं संतोष होता है, वह अनायास प्राप्त हो गये में नहीं। फिर जो सम्पत्ति किसी को यों ही मिल गई है, वह पता नहीं किन संस्कारों से दूषित अथवा भूषित है और उसका प्रभाव अपने संस्कारों पर क्या पड़े? आत्म-अर्जित श्री में ऐसा संशय नहीं होता। वहाँ विश्वास ही होता है और जीवन पर अनुकूल प्रभाव ही डालती है। यह नितान्त आवश्यक है। क्योंकि अर्थ के पुरुषार्थ के बाद मोक्ष के पुरुषार्थ की ओर भी तो जाना होता है।

इन्द्र ने दूसरी बात कही है- “बैठे हुए मनुष्य को पाप दबा लेता है। मेरा स्नेह और मित्रता वही पाता है, जो निरन्तर चलता रहता है। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।” इसमें श्रम के सम्बन्ध में एक मनोवैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन किया गया है। “बैठे हुए मनुष्यों को पाप दबा लेता है।” अर्थात् जो कुछ करता नहीं, आलस्य और प्रमाद में पड़ा रहता है, उसका मानसिक पतन हो जाता है। खाली मस्तिष्क शैतान का घर कहा गया है। जब मनुष्य किसी काम में व्यस्त रहता है, तब उसका शरीर ही नहीं मन और मस्तिष्क भी उसी में संलग्न रहते हैं। काम के सम्बन्ध में ही विचार आते हैं और काम में ही अभिरुचि रहती है।

बेकार के विचार और बेकार की कल्पनाओं से वह मुक्त रहता है। लेकिन जब मनुष्य खाली रहता है, तो उसका मन मस्तिष्क भी खाली रहता है। लेकिन वे निष्क्रिय कभी नहीं होते। काम के अभाव में भी वे सक्रिय रहते हैं। ऐसी स्थिति में कुविचार आ आकर मन मस्तिष्क में जमा होते रहते हैं। इधर शरीर के कुछ न करने से इन्द्रियाँ आजाद होती हैं। उन पर जब किसी काम का भार नहीं होता तो वे विषयों की ओर भागने लगती हैं। इस प्रकार एक जैसी स्थिति में होने से इन्द्रियों और मन-मस्तिष्क के बीच संधि हो जाती है और तीनों मिल कर मनुष्य को पापों की ओर खींच ले जाते हैं। अस्तु अकर्मण्य का पापी हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं।

इन्द्र आगे कहते हैं, मेरा स्नेह और मित्रता उन्हें ही मिलती है, जो निरन्तर चलते रहते हैं अर्थात् सक्रिय रहते हैं- कुछ काम करते रहते हैं। इन्द्र देवता हैं- जो स्वयं शहादत देते हैं कि मेरी अर्थात् देवों की कृपा उन्हें ही मिलती है, जो निरन्तर कर्मशील रहते हैं। अर्थात् देवता उनसे ही प्रसन्न होते हैं, जो निरन्तर काम करते रहते हैं। पहल बात तो यह है कि श्रमशील और परिश्रमी से सभी स्वभावतः प्रसन्न रहते हैं। फिर कर्मठ व्यक्ति पापात्मा नहीं होता। पाप रहित व्यक्ति से देवता प्रसन्न होने के लिए विवश हैं। उन्हें अनिवार्य रूप से प्रसन्न होना ही होता है।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध आदि जितने भी मूल और तद्जन्य पाप होते हैं, मनुष्य कार्यकाल में बिल्कुल भूला रहता है। इन्हीं को क्यों, सच्चा कार्यकर्ता तो काम में अपने तक को भूल जाता है। ऐसी निर्विकल्प समाधि की स्थिति में पापों के आने का कोई प्रश्न ही नहीं होता। सच्चा कर्मयोगी वास्तव में एक योगी होता है। देवताओं का उसका मित्र होना स्वाभाविक है। अस्तु निर्देश दिया गया है कि निरन्तर चलते रहो- सदैव कार्य में व्यस्त रहो बेकार मत बैठो।

इन्द्र ने आगे कहा है- “जो चलता है उसकी जंघाओं में फूल खिलते हैं, आत्मा विभूषित होकर फल लाती है।” सुन्दरता और प्रसन्नता श्रम के प्रतीक हैं। यह दोनों विशेषतायें श्रम के अधीन हैं। श्रम करने से स्वास्थ्य मिलता है और स्वस्थ मनुष्य ही प्रसन्न रह सकता है और सच्चा सौंदर्य भी स्वास्थ्य ही होता है। श्रम करने से रक्त तपता है, उसकी जीवन-शक्ति बढ़ती है, जो शरीर के सारे रोगों के कीटाणुओं को मार देती है। श्रम करने से जो पसीना बहता है, वह वास्तव में शरीर का विष और विकार ही होता है, जो वह बह कर बाहर हो जाता है। श्रम करने से क्षुधा तीव्र होती है, भोजन पूरी तरह अनुकूलता के साथ पचता है। गहरी निद्रा आती है। अवयव स्वस्थ और सुदृढ़ बनते हैं। इससे अधिक आरोग्य तथा स्वास्थ्य के लिए कुछ और नहीं चाहिये।

जंघाएं आधार अथवा नींव की प्रतीक हैं। मनुष्य जीवन का आधार श्रम के सिवाय और कुछ नहीं। श्रम से ही धन मिलता है। श्रम से ही अन्न और वस्त्र। श्रम से ही विद्या मिलती है और श्रम से ही सम्मान। जिसके जीवन का आधार ही खोखला होगा, वह कितने दिन खड़ा रह सकता है। हवा का एक झोंका ही उसे गिरा देगा। जीवन की स्तम्भता श्रम पर ही निर्भर है इसीलिये निरन्तर चलते रहने अर्थात् सक्रिय रहने को कहा गया है।

“चलते रहने वाले की आत्मा विभूषित होकर फल लाती है” -इसका तात्पर्य इस सिद्धान्त वाक्य की ओर संकेत करता है कि- स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा का निवास होता है। जब शरीर और मन मस्तिष्क स्वस्थ होंगे तो आत्मा का स्वस्थ होना स्वाभाविक है। जिसकी आत्मा स्वस्थ एवं पुष्ट होती है, उसे ही आध्यात्मिक लाभ होता है। स्वस्थ आत्मा वाला व्यक्ति ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्टय का सम्पादन करने में समर्थ हो सकता है। विभूषित अथवा जागरूक आत्मा वाला वैसा किये बिना रह ही नहीं सकता और जब वह पुरुषार्थ करेगा, परमार्थ पथ पर चलेगा, तो परम फलों को पायेगा ही, इसमें सन्देह नहीं। इसलिए निरंतर चलते रहने, पुरुषार्थ करते रहने का उपदेश किया गया है।

फिर कहा है- “बैठे, उठे और चलने वाले का सौभाग्य क्रम से बैठा रहता है, खड़ा हो जाता है और चल पड़ता है- मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। सौभाग्य क्या है? कर्म फलों का उदय उनका भोग। कर्म कौन करता है? मनुष्य। अस्तु भाग्य का निर्माता स्वयं मनुष्य को ही माना जायेगा। जो बैठा है अर्थात् अकर्मण्य बना हुआ है, उसकी सौभाग्य लिपि किस प्रकार निर्मित हो सकती है। हाँ जो उठ पड़ा है अथवा कर्म करने को उद्यत हो गया है, उसकी भाग्य लिपि की तैयारी विधाता के घर होने लगती है। और जब इधर मनुष्य चल पड़ता है अर्थात् पुरुषार्थ करने लगता है तो उधर दैवी लेखक की लेखनी भी चलने लगती है और भाग्य लिपि तैयार होने लगती है। इसलिये बैठने का निषेध कर, चलने का आदेश दिया गया है।

अन्त में सोने, अंगड़ाई लेने, खड़े होने और चलने वाले को क्रम से कलियुग, द्वापर, त्रेता और कृतयुग अर्थात् सतयुग बतलाया गया है। युग और कुछ नहीं व्यक्ति, समाज, राष्ट्र अथवा संसार की परिस्थिति दशाओं का ही नाम है। जो सोता रहता है अथवा जब जहाँ सुषुप्ति होती है वहाँ अचेतनता और अन्धकार होता है, वहाँ पाप, ताप और परिताप से भरा कलियुग रहता है। जब जिस समय लोग जाग कर चेतना में आने लगते हैं, कलि का स्थान द्वापर अर्थात् सुन्दर समय आने लगता है। जब जिस समय लोग उठ कर खड़े हो जाते हैं, अर्थात् पुरुषार्थ के लिए उद्यत होते हैं उसकी तैयारी करते हैं तो त्रेता अर्थात् सुन्दर समय आ जाता है। और जब लोग पूरी तरह से चलने लगते हैं अर्थात् अपने कर्तव्यों में संलग्न हो जाते हैं तो सुंदरतम समय अर्थात् सतयुग आ जाता है। कर्तव्यों की महिमा के कारण ही सतयुग को कृतयुग भी कहा जाता है।

इन्द्र के इस सब कथन का साराँश यही है कि यदि सुख-शाँति, उन्नति और अभ्युदय चाहता है, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के फल चाहता है तो उसे निरन्तर अनुकूल श्रम करते ही रहना चाहिये। इसके सिवाय सफलता तथा सार्थकता का कोई और उपाय नहीं है।


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