पिछले और आगामी शिविर

July 1968

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जून के दोनों शिविर बड़ी सफलता के साथ सम्पन्न हुए। गायत्री तपोभूमि में जितने लोगों के लिए ठहरने लायक स्थान है, उससे कहीं अधिक प्रथम शिविर में बाधक आये। दूसरे में तो वह संख्या दूनी हो गई। दो-ढाई सौ के स्थान में पाँच सौ को ठहरना पड़ा। स्वीकृति का प्रतिबंध लगाते हुए भी, स्वजनों की भावना उमड़ती चली गई और संख्या इतनी अधिक हो गई कि निवास, स्नान, प्रवचन आदि के अवसरों पर बुरी तरह ठूँस-ठाँस करके काम चलाना पड़ा। तपोभूमि के जीवनकाल में अब तक जितने शिविर हुए हैं, उनकी तुलना में यह इस वर्ष के शिविर सबसे बड़े थे।

यों गायत्री तपोभूमि में रहकर 24 हजार का छोटा अनुष्ठान कर लेना भी- अपने घर रह कर 24 लाख का बड़ा अनुष्ठान करने के समान प्रभावशाली सिद्ध होता रहा है। कारण कि इस भूमि को सिद्ध पीठ जैसी संस्कारवान बनाने के लिए प्रत्येक सम्भव प्रयत्न किया गया है। यह भूमि महर्षि अंगिरा की तपस्या-स्थली रही है। यज्ञशाला में निरन्तर प्रज्वलित रहने वाली यज्ञाग्नि का अपना महत्व है। 24 तीर्थों का जल, रज, 1125 करोड़ हस्तलिखित गायत्री मंत्र, प्रतिदिन का यज्ञ, अखण्ड जप, नवरात्रियों में 24 लक्ष से भी अधिक का सामूहिक पुरश्चरण आदि प्रक्रिया अपना महत्व रखती हैं। 108 कुण्डों के यज्ञ और 24 दिन के गंगा जल उपवास पर इस भूमि का परिष्कार किया गया था। आध्यात्मिक सफलता के लिए ऐसे ही स्थान तलाश करने पड़ते हैं। इन्हें ‘सिद्ध-पीठ’ कहते हैं। ऐसे स्थानों पर की गई उपासना निश्चित रूप से अधिक सफल एवं प्रभावी परिणाम उत्पन्न करने वाली सिद्ध होती है।

गायत्री तपोभूमि में रहकर उपासना करने का लाभ अब तक लाखों व्यक्ति उठा चुके हैं। यहाँ के वायु मंडल में वह संस्कार हैं, जिनके कारण साधक की आत्मा सहज ही खिल पड़ती है और वह आनन्द मिलता है, जो घर या अन्य स्थान पर सम्भव नहीं। यही कारण है कि जब भी अवसर मिलता है, निष्ठावान उपासक अपनी साधना करने के लिए यहाँ दौड़े आते हैं। विशेष अवसरों पर होते रहने वाले शिविरों के इसके अतिरिक्त लाभ भी हैं। इन दिनों दोनों समय डेढ़-डेढ़ घण्टे के दो प्रवचन गायत्री महाशक्ति का रहस्य, विवेचन, दर्शन, तत्वज्ञान, अभ्यास, कर्मकाण्ड, अनुभव आदि समझाने के लिए उस व्यक्ति के होते रहते हैं, जो इस मार्ग पर काफी दूरी तक सारे जीवन भर चलता रहा है और जिसने ज्ञान एवं अभ्यास की दृष्टि से कुछ कहने लायक मर्म एकत्रित किये हैं। यह प्रशिक्षण अनुपम हैं। शिविरों में आने वाले इस अलभ्य लाभ से भी लाभान्वित होते हैं। और 9 दिन में किये जाने वाले छोटे अनुष्ठान स्वर्ण सुगन्ध की तरह दुहरे आनन्द, उल्लास से भर जाते हैं।

इन विशेषताओं के कारण गायत्री जयन्ती, विजय दशमी जैसे पर्वों में आयोजित शिविरों में सदा से ही अनेकों साधक गायत्री तपोभूमि में आते रहते हैं। वे जानते हैं कि अपने कुलपति के विचारों का लाभ तो पत्रिकाओं, पुस्तकों एवं पत्रों से प्राप्त किया जा सकता है, पर प्राणों के प्रभाव का लाभ मिल सकना समीपता से ही सम्भव है। ऋषियों के आश्रमों में सिंह और गाय एक घाट पर पानी पीते और साथ-साथ रहते थे पर वहाँ से चले जाने पर उनमें वह बात नहीं रहती। कारण एक ही है कि विशिष्ट आत्माओं का प्राण प्रवाह एक सीमित क्षेम में ही काम करता है, उससे लाभ उठाने के लिए सान्निध्य की समीपता की आवश्यकता पड़ती है।

सत्संग का लाभ इसी दृष्टि से है। यों मोटे तौर पर अध्यात्म के सिद्धान्तों को हर कोई जानता है, सत्संग प्रवचनों में भी उन्हीं सिद्धान्तों की व्याख्या विवेचना होती है। किन्तु किसी प्राणवान की समीपता आशाजनक प्रभाव परिणाम उत्पन्न कर देती है, इसका कारण और कुछ नहीं, केवल इतना ही है कि जहाँ प्राण प्रवाह बहता है, वहाँ उसकी समीपता से वैसा ही लाभ होता है जैसा शीतल झरने के पास जाकर प्यास बुझाने और स्नान करके थकान उतारने का। चूँकि गायत्री तपोभूमि के शिविरों में यह लाभ चिर-काल से मिलते चले आ रहे हैं, इसलिये उसका परिचय सभी को है। अतएव साधना करने के लिए यहाँ आने के लिए जब भी अवसर मिलता है, निष्ठावान लोग यहाँ आने का अवसर निकालते रहते हैं।

इन दिनों के शिविरों में अधिक संख्या में लोग आने लगे हैं, इसका एक कारण यह भी है कि अब हमारे प्रस्थान करने में केवल तीन वर्ष का समय शेष रह गया है। स्वजनों से मिलने की अपनी भी तीव्र अभिलाषा रहती है। कोई बूढ़ा करने को होता है तो अपने कुटुम्ब, परिवार के लोगों को देखने, मिलने की उसकी कामना प्रबल हो जाती है। वैसा ही कुछ-कुछ अपना भी मन हो गया है। न जाने क्यों अपने आत्मीय परिजनों से मिलने की उनसे अपने जी की बात कहने और उनकी सुनने की अभिलाषा बनी रहती है। यह हमारी अभिलाषा भी परिजनों के पास पहुँचे बिना नहीं रहती, बेतार के तार द्वारा वह निर्दिष्ट अन्तःकरणों तक जा पहुँचती है और वहाँ हलचल मचाती है। कितने परिजन इसी खिचाव से खिंचते चले आते हैं। कितनेक स्वयं भी इतने भावुक एवं सहृदय होते हैं कि जिस व्यक्ति को अपने पिता तुल्य माना, असीम प्यार और सहयोग पाया उसके पास कुछ सम मिल बैठने से उनका भी अंतस् उमड़ता है और अन्तःकरण का उमड़ना हर कठिनाई को सरल एवं हर प्रक्रिया को सम्भव बना देता है। परिस्थितियां अनुकूल न होने पर भी लोग मथुरा आने की बात सोचते हैं और यह सोचना उसकी व्यवस्था भी बना देता है।

गायत्री परिवार बहुत बड़ा है। उसके लाखों सदस्य हैं। प्रमुख सदस्य प्रायः शिविरों में आते रहते हैं। इसलिए उनका परस्पर मिलना भी हो जाता है। अपने विशाल परिवार को देखकर किसे आनन्द, उल्लास का अनुभव न होगा? परिजनों का यह पारस्परिक स्नेह-मिलन अपने ढंग का अनोखा हर्षोल्लास है। जिसके कारण एक ही छोटी कोठरी में अपरिचित लोगों को भी ठूँस-ठूँस कर भेड़-बकरियों की तरह भर देने पर भी अगणित असुविधाओं के बीच भी- ऐसा अनुभव होता है, मानो स्वर्गीय सुख मिल रहा है। एक कुटुम्ब के- न एक भावना के- यह आदर्श के परिजन परस्पर कितने अधिक निकट सम्बन्धी हो सकते हैं और पारस्परिक मिलन का कितना अधिक आनन्द उठा सकते हैं, इसका अनुभव इन शिविरों में होता है।

गायत्री अनुष्ठान जीवन की गहन गुत्थियों को सुलझाने वाले प्रवचन, पारस्परिक मिलन ही नहीं। इन शिविरों का एक अतिरिक्त लाभ हैं- उपयुक्त प्रकाश एवं परामर्श की उपलब्धि। हर व्यक्ति के सामने कुछ समस्यायें, उलझनें, चिन्तायें एवं कठिनाइयाँ होती हैं। वह उनका हल समाधान ढूंढ़ना चाहता है। इस कार्य में उसे किसी उपयुक्त मार्गदर्शक के परामर्श और सामर्थ्यवान के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। यदि यह दोनों बातें मिल जायें तो तीन चौथाई कठिनाई हल हो जाती हैं। सुलझा हुआ जीवन ही शाँतिपूर्वक प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है।

इसलिये प्रस्तुत समस्याओं के सुलझाने में अभीष्ट सहायता मिल सके तो हर व्यक्ति के लिए यह एक बहुत बड़ी बात होती है। कहना न होगा कि ऐसे लाभ इन शिविरों में आने वाले हर व्यक्ति को मिलते हैं और प्रत्येक को अपना काफी भार हल्का हुआ अनुभव करने का अवसर मिलता है।

यह शिविर क्रम बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। दो-चार दिन के सभा, सम्मेलन, व्याख्यान, प्रवचन एकाँगी सिद्ध होते हैं। कुछ लोग कहते और कुछ सुनते रहते हैं। इससे मनोरंजन मात्र होता है। मिलजुल कर पारस्परिक विचार विनियम किये बिना मनुष्यों की भिन्न मनोभूमि, स्थिति एवं उलझनों को उपयुक्त समाधान नहीं मिल सकता, इस तथ्य को अनुभव कर लेने पर बड़े सम्मेलन बुलाने की अपेक्षा तपोभूमि में चिरकाल से शिविरों की प्रक्रिया आरम्भ की गई है। थोड़े व्यक्ति आवें- 9 दिन रहें तो काम की बात बहुत हो जाती हैं। इस दृष्टि से यह शिविर बहुत ही उपयोगी, कारगर एवं सफल सिद्ध हो रहे हैं।

अब अगला शिविर आश्विन नवरात्रि में है। 23 सितम्बर से नवरात्रि आरम्भ होगी और 1 अक्टूबर को समाप्त होगी। 9 दिन, 23 सितम्बर से लेकर 1 अक्टूबर तक ही पूरे होते हैं। विजय-दशमी भी इस बार 1 अक्टूबर की है। उसी दिन पूर्णाहुति होगी। आगन्तुकों को 22 की शाम तक आ जाना चाहिये। स्वीकृति का नियम सदा की भाँति बना रहेगा। जिन्हें आना है वे अभी से स्वीकृति प्राप्त कर लें ताकि उस समय असुविधा न हो।

व्रज के तीर्थों को दर्शन करने के लिए जाने की जिनकी इच्छा हो उनके लिए सम्मिलित बस सस्ते किराये पर कर दी जाती है। भोजन में शाकाहार या दलिया खिचड़ी आदि का क्रम चलेगा, जो साधक मिलजुल कर पकाते रह सकते हैं। जून के शिविर में छोटे बच्चों वाली महिलाओं को भी आने की छूट रहती है, क्योंकि उन दिनों युग-निर्माण विद्यालय की इमारत खाली रहने से स्थान की थोड़ी सुविधा रहती है। आश्विन में विद्यालय चलता है इसलिये स्थान की कमी रहती है। सम्मिलित ठहरना पड़ता है।

इसलिये अश्विन शिविर में केवल पुरुष ही आवें। महिलायें आवें तो ऐसी आवें, जिनके पास छोटे बच्चे न हों और जिन्हें अन्य स्त्रियों के साथ सम्मिलित ठहरने में असुविधा न हो। परिवारों के लिए जिस तरह जून में अलग कमरे दिये जा सके थे, अश्विन में स्थान की कमी रहने से वैसा न किया जा सकेगा। इसलिये इस प्रकार का अनुरोध करना पड़ रहा है।

आश्विन शिविर में मथुरा आने के लिए अभी से तैयारी कीजिए और समय रहते अपने लिए स्वीकृति प्राप्त कर लीजिये।

जिन्हें जून के शिविरों में आने की स्वीकृति मिली थी किन्तु कारण-वश उनमें सम्मिलित न हो सके, वे अश्विन नवरात्रि के शिविर में आने का प्रयत्न करें। स्वीकृति दुबारा माँग लें।


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