आत्मिक प्रगति सद्ज्ञान पर निर्भर

July 1968

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संसार में अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग पाये जाते हैं, पर इससे यह नहीं माना जा सकता कि ईश्वर अच्छे और बुरे दोनों तरह के व्यक्तियों को पैदा ही करता है। ईश्वर की सृष्टि में जो भी व्यक्ति उत्पन्न करता है उन सबको एक जैसा ही उत्पन्न करता है। आगे चल कर वे अपने ज्ञान-अज्ञान के कारण ही अच्छे-बुरे बन जाते हैं। जो ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, वे अच्छे बन जाते हैं और जो अज्ञान में ही पड़े रहते हैं, उनका बुरा होना स्वाभाविक ही है।

बुरे व्यक्तियों के जीवन में पैठ कर यदि उनकी बुराई का स्त्रोत खोजा जाये तो पता चलेगा कि वह जो कुछ अपकर्म करता है, उसका मुख्य कारण उसका अज्ञान ही है। ज्ञान के अभाव में वह जीवन-गति की सही दिशा को न तो पहचान पाता है और न उसका निर्माण कर पाता है। कर भी कैसे पाये। जो काम ज्ञान का है वह अज्ञान द्वारा सम्पादित भी कैसे हो सकता है? धन, पद और प्रतिष्ठा पाकर ही यदि कोई समझ बैठे कि वह जीवन की ठीक दिशा में चल कर आया है और ठीक ही दिशा में चलता जा रहा है तो भी ठीक न होगा।

धन, वैभव और पद प्रतिष्ठा व्यक्ति कि अच्छाई का प्रमाण नहीं है। इन विभूतियों के स्वामी बहुधा स्वार्थी, क्रूर और कठोर देखे जा सकते हैं। उनके द्वारा लोगों को सुख मिलने के स्थान पर कष्ट और क्लेश ही अधिक मिलता है। यह तो अच्छाई के लक्षण नहीं हैं। अच्छाई के लक्षण तो हैं, सेवा, सहायता, सहयोग, सहानुभूति, प्रेम और उदारता आदि। जिस व्यक्ति में यह गुण हैं उसे अच्छा ही कहना होगा फिर चाहे उसके पास धन वैभव और पद प्रतिष्ठा हो या न हो।

अच्छाई के द्योतक ये मानवीय गुण ज्ञान के आधार पर ही मिल सकते हैं। गुणों को जन्मजात उपलब्धि मानना स्वयं में एक अज्ञान है। संसार के सारे बालक समान मनोभूमि लेकर पैदा होते हैं। उनमें से बहुत से अपने गुण कर्म और स्वभाव के अनुसार आदर्श पुरुष बन कर संसार में आदरणीय बन जाते हैं, और बहुत से नीच, निकृष्ट और अपराधी बन कर समाज में त्रास के कारण बनते हैं। इस विषय का कारण इसके सिवाय और कुछ नहीं होता कि आगे चल कर आदर्श व्यक्ति बनने वाले बालकों को अवश्य ही ऐसा संग, वायु-मंडल और बुद्धि मिल गई होती है, जिससे उन्हें गुण विकासक ज्ञान की प्राप्ति हो गई होती है और निश्चय ही वे बालक जो समाज में त्रास का कारण बन जाते हैं, प्रतिकूलताओं से घिरे रह कर अज्ञान के शिकार बन गये होते हैं। मानवीय गुणों का विकास न होने से वे समाज विरोधी बन जाते हैं। इसलिये अच्छाई या बुराई को व्यक्ति की जन्मजात उपलब्धि न मान कर ज्ञान, अज्ञान का परिणाम ही मानना होगा।

ज्ञान व्यक्ति को शीलवान शिष्ट और विनम्र बनाता है। इन गुणों का परिणाम समाज में आदर, सम्मान और सहयोग के बिना कुछ हो ही नहीं सकता। जो समाज में इस प्रकार की स्थिति पा लेता है, उसे आत्म-विकास में बड़ी सुविधा रहती है। यही आत्म-विकास परमानन्द की ओर आने वाला आध्यात्मिक मार्ग है। अज्ञान का दोष मनुष्य को दुराचारी, उद्दंड और अविनयी बना देता है। ऐसा व्यक्ति समाज में अपने लिये असम्मान और असहयोग ही उत्पन्न कर लेता है। इस विरोध के कारण उसका मन-मस्तिष्क अशान्त बना रहता है और वह आत्म-विकास की ओर न बढ़ पाने से अपने ध्येय से भ्रष्ट हो जाता है। उसका वह मानव-जीवन जिसमें वह आत्मा को पा सकता था, परमात्मा को पहचान सकता था और परमानन्द प्राप्ति की दिशा में बढ़ सकता था व्यर्थ चला जाता है। वह दिन दिन प्रपंच में फँसता चला जाता है।

ज्ञान की महिमा अपार है। ज्ञान की कृपा से एक सामान्य व्यक्ति बढ़ कर महापुरुष बन जाता है। संसार में जितने भी महापुरुष और प्रतिभा प्रधान व्यक्ति हुए हैं, सब ज्ञान के आधार पर ही उस उच्च-स्तर पर पहुँचे हैं। भगवान राम, कृष्ण, गौतम बुद्ध, ईसा, और सुकरात आदि जो भी युग प्रवर्तक महात्मा और महापुरुष हुए हैं, वे सब ज्ञान का विकास करके ही वैसे बन सके हैं। यदि ध्यान में निष्पक्ष होकर देखा जाय तो पता चलेगा कि प्रारम्भ में वे सब भी सामान्य मनुष्यों की तरह ही थे। पर बाद में उन्होंने ज्ञान के लिए पुरुषार्थ किया, उसे पाया और उसके आधार पर लोक-रंजन के कार्य कर आदर्श पदवी पर पहुँचे।

जो व्यक्ति अपने जीवन को सफल एवं सार्थक बनाना चाहता है, उसे ज्ञानार्जन के लिए पुरुषार्थ करना ही होगा। जीवन सार्थक तब ही हो सकता है, जब उसकी गति उसकी दिशा और उसका पथ उपयुक्त हो। इसका निर्धारण सिवाय ज्ञान के और किसी प्रकार हो ही नहीं सकता। जो लोग यह सोच कर कि जीवन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, उसकी गति स्वतः निर्धारित है या होती है, प्रवृत्तियों की प्रेरणा से जब जिधर चाहा चलते रहते हैं वे कदापि किसी सार्थक लक्ष्य पर नहीं पहुँच सकते। उनका सारा जीवन धरातल प्रेरित पानी की तरह यों ही निर्लक्ष्य बहता हुआ नष्ट हो जाता है। किन्तु जिस पानी को एक सुनियोजित गति दे दी जाती है वह उपकारी नहर अथवा विद्युतदायक बाँध बन जाता है। इसी प्रकार नियोजन पाया मानव-जीवन भी उपकारी बन कर सार्थक हो जाता है, और अपने किसी ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।

मानव जीवन की सफलता एवं सार्थकता का एकमात्र मार्ग सन्मार्ग ही है। ज्ञान द्वारा ही सन्मार्ग का निर्धारण होता है और ज्ञान के सम्बल पर ही आजीवन उस पर चल सकना सम्भव हो सकता है। सन्मार्ग का पता तो एक बार किसी ज्ञानी से भी विदित किया जा सकता है। किन्तु उस पर चल सकना अपने ज्ञान के आधार पर ही सम्भव हो सकता है। दूसरे का ज्ञान किसी दूसरे को सन्मार्ग बता तो सकता है पर उस पर चला नहीं सकता है।

मनुष्य के दोनों जीवन भौतिक और आत्मिक ज्ञान के आधार पर ही सफल बनते हैं। भौतिक जीवन में जिस साधन सुविधा की मुख्यता होती है, वह योंही तो मिल नहीं जाती। उसके लिये भी उपाय करना होता है। अब वह उपाय चाहे विद्या हो, चाहे व्यापार हो और चाहे उद्योग हो, बिना ज्ञान के नहीं किया जा सकता। अज्ञानी की संसार में कोई गति नहीं है। उसे अन्धकार में भटकते और ठोकरें खाते रहने के सिवाय और कुछ नहीं मिलता। जिस प्रकार साधन, सुविधाओं को पाने का आधार ज्ञान है, उस प्रकार उनके उपयोग के लिये भी ज्ञान की आवश्यकता है।

साधन सुविधा और वैभव विभूति की तो प्राप्ति हो जाय लेकिन उसके उपयोग के विषय में अज्ञानी ही रहा जाय तो इसका परिणाम प्रतिकूल ही होगा। अज्ञान प्रेरित साधनों का उपयोग मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है। ज्ञान के अभाव में साधन सम्बल युक्त व्यक्ति बहुधा कुमार्गगामी हो जाते हैं। अपना नाश करने के साथ-साथ दूसरों के लिए भी असुविधाजनक बन जाते हैं।

आत्मा का क्षेत्र तो विशुद्ध रूप से ज्ञान का ही क्षेत्र है। वहाँ अज्ञान के एक बिन्दु की भी गुजर नहीं। आत्मा का विकास गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता पर निर्भर है। जिसने दया, क्षमा, प्रेम और सहानुभूति के गुण विकसित कर लिये हैं, जिसने परोपकार और परमार्थ ही अपने कर्मों का आधार बना लिया है और जिसने स्वभाव को काम, क्रोध, मद, लोभ आदि दोषों से मुक्त कर लिया है, आत्मा का क्षेत्र उसके लिए ही खुलता है। किन्तु गुण, कर्म, स्वभाव का निर्माण जिस तत्व के आधार पर होता है, उसका नाम ज्ञान ही है।

इस विषय में ज्ञान एक शक्ति, एक सम्बल और एक साधन है। जब तक यह न जाना जाये कि मानवीय गुण क्या है, उनका स्वरूप और प्रवर्तक क्या है, उनको किस प्रकार कहाँ से पाया जा सकता है, तब तक उनकी उपलब्धि सम्भव नहीं। इसी प्रकार जब तक यह ज्ञान न हो कि परोपकार क्या है, परमार्थ किसे कहते हैं और उनका स्वरूप कितने प्रकार का होता है तब तक उसे कर्मों में मूर्तिमान कर सकना सम्भव नहीं। स्वभाव के दोष क्या हैं, वे क्यों और किन परिस्थितियों में उठते और शमन होते हैं? उनसे क्या क्या हानि हैं और उनके निष्कासन से क्या-क्या लाभ हो सकते हैं, जब तक की इसका निर्णय न कर लिया जाय, तब तक अनुकूल स्वभाव का निर्माण किस प्रकार किया जा सकता है। यह सब क्षमता एकमात्र ज्ञान से ही प्राप्त हो सकती है, किसी अन्य उपाय से नहीं।

लौकिक और आत्मिक जीवन की सफलता के लिये इतने बड़े साधन ज्ञान को पाया किस प्रकार से जा सकता है? अन्य उपलब्धियों की तरह ज्ञान भी एक ऐसी उपलब्धि है, जिसे पाने के लिए प्रयास करना होता है। ज्ञान प्राप्ति के प्रयास की अनेक शाखाएं हैं। जैसे सत्संग, स्वाध्याय, चिन्तन, मनन और अनुभव। जिज्ञासा लेकर ज्ञानी पुरुषों के पास जाया जाय और उनसे सत्संग प्रदान करने की प्रार्थना की जाय। वे जो कुछ कहें अथवा बतलायें वह ध्यान से सुना जाये और विश्वासपूर्वक उसे न केवल हृदयंगम किया जाये बल्कि उस पर यथोचित आचरण भी किया जाये। उन व्यक्तियों के लिए जिन्हें शिक्षा का अवसर नहीं मिला है, सत्संग ही एक उपाय है। जिससे ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।

जो शिक्षित हैं, जिन्होंने विद्या प्राप्त की है, जिनके लिये स्वाध्याय की सुविधा है, उनको कहीं किसी के पास जाने की आवश्यकता नहीं है। वे अपने घर पर ही पुस्तकों और अपनी शिक्षा की सहायता से ज्ञान प्राप्त करने का पुरुषार्थ कर सकते हैं। किन्तु स्वाध्याय और पठन में एक बड़ा अन्तर होता है। पठन तो केवल उस पढ़ने को कहते हैं, जो सरसरी दृष्टि से मनोरंजन के लिये कोई पुस्तक पढ़ी जाती है। स्वाध्याय एक पुरुषार्थ है। उसे करते समय चित्त की सारी वृत्तियाँ एकाग्र कर विषय पर ही केन्द्रित करनी पड़ती है। एक-एक अक्षर, एक-एक वाक्य और एक-एक प्रकरण ध्यान से ग्रहण करते हुए पढ़ना पड़ता है। इसके अतिरिक्त जब जितना भी पढ़ा होता है उस पर तब तक चिन्तन और मनन करना पड़ता है, जब तक वह पूरी तरह बुद्धिसात् न हो जाय। इस प्रकार बुद्धिसात् हुआ विषय जब आचरण में उतर आता है, तभी वह सच्चा ज्ञान बनता है। ऐसे परिपक्व ज्ञान में कितना आनन्द और कितनी शक्ति होती है इसे स्वाध्यायवान ही जान सकते हैं।

स्वाध्याय के लिए निर्वाचित विषय ऊंचा आदर्श और पुनीत होना आवश्यक है। ओछे और निम्नकोटि का साहित्य स्वाध्यायी को भी अपने समान ही बना लेता है। स्वाध्याय के लिए धार्मिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक, साहित्य जो किन्हीं प्रामाणिक व्यक्तियों द्वारा ही प्रणयन किया गया हो उचित होता है। निरर्थक, निस्सार और अनुपयोगी साहित्य पढ़ने वाला एक बार किन्हीं विषयों का विद्वान भले हो जाये किन्तु ज्ञानी नहीं हो सकता। बहुत कुछ जानते हुए भी उसकी जीवन-गति एक सीमित परिधि में ही चक्कर लगाती रहेगी।

ज्ञान प्राप्ति का एक उपाय अनुभव भी है। साँसारिक चेष्टाओं को ध्यानपूर्वक देखा और समझा जाये। दूसरे व्यक्तियों के गुण, कर्म, स्वभाव का परिचय पाकर उनके व्यवहार का परिणाम देखा समझा जाये और उससे शिक्षा प्राप्त की जाय। बुरे काम करने वाले किसी व्यक्ति को यदि हम पतन और परिताप के गढ़े में गिरते देखें तो विश्वास कर लेना चाहिये कि वह मार्ग जिस पर अमुक व्यक्ति चल रहा था चलने योग्य नहीं है। इसी प्रकार जब सत्कर्म करने वालों को सुख-शान्ति, संतोष और सम्मान का अधिकारी बनते देखें तो मान लेना चाहिये कि यही मार्ग हमारे चलने योग्य है।

इसी प्रकार मनुष्य अपने रहन-सहन, आचार, व्यवहार और गुण-कर्मों के परिणाम को देख भी शिक्षा ले सकता है। अपना सुधार कर अपने को ठीक मार्ग पर चला कर ठीक लक्ष्य पर पहुँच सकता है। तात्पर्य यह कि सत्संग, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन और अनुभव के आधार पर व्यक्ति को सद्ज्ञान प्राप्त करने का निरन्तर प्रयास करते ही रहना चाहिये।

बिना ज्ञान के न तो जीवन सफल होता है और न सार्थक। अज्ञानावस्था में भौतिक और आत्मिक दोनों जीवनों का नाश हो जाता है। इसलिये इस अंधकार से निकल कर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर बढ़ते ही रहना चाहिये। इसमें प्रमाद अथवा आलस्य करने का अर्थ है अपने सुर दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर देना, जिसमें भौतिक उन्नति तो की ही जा सकती है, आत्म-प्रकाश भी पाया जा सकता है।


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