द्रोणाचार्य कौरव सेना के सेनापति नियुक्त हुये। पहले दिन का युद्ध वीरतापूर्वक लड़े तो भी विजय-श्री अर्जुन के हाथ रही।
यह देखकर दुर्योधन को बड़ी निराशा हुई। वह गुरु द्रोणाचार्य के पास गये और कहा- “गुरुदेव! अर्जुन तो आपका शिष्य मात्र है, आप तो उसे क्षण भर में परास्त कर सकते हैं, फिर यह देर क्यों?”
द्रोणाचार्य गम्भीर हो गये और कहा- “आप ठीक कहते हैं, अर्जुन मेरा शिष्य है, उसकी सारी विद्या से में परिचित हूँ, किन्तु उसका जीवन कठिनाई से संघर्ष करने में रहा है और मेरा सुविधापूर्वक दिन बिताने का रहा है। विपत्ति ने उसे मुझसे भी अधिक बलवान बना दिया है।