दाम्पत्य-जीवन को सफल बनाने वाले कुछ स्वर्ण-सूत्र

July 1968

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पति-पत्नी में कभी झगड़ा नहीं होना चाहिये। यह शोभनीय भी नहीं है और कल्याणकारी भी नहीं है। पति-पत्नी के झगड़े का मतलब है पूरे परिवार का नाश और उनके प्रगाढ़ प्रेम का अर्थ है, सुन्दर परिवार, सुखदायी गृहस्थ। पति-पत्नी के पारिवारिक लड़ाई-झगड़े के कुछ बाह्य और कुछ मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं। उनमें से अकर्तव्यशीलता भी एक विशेष कारण है। यदि पति-पत्नी परस्पर अपने बाह्य और मनोवैज्ञानिक कर्तव्यों को सावधानीपूर्वक पूरा करते रहें तो उन दोनों में कभी कोई लड़ाई-झगड़ा न हो।

बाह्य कर्तव्यों में पति का सबसे पहला कर्तव्य है कि वह पत्नी के स्वास्थ्य का अपनी ओर से पूरा ध्यान रखे। बहुत स्वार्थी पति अपनी सेवा लेने के साथ-साथ पत्नी को हर समय किसी न किसी काम में लगाये रखते हैं। उनका विचार रहता है कि पत्नी से जितना ज्यादा से ज्यादा काम लिया जा सके, लिया जाना चाहिये। वह तो काम करने और सेवा करने के लिये आई ही है। जगह पर पानी, जगह पर खाना, यहां तक कि कपड़े-लत्ते और किताब, कागज, स्याही, दवात, तक जगह पर ही लेते हैं। किसी वस्तु अथवा किसी काम के लिए जगह से उठना जानते ही नहीं। यहाँ तक कि कलम पेंसिल तक उसी से बनवाते और फाउंटेनपेन में रोशनाई तक उससे हीं भरवाया करते हैं। इतना ही नहीं इन तुच्छ कामों के लिए भी उन्हें आराम करती हुई अथवा कोई और आवश्यक काम करती हुई पत्नी को उठा देने में जरा भी दया या संकोच नहीं करते। बहुत से बाबू साहबों को तो पत्नी ही कोट-पतलून और टाई-जूते पहनाती है और हर रोज जूते पर पालिश किया करती है।

रसोई और नाश्ते के सम्बन्ध में तो उसे जितना हैरान किया जा सकता है किया जाता है। और यह मुसीबत छुट्टी के दिन तो और भी बढ़ जाती है। जरा यह बनाना, थोड़ा वह भी बना लेना, आज सुबह इसकी चाय है, शाम को उसका भोजन है, बहुत दिन से यह नहीं बना, वह चीज खाये तो कई दिन हो गये- की ऐसी रेल लग जाती है कि बेचारी पत्नी को दिन भर दम मारने और चूल्हें, अंगीठी के पास से उठने की फुरसत नहीं मिलती। आप तो कोच, कुरसी या चारपाई पर पड़ गये और मिनट-मिनट पर तरह-तरह की फरमाइशें चलाने लगे। अपनी इस नवाबी में उन्हें इस बात का जरा भी ध्यान नहीं रहता है कि उनकी इस फैल-सूफी से बेचारी पत्नी की हड्डी-हड्डी टूट जाती है।

किसी प्रकार यदि बेचारी को थोड़ा-सा आराम का अवसर मिल भी जाता है तो फिर उनकी ऐसी गप्प और हा-हा-ही-ही चलती हैं कि उसके आराम का सारा समय पलक उठने, गिरने, जम्हाने और अलसाने में ही निकल जाता है और वह फिर थकी-थकी उठ कर दूसरे समय के काम में लग जाती है। यदि सौभाग्य ही कहिये, उनकी पत्नी कलाकार अर्थात् संगीत या वाद्य की जानकार हुई तब तो गारंटी के साथ उसके दिन का ही नहीं रात का भी आराम का समय बहुत-सा बेकार चला जाता है। खा-पीकर आराम से पड़कर पति देवता को संगीत लहरी की इच्छा होती है और वह पत्नी को महफिल लगाने के लिये मजबूर कर देते हैं। जब संगीतज्ञ पत्नी से विवाह किया है तो फिर उसका लाभ क्यों न उठाया जाये? काम के बाद ही तो वह समय मिलता है, जिसमें उनकी कला का रस लिया जा सकता है। अनेक महानुभाव तो आप आराम से पड़ कर यदि उससे पैर नहीं दबवाते तो आधी-आधी रात तक उपन्यास सुना करते हैं। उनका तो कार्य दस बजे दिन से आरम्भ होता है, पत्नी का यदि चार पाँच बजे से आरम्भ होता है तो इससे क्या। वह तो अपनी जानते हैं पत्नी अपना मरे भुगते।

जब घर में ही धुल जाते हैं तो आवश्यक क्या कपड़े इस परवाह से पहने जायें कि कम से कम चार पाँच दिन तक साफ रह सकें? हर दूसरे, तीसरे दिन कपड़ों का एक ढेर उसके लिये तैयार रहता है। बच्चों के कपड़ों के साथ वह दोपहर को पति देवता के कपड़े धोती, सुखाती और लोहा करती है। इस प्रकार बहुधा पत्नियों से इतना काम लिया जाता है कि जरा आराम करने का अवसर नहीं मिलता, जिसका फल यह होता है कि उसका स्वास्थ्य खराब हो जाता है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और वह बात-बात पर झल्लाने, रोने लगती है। गृह-कलह आरम्भ हो जाता है।

वे बुद्धिमान गृहस्थ जिन्हें पारस्परिक प्रेम सद्भावना और सुख-शाँति वाँछित है, पत्नी से उतना ही काम लें जितना उचित और आवश्यक है। जो उनके अपने काम हों वे सब स्वयं ही करें। पारिवारिक जीवन में आलस्यपूर्ण नवाबी चलाना ठीक नहीं। पत्नी के पास घर गृहस्थी और बच्चों का पहले से ही इतना काम होता है कि उसे समय नहीं रहता। इस पर अपना काम सौंप कर काम की इतनी अति न कर दीजिये कि उसका शरीर टूट जाये। पत्नी जितनी अधिक स्वस्थ और प्रसन्न रहेगी उतनी ही मधुर और सरस होती चली जायेगी।

बहुत से स्वार्थी लोग बड़प्पन और अधिकार के अहंकार में हर वस्तु में अपना ‘लाइन्स-शेयर’ (सिंह भाग) रखते हैं। वे नाश्ते और भोजन की सबसे अच्छी चीजें सबसे अधिक मात्रा में स्वयं उपभोग करते हैं। जो कुछ उल्टा-सीधा, थोड़ा बहुत बचता है, वह प्रसाद रूप में पत्नी बेचारी को मिलता है। यही हाल बाजार से लाये फल, मेवा, मिठाई आदि में भी होता है। यह बहुत ही हेय, तुच्छ और क्रूर स्वार्थ है। इस व्यवहार की अधिक पुनरावृत्ति होने और यह समझ लेने पर कि पति का इसमें केवल स्वार्थ ही नहीं अहंकार भावना और कमाई का अधिकार भी शामिल है, यदि पत्नी का मन उससे फिर जाता है तो उसे ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। ऐसे स्वार्थी पशुओं से पत्नी ही नहीं पूरे संसार को घृणा करनी चाहिये। वे इसी योग्य होते हैं।

अच्छे और भले पति हर अच्छी वस्तु को प्रेमपूर्वक अपनी प्रियतमा को ही अधिक से अधिक खिलाने-पिलाने में संतोष और सुख अनुभव करते हैं। चूँकि वे कमाई करते हैं इसलिये उन्हें अपना यह कर्तव्य अच्छी तरह याद रहता है कि कही संकोच-वंश पत्नी किन्हीं वस्तुओं को जी भर कर न खाने का अभ्यास न कर ले अथवा खाने में संकोच करे। वे अपने आप अपने सामने अथवा अपने साथ बिठा कर खिलाने का ही यथा सम्भव प्रयत्न करते हैं। ऐसे पतियों की पत्नी कितनी प्रसन्न और सुखदायक रहती हैं इसका अनुमान सहज नहीं।

पहनने, पहनाने में भी यह विषमता अच्छी नहीं। अनेक पति अपने लिए तो जब तब अच्छे से अच्छे और नये कपड़े बनवाते रहते हैं, तब भी कमी महसूस करते रहते हैं। किन्तु पत्नी की वर्षों पहले खरीदी दो-चार साड़ियाँ उन्हें शीघ्र ही खरीदीं जैसी मालूम होती है। जैसे सुन्दर कपड़े अपने लिये बनवाते हैं, वैसे पत्नी के लिए नहीं। ऐसे ‘फैलसूफ’ पति अपनी पत्नी का पूरा प्यार कभी नहीं पा सकते। उचित यह है कि पुरुष होने के नाते पति मोटे, सस्ते और सादे कपड़े पहने और पत्नी को अच्छे से अच्छे कपड़े पहनाये। वह सुन्दर है सुकुमार है, वस्त्र उसकी शोभा है।

अपने से अच्छे कपड़े पत्नी को पहनाने वाले पति अपनी पत्नी पर बिना मंत्र के वशीकरण कर देते हैं और प्यार में बदली उसकी कृतज्ञता का आनन्द प्राप्त करते हैं। यदि अपने से अच्छे न भी पहनाये जायें तो कम से कम उस स्तर और उस मात्रा का तो प्रबन्ध किया ही जाना चाहिये, जो स्वयं अपने लिये करते हैं। इसी प्रकार साबुन, तेल आदि का भी प्रबन्ध पत्नी के लिये अपने से अच्छा ही करना चाहिये।

इन कतिपय पदार्थिक कर्तव्यों के साथ-साथ पति को कुछ मनोवैज्ञानिक कर्तव्यों का भी निर्वाह करना चाहिये। इनमें से सबसे पहला कर्तव्य है प्रशंसा। उसके भोजन, और श्रृंगार की प्रशंसा कीजिये और प्रशंसा की आँखों से ही उसे देखिये। इससे उसको बड़ी पुलक और सुख की सिरहन प्राप्त होती है। उसे यह विश्वास रहता है कि पति को मैं और मेरे काम पसन्द हैं। यह पसन्दगी की भावना हर नारी की एक साध होती है। इस पर वह अपना आराम और सुख-सुविधा तक निछावर करने को तैयार रहती है।

पत्नी के सेवा करते समय कभी भी उदास, उदासीन व तटस्थ मत रहिये। उससे हँसते-मुस्काते और एकाग्र होकर बात करने का प्रयत्न करिये। इससे उसको यह बड़ा संतोष रहता है कि पति उसको देखकर खिल उठता है, मेरी साधारण-सी बात में भी उसे रस आता है और शीघ्र ही मुझमें खो जाता है। वह इसे नारीत्व की विजय समझती है और नारी होने का अभिमान करने लगती है, जिसको प्रेम रूप में वह आभार स्वरूप समर्पित कर देती है।

बाजार से जब भी आइये कुछ न कुछ उसकी पसन्द की वस्तु अवश्य लेकर आइये। स्त्रियों का स्वभाव भी कुछ बच्चों जैसा होता है, अपनी पसन्द की छोटी-सी वस्तु भी पाकर बहुत अधिक प्रसन्न हो जाती हैं। यह और इस प्रकार के अन्य बाह्य और मनोवैज्ञानिक कर्तव्यों का पालन करने वाले पतियों की पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहती हैं और किसी भी स्थिति में गृह-कलह उपस्थित नहीं कर पाती हैं।

किन्तु नियम है कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। आदान के अभाव में प्रदान सम्भव नहीं होता। पति के साथ पत्नी को भी ऐसे कारण उपस्थित नहीं करना चाहिये, जिससे पति का उसकी ओर से मन फिरने की सम्भावना हो जाय।

सबसे पहले तो उसे पति की उचित सेवा में न तो प्रमाद करना चाहिये और न अरुचि ही। पति को जो कुछ पसन्द है खाने की वस्तुओं में उनका समावेश करते रहना चाहिये। दिन भर के परिश्रम के बाद रुचि कर भोजन और पत्नी की आवभगत उसको पूरी तरह ताजा कर देने के लिए पर्याप्त है। पति के आने पर जो पत्नियाँ उसकी सेवा स्वागत भूल कर अपनी गाथा लेकर बैठ जाती हैं या तत्काल बाजार का काम बतलाने लगती हैं, वे उसकी अनुकूलता कभी प्राप्त नहीं कर सकतीं।

खरीद फरोख्त के समय पति की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दीजिये और सदैव यह ध्यान रखना चाहिये कि उसके कपड़े ज्यादा पुराने, फटे अथवा कम नहीं होने चाहिये। खाने-पीने की वस्तुओं में प्रयत्न करिए कि पति को अधिक न सही पुरुषोचित भाग तो मिलना ही चाहिये। पौष्टिक पदार्थों के उपयोग में पति की बराबरी करने का प्रयत्न न कीजिये और न अपने ऊपर इस स्पर्धा से अधिक खर्च करिये कि जब वह इतना व्यय करते हैं तो मैं क्यों न करूं। अपने वस्त्रों का स्तर यथा-सम्भव उतना ही रखिये जितना कि पति का हो।

पति की आर्थिक कमी अथवा कम कमाई की आलोचना तो कभी करनी ही नहीं चाहिये। जहाँ तक संभव हो ऐसी-व्यवस्था रखिये कि उसका आभास कम से कम ही हो। पति की आर्थिक आलोचना करने का अर्थ है उसका मन अपनी ओर से विमुख कर देना। बाजार अथवा बाहर जाते समय अपनी फरमाइश की सूची पेश करने और आने पर उनके लिए तलाशी लेने लगने का स्वभाव पति को रुष्ट कर देने वाला होता है। पति के प्रिय मित्रों की अनुचित आलोचना करना अथवा उनका सम्बन्ध विच्छेद कराने का प्रयत्न करना पति के एक सुन्दर सुख को छीन लेने के बराबर है। पति के मित्रों को स्वजन और शत्रु को शत्रु मानना पत्नी का प्रमुख कर्तव्य है जो पत्नियाँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व मान कर केवल अपने मित्र को मित्र और अपने विरोधी को विरोधी मानती हैं, वे अपने दोनों के बीच खाई खोदने की भूल करती हैं।

इसके अतिरिक्त संकट के समय में भी पति के पास मुस्काती हुई ही रहो। पति के सम्मुख गन्दी दशा में रहने वाली स्त्रियाँ अपने प्रति घृणा को जन्म देती हैं। अनेक स्त्रियों का स्वभाव होता है कि पति के पीछे तो वह खूब सजी-धजी रहती है, बाहर सज-धज कर निकलती हैं लेकिन घर में खासतौर से पति के सम्मुख गंदा व पुराना कपड़ा पहन कर आती हैं। उनका ख्याल रहता है कि पति उनके पास कपड़ों की कमी समझ कर और नयी साड़ियाँ लाकर देगा। किन्तु यह प्रयत्न उल्टा है। इससे पति उसे स्वभाव से गन्दा समझ कर कपड़े लाकर देना बेकार समझते हैं। सदा मधुर और मृदुल बोलिये। नारियों की मीठी वाणी और अनुकूल मुस्कान का जादू पुरुष पर अधिकार जमा लेता है। यदि इस प्रकार पति-पत्नी एक दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखते हुए अपने यह कतिपय बाह्य और मनोवैज्ञानिक कर्तव्यों का पालन करते रहें तो उनके बीच कभी कलह-क्लेश होने की सम्भावना ही न रहे और दाम्पत्य-जीवन का अधिक से अधिक आनन्द पा सकते हैं।


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