अपनों से अपनी बात- -

July 1968

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निरन्तर स्वस्थ और निरोग रहने के लिए हर प्रकार से साफ-सुथरा रहना बहुत आवश्यक है। गन्दगी वह चाहे बाहर की हो अथवा भीतर की आरोग्य के लिए नितान्त हानिकारक है। रोग के कीटाणु गन्दगी में ही पैदा होते, पलते और पनपते हैं। स्वच्छता एक दैव गुण है। इससे स्वास्थ्य, उत्साह, शक्ति, उल्लास और प्रसन्नता के साथ सौंदर्य और आकर्षण की उपलब्धि होती है। व्यक्तित्व उज्ज्वल और प्रभावशाली बनता है। इसके विपरीत गन्दगी, अस्वास्थ्य, मलीनता और जुगुप्सा का कारण होती है।

गन्दगी से ढके अच्छे-अच्छे व्यक्तित्व प्रभावहीन होकर निःसार बन जाते हैं। आचार्यों ने स्वच्छता को जीवन और मलीनता को मृत्यु का पर्याय बतलाया है। स्वच्छता में लक्ष्मी और मलीनता में दारिद्रय का निवास रहता है। स्वच्छता मनुष्य का प्रथम और आधारिक कर्तव्य है। जिसने पूरी तरह शुद्ध और स्वच्छ रहना सीख लिया उसने मानो एक बड़ी उपलब्धि करली।

स्वच्छता के क्रम में सबसे पहला स्थान शरीर का है। जिसका शरीर हर प्रकार से शुद्ध और साफ रहता है उसका मन प्रसन्न और आत्मा सतेज रहती है। उसकी बुद्धि प्रखर और स्मृति तीव्र हो जाती है। अच्छे धुले और चमकीले कपड़े पहने रहने से ही कोई स्वच्छ नहीं हो जाता। गन्दे शरीर पर अच्छे और साफ कपड़े भी अशोभनीय लगते हैं। कोई मलमल अथवा रेशम का साफ सुथरा कुरता या कमीज पहने हो और उसके गले में पसीने और मैल की काली काली रेखायें बनी हों, हाथ-पैरों पर मैल की पर्त जमी हों, बालों में धूल और कानों के आस-पास गर्द इकट्ठी हो तो उस पर उस सुन्दर और साफ कुरते कमीज की क्या शोभा?

दांतों में मैल जमा हो, आंखों में कीचड़ भरी हो, मुख से गन्दी हवा और शरीर से पसीने की गन्ध निकल रही हो तो ऐसे व्यक्ति को, साफ-सुथरे वस्त्र पहने होने पर भी आप-पास बिठाने में संकोच करेंगे। सुन्दर से सुन्दर वेश भूषा और व्यक्तित्व भी शारीरिक गन्दगी के कारण घृणास्पद बन जाते हैं। गन्दे आदमी को समाज में कोई पसंद नहीं करता, फिर चाहे वह विद्वान, धनवान अथवा कलाकार ही क्यों न हो? समाज में घृणा और अवमानना से बचने के लिए मनुष्य को हर प्रकार से साथ सुथरा रहना चाहिये।

शारीरिक शुद्धता एवं स्वच्छता के लिए स्नान का बहुत महत्व है। स्नान शारीरिक स्वच्छता का सबसे उपयोगी और सरल तरीका है। इसलिये मनुष्य को नित्य नियम से स्नान करते रहना चाहिए। तथापि जो स्नान विधिपूर्वक ठीक से नहीं किया जाता उससे उसका प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। खूब मलमल कर विमल स्नान करना ही स्नान करने के उद्देश्य को पूरा करता है। यों तो अधिकाँश लोग नित्य नियम से स्नान करते हैं। यहाँ तक कि स्नान किए बिना पानी तक नहीं पीते, किन्तु क्या वे स्नान का उद्देश्य पूरा करते हैं? ऐसे लोग शीघ्रता से उल्टा-सीधा दो-चार लोटा पानी सिर पर डालकर छुट्टी पाते हैं। बहुधा देखा जाता है कि उनके कूल्हे, कमर और हाथ-पाँव के टखने और एड़ियां बिना भीगी रह जाती हैं। इस प्रकार का सूक्ष्म स्नान, स्नान का कोई प्रयोजन पूरा नहीं करता।

स्नान करने का अर्थ है शरीर का अंग-प्रत्यंग ठीक तरह से धोकर साफ करना। ऐसा विमल स्नान पानी के स्पर्श मात्र से पूरा नहीं होता। उसके लिए या तो कोई जलाशय हो अथवा किसी बड़े बर्तन में ढेर-सा पानी लेकर बैठा जाये और स्नान किया जाय। अंगों पर पानी डालकर उन्हें अलग-अलग खूब रगड़ कर साफ किया जाये। नहाते समय यदि अंग-प्रक्षालन के लिए यदि एक तौलिया भी काम में लाया जाये तो अच्छा रहेगा। हाथ से रगड़ने से शरीर का मैल उस तरह साफ न होगा, जिस तरह तौलिया की सहायता से रगड़ कर नहाने से। यदि नित्य न सही तो कम से कम सप्ताह में दो तीन बार साबुन तो लगाया ही जाना चाहिए। साबुन के स्थान पर दही, मठ्ठा और मिट्ठी का भी प्रयोग बतलाया गया है, शरीर को एक बार भिगो कर उस पर साबुन लगा कर पहले खूब मलना चाहिये। उंगलियों गाइयों, जोड़ों और पार्श्वों को साबुन के साथ रगड़ कर साफ कर लेना चाहिये और तब पानी डाल-डाल कर साबुन का झाग और उसके साथ मिला मैन धो डालना चाहिये।

इस प्रकार खूब अच्छी तरह मल-मल कर नहाने के बाद शरीर का अंग-प्रत्यंग अच्छी तरह किसी सूखे कपड़े अथवा निचोड़े हुए तौलिया से पोंछ डालना चाहिये। यह क्रम केवल गरमी या बरसात में ही नहीं जाड़ों की ऋतु में भी पूरी तरह चलाना चाहिए। इस प्रकार परिश्रम और पूर्णरूपेण किया हुआ जाड़ों का स्नान गरमी अथवा बरसात के स्नान की अपेक्षा अधिक आनन्द एवं लाभदायक होता है। स्नान के बाद गन्दे कपड़े कभी नहीं पहनना चाहिये। जहाँ तक हो सारे कपड़े दूसरे-तीसरे दिन धोते रहना चाहिए और नीचे पहने जाने वाले, बनियान और लंगोट आदि तो नित्य प्रति ही धोने चाहिए। नहाने के बाद बिना धोये अण्डरवियर तो कदापि नहीं पहनना चाहिए। इस प्रकार जब आप खूब अच्छी तरह से पूरा स्नान कर स्वच्छ कपड़े पहनेंगे तब आपको एक अपूर्व उल्लास लघुता और आनन्द की अनुभूति होगी। मन प्रसन्न और आत्मा पर पवित्रता की प्रतिक्रिया होगी।

ऋषियों ने आवश्यकता के अनुसार स्नान के छः प्रकार बतलाये हैं-

‘नित्यं नैमित्तिकं काम्यं क्रियांगं मलकर्षणम्। क्रिया, स्नानं तथा षष्ठ षोढा स्नानं प्रकीर्तितम्॥

नित्य, नैमित्तिक, काम्य किसी धर्म क्रिया का अंग स्वरूप, मैल को हटाने वाला और क्रिया स्वरूप। स्नान के यह छः प्रकार कहे गये हैं।

प्रतिदिन प्रातःकाल शौचादि के पश्चात् और भजन-पूजन से पूर्व किया जाने वाला स्नान ‘नित्य’ कहलाता है। मुर्दा, चाण्डाल, गन्दगी आदि के संसर्ग के कारण किया जाने वाला स्नान “नैमित्तिक” होता है। पुण्य आदि नक्षत्रों में कामनापूर्वक किया जाने वाला स्नान ‘काम्य’। देवोपासना या पितृ-श्राद्ध आदि के अवसर पर किया जाने वाला स्नान ‘क्रियाँग’। शरीर की स्वच्छता के लिए किया जाने वाला स्नान ‘मलकर्षण’ और किसी सरिता अथवा तीर्थ आदि में सविधि स्नान करता ‘क्रिया स्नान’ कहा जाता है।

यद्यपि इन छहों प्रकार के स्नानों में स्वास्थ्यदायक नियमों का समावेश किया गया है तथापि पाँचवाँ ‘मलाकर्षण’ स्नान ही वह स्नान है, जो शारीरिक स्वच्छता के लिए अपेक्षित है और जिसकी विधि ऊपर बताई गई है। अन्य प्रकार के स्नानों में स्वच्छता से अधिक पवित्रता का दृष्टिकोण है। साथ ही विज्ञजनों ने स्नान के पानी के विषय में भी व्यवस्था दी है। सबसे प्रथम महत्व गंगा का है, तत्पश्चात क्रम से नदी, झरना, तालाब और कुएँ के पानी से स्नान करना अधिक लाभदायक बतलाया गया है। इसी बात को चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इस प्रकार एक वाक्य में ही कह दिया है कि बन्द अथवा ठहरे जल की अपेक्षा खुले और बहते जल में स्नान करना अधिक लाभदायक है। इसका मुख्य कारण यह है कि जो विद्युत शक्ति उन्मुक्त जल में जाग्रत रहती है, वह बन्द अथवा बँधे जल में नहीं रहती। अब इनमें से जो भी सुविधा जिसे हो उसका उपयोग करना चाहिए। किन्तु हर दशा में स्नान खूब अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर ही करना चाहिए।

साँगोपाँग स्नान सभी अंगों का एक साथ मार्जन करने की विधि है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे अंग हैं जिनकी सफाई नित्य ही पृथक रूप से करनी चाहिए। यह अंग हैं दाँत, मुँह, नाम और आँख। एक तो स्नान करते समय इनको ठीक से पृथक रूप से साफ नहीं किया जा सकता, दूसरे इनकी सफाई ऊपर से सम्भव भी नहीं।

दाँतों की सफाई के लिए केवल उंगली से रगड़ना भर ही पर्याप्त नहीं है। यद्यपि अनेक लोग मंजन और टूथपेस्ट आदि का प्रयोग किया करते हैं, तब भी दांतों की सफाई के लिए दातौन का उपयोग सबसे उत्तम है। अपने यहाँ नीम की दातौन सबसे अच्छी और उपयोगी बतलाई गई है। यह मिल भी आसानी से जाती है और इसमें कीटनाशक तत्व भी विद्यमान रहता है। दातौन को दांतों से चबाकर उसके सिरे पर ब्रुश जैसा बना लिया जाता है। इससे दांतों का व्यायाम भी होता है और उससे रगड़ कर दाँत का हर हिस्सा अच्छी प्रकार साफ किया जा सकता है। साथ ही उसका रस दाँतों और मसूड़ों में लग कर उनको कीटाणु और रोग रहित बना रहता है। नीम के अतिरिक्त अन्य प्रकार के पेड़ों के दातौन भी उपयोगी बतलाये गये हैं। विष्णु स्मृति में दातौन सम्बन्धी पूरा विधान देते हुए इस प्रकार लिखा है-

“न मधुरम् नाम्लम्, नोर्द्ध्वशुष्कं, न शुशिरम्। न प्रतिगंधि, न पिच्छिलम्, न दक्षिणाभि मुखम्। अद्यच्चोदंमुखः प्रांग्मुखोवा। वटासनार्क, खदिरकरंज वदर सर्ज्ज निम्बारि मेदापा मार्ग मलती ककुभ बिल्वा नामन्त्यतमम्। कषाय तिक्तं कटु कंच।”

दातौन, मधु, अम्ल, ऊपर से सूखी, मुरझाई दुर्गन्ध युक्त और पनीली न होनी चाहिये। दक्षिण की ओर मुँह करके दातौन न करें, उत्तर या पूर्व की ओर करें। बड़, आसान, आम (मदार), खदिर (खैर), करंज, बेर, सर्ज, नीम, अरिमेद, अपमार्ग, मालती, ककुभ और बेल के वृक्ष की दातौनों में से कोई एक करनी चाहिये। दातौन कसैली, तिक्त या कटु स्वाद वाली होनी चाहिये।”

दातौन के विषय में नारदादि ऋषियों का निर्देश है कि वह आठ अंगुल लम्बी और छिलका सहित ही लेनी चाहिये। मंजनों और टूथपेस्टों की अपेक्षा दातौन का व्यय नगण्य ही है। फिर आजकल बाजार में बिकने वाले मंजन आदिक अधिक विश्वास भी नहीं होते। जहाँ नित्य ताजा दातौन न मिल सके वहाँ दातूनों को पानी में भिगोकर रखा और काम में लाया जा सकता है।

जीभ को उंगली से तो साफ किया जी जा सकता है। साथ ही दातौन को बीच से फाड़कर उसकी जीभी भी की जा सकती है। अच्छा तो यही है कि दोनों समय के भोजन के बाद दातौन करना चाहिये नहीं तो प्रातःकाल शौच से निवृत्त होकर तो इसे नियमित रूप से करें हीं। मुँह को पूरी तरह से साफ रखने के लिए बार-बार न तो कोई चीज खानी चाहिये और जब-जब खाई जाये तो मुख को खूब धो डालना और कुल्ला कर डालना चाहिये।

नासा रंध्रों की सफाई, सिनक और पानी चढ़ा कर और उंगली डालकर खूब अच्छी तरह की जानी चाहिये। श्वास के साथ उसमें बहुत-सा गर्द गुबार जाकर जमा हो जाता है, जिससे उसमें बहुत तरह की गन्दगी जमा हो जाती है। नाक की सफाई नित्य प्रति बहुत आवश्यक है। नाक का सम्बन्ध फेफड़ों से है। यह श्वास लेने के एक मात्र साधन भी हैं। यदि इनमें गन्दगी रह गई तो वह श्वास के साथ अन्दर जाकर विविध व्याधियाँ पैदा कर सकती हैं।

शरीर में आँखों के महत्व से कौन इनकार कर सकता है? साथ ही यह सबसे कोमल अवयव होता है। इनकी सफाई भी विधिपूर्वक की जानी चाहिये। एक साधारण विधान तो कुल्ला करते और मुख धोते समय इनको हल्के-हल्के रगड़ कर साफ करने का है ही। किन्तु इतने मात्र से ही इनकी पूरी सफाई नहीं हो जाती। इनका यथाविधि प्रक्षालन किया जाना चाहिये। हाथ में लेकर बार-बार पानी के छींटे मार कर तो इनका प्रक्षालन होता ही है, किंतु यह अपर्याप्त है। किसी चौड़े वर्तन में साफ पानी भर कर उसमें आंखों को डुबाकर बार-बार खोलना, मूदना चाहिये। इस प्रकार आँखों का पर्याप्त और समुचित प्रक्षालन हो जायेगा। इस काम के लिए पानी जितना शुद्ध और स्वाभाविक रूप से शीतल होगा, उतना ही लाभ होगा।

शरीर को स्वस्थ और स्वच्छ रखने के लिये जो व्यक्ति इन कतिपय नियमों का नियमित रूप से पालन किया करता है, वह न केवल आरोग्य का सुख ही पाता है दीर्घ-जीवी भी होता है। स्वच्छता सिद्ध करने के लिए शारीरिक स्वच्छता का प्रथम क्रम है। जो मनुष्य पूरी तरह से शरीर स्वच्छ रख सकता है, वह आगे चलकर आन्तरिक स्वच्छता में भी सफल हो सकता है। शारीरिक स्वच्छता को शारीरिक का तप माना गया है। इसका भौतिक लाभ है सो तो है ही, आध्यात्मिक लाभ भी कम नहीं होता। शारीरिक स्वच्छता में प्रमाद करना पाशविक वृत्ति का परिचय देना है। इसलिए मनुष्य को न तो इसमें प्रमाद करना चाहिये और न इस ओर उदासीन ही होना चाहिये।

हम अध्यात्म को बुद्धि-संगत एवं वैज्ञानिक स्तर पर प्रतिपादित करेंगे

पिछले दिनों विज्ञान एवं बुद्धिवाद ने एक सीमा तक अच्छी प्रगति की है। इस प्रगति के कितने ही अच्छे परिणाम हुए हैं। विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानवीय सुविधाओं और सुख साधनों को बढ़ाया है। बुद्धिवाद ने कितने के भ्रम जंजालों से छुड़ा कर वस्तुस्थिति की बहुत कुछ जानकारी कराई है और वास्तविकता-अवास्तविकता को परखने की एक उपयुक्त कसौटी दी है। भावी प्रगति की सम्भावनाओं को उससे बल ही मिला है।

किन्तु इस समुद्र मंथन में अमृत के साथ वारुणी और कालकूट भी उद्भुत हुआ है। तर्क और विज्ञान ने कुछ मान्यतायें हमें ऐसी प्रदान की है, जिन पर विश्वास करने के कारण मानवीय आदर्शवादिता को- धार्मिकता को भारी आद्यात लगा है और चिर-संचित संस्कृति के विनष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। इस प्रकार के प्रतिपादनों में से कुछ यह है-

(1) जड़ परमाणुओं की रासायनिक क्रियाओं के कारण चेतन उत्पन्न होता है। वह बनता, बिगड़ता रहता है। मानवीय अस्तित्व भी एक संयोग मात्र है, जो बनता-बिगड़ता रहता है। उसमें कोई आत्मा नामक अलग सत्ता नहीं। शरीर के साथ-साथ ही जीवन का अन्त हो जाता है।

(2) प्रगति स्वसंचालित है। उसके सब काम अपने आप चल रहे हैं। ईश्वर जैसी किसी नियामक सत्ता का अस्तित्व नहीं। जो कुछ हो रहा है संयोग-वश हो रहा है।

(3) सामाजिक दण्ड व्यवस्था के अतिरिक्त कर्मफलों का कोई ईश्वरीय प्रतिफल- दण्ड पुरस्कार नहीं मिलता।

(4) प्रकृति की स्वाभाविक प्रेरणा का अनुसरण करना यही प्राणी का स्वाभाविक धर्म है। कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय इस प्रकृति प्रेरणा के आधार पर ही करना चाहिये।

(5) प्रकृति बलवान को जीवित रखना एवं पुष्ट करना और निर्बलों को मिटाना चाहती है।

(6) काम-वृत्ति की तृप्ति आवश्यक है। इसके रोकने से मस्तिष्कीय उलझनें (कांप्लेक्स) पैदा होती हैं। मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार बच्चों द्वारा माता का दुग्धपान भी एक प्रकार का काम-सेवन है।

(7) शारीरिक पोषण और खाद्य सुविधा के लिए माँस खाना चाहिये। किसी की पीड़ा को महत्व नहीं देना चाहिये।

इस प्रकार की मान्यतायें विज्ञान और बुद्धिवाद ने हमें दी है। चूँकि अब हर बात के लिए प्रत्यक्षवाद और तर्क कसौटी माना जाने लगा है, इसलिये उपरोक्त हर प्रकार के सिद्धान्त लोगों के मनों में गहरे बैठते चले जा रहे हैं और उन्हीं के आधार पर आन्तरिक आस्थाओं का निर्माण हो रहा है। फलतः मनुष्य नैतिक और सामाजिक दृष्टि से उच्छृंखल होता चला जा रहा है। नीति की मर्यादायें उसे अनुपयुक्त एवं अवास्तविक लगती हैं। फलतः वह प्रत्यक्ष विरोध उनका भले ही न करें, व्यवहार में उनका उल्लंघन गुप्त एवं प्रकट रीति से निरन्तर करता रहता है।

यों मनुष्य भी एक प्रकार का पशु ही है। बुद्धि बल का सहारा मिल जाने से यह पशुता और भी अधिक मुखर हो उठनी है। व्यक्ति को नैतिक एवं सामाजिक बनाये रखने के लिए उस पर भावनात्मक, आस्थापरक नियन्त्रण आवश्यक है। इसी बन्धन प्रतिबन्ध के कारण वह कर्तव्य, आदर्श, संयम, परमार्थ जैसी उन सत्प्रवृत्तियों को अपनाये रह सकता है, जिनके कारण कि मानवीय समाज की प्रगति सम्भव हो सकी है। धर्म और अध्यात्म का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया है कि व्यक्ति अपने पाशविक कुसंस्कारों से छुटकारा पाकर आदर्शवाद को देवत्व अपनाने के लिए तत्पर एवं अग्रसर हो सके। उन मान्यताओं एवं आस्थाओं के निर्माण में मनीषियों का लाखों वर्षों का अध्यवसाय जुड़ा हुआ है। यदि यह दीवार ढह जाती है तो सर्वत्र उच्छृंखल और अनैतिकता का ही बोलबाला होकर रहेगा।

“जब मनुष्य पेड़-पौधों की तरह एक सामयिक उत्पादन मात्र है। शरीर के साथ ही उसका अन्त हो जाना है तो वह आदर्शवाद का मार्ग अपना कर कष्ट एवं झंझटों में क्यों पड़े? ऐश, आराम का जीवन बिताने की रीति-नीति क्यों न अपनायें?”

“जब परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं तो बुरे कर्मों से डरने- स्वर्ग-नरक का भय करने की क्या आवश्यकता? सामाजिक दण्ड से अपने को बचाते हुए पाप करते रहने, मर्यादायें तोड़ते रहने में क्या हानि?”

“प्रकृति की स्वाभाविक प्रेरणा तो दूसरों के उपार्जित सुख-साधन छीन लेने की भी होती है। सभी जीव प्रायः ऐसा ही करते हैं। ऐसी दशा में दूसरों की कमाई या अधिकार का ध्यान रखने की अपेक्षा, जैसे भी बने वैसे अपना स्वार्थ साधन क्यों न करें?”

“जब प्रकृति बलवान को जीवित रखना और दुर्बलों को नष्ट करना चाहती है तो हम दुर्बलों को नष्ट कर अपने को परिपुष्ट बनाने का अवसर क्यों चूकें? बड़ी मछली छोटी मछली को खाने में संकोच नहीं करती तो दुर्बलों को सता कर अपना लाभ कमाने में हम संकोच क्यों करें?”

“काम वृत्ति की तृप्ति आवश्यक है और बहिन, बेटी, माता आदि के रिश्ते तक अन्य जन्तुओं में बाधक नहीं माने जाते तो मनुष्य ही इस सम्बन्ध में कोई बन्धन क्यों स्वीकार करें?”

“जब पर-पीड़ा का सिद्धान्त व्यर्थ समझ कर अन्य जीवों का प्राण स्वाद या पुष्टि के नाम पर हरण किया जा सकता है तो मनुष्यों को भी अपने स्वार्थ के लिये किसी भी सीमा तक- यहाँ तक कि प्राण हरण करने तक सताने में क्या हर्ज?”

यह उपलब्धियाँ हैं जो वर्तमान बुद्धिमान ने एवं भौतिकवाद ने हमें दी हैं। फलस्वरूप व्यक्ति और समाज में से मर्यादा, नैतिकता आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का स्तर लड़खड़ाने लगा है और दीखता है कि यह क्रम जारी रहा तो एक-दो पीढ़ियों में ही मनुष्य सर्वथा अनास्थावान, अधार्मिक, पूर्ण स्वार्थी, भोगवादी और मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला बन जायेगा, ऐसे लोगों से भरा हुआ समाज पारस्परिक विद्वेष, असहयोग एवं संघर्ष की आग में ही जल कर नष्ट हो जायेगा।

अन्न आदि पदार्थों को दुर्भिक्ष का मुकाबला किया जा सकता है। आक्रमणकारी शत्रुओं से भी निपटा जा सकता है। महामारी, इति भीत, बाढ़, भूकम्प आदि वृष्टि, अनावृष्टि जैसे संकटों के बीच भी जिन्दा रहा जा सकता है। पर इस अनास्थापूर्ण अव्यवस्था के फलस्वरूप जो सर्वग्राही, सर्वभक्षी, सत्यानाशी विभीषिका उत्पन्न होने जा रही है उसके दुष्परिणामों से बचना- संस्कृति एवं समाज को बचा सकना कठिन है। विज्ञान द्वारा आविष्कृत अणुबम भौतिक-जगत को नष्ट करने के लिए और बुद्धिवाद द्वारा आविष्कृत अवस्था चेतन जगत की चिर-संचित सभ्यता एवं संस्कृति का सर्वनाश करने के लिए कटिबद्ध खड़े हैं।

इन विषम परिस्थितियों में समाज के मूर्धन्य मनीषियों को कुछ विशेष प्रयत्न करना होगा और इस बाढ़ को रोकने के लिए एक मजबूत बाँध-निर्माण करना होगा। अन्यथा यह बाढ़ हमारी सब कुछ जमा पूँजी बहा ले जायेगा। आस्तिकता, धार्मिकता एवं अध्यात्म की उपेक्षा ही नहीं जा रही, उसे काल्पनिक, मनगढ़ंत एवं निहित स्वार्थों की प्रतिकृति बताया जा रहा है। यदि समुचित ऐसा ही माना जाने लगा तो सदाचार एवं परमार्थ की भावनाओं को मानव-जीवन में प्रतिष्ठित रखा जा सकना असम्भव हो जायेगा और यह सुन्दर संसार मनुष्य के द्वारा ही नारकीय अग्नि में जला कर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला जायेगा।

भौतिकवादी विचार-धाराओं में काफी आकर्षण हैं। कमजोर, कच्चे मस्तिष्कों को बहका लेने की कार्य क्षमता उसमें है। विज्ञान और बुद्धिवाद के अधूरे और एकाँगी विकास ने लोगों को भौतिकवादी बनने की प्रबल प्रेरणा दी है। साम्यवाद एक प्रकार से भौतिकवाद का ही प्रतीक है। धन के सम वितरण और सम्पत्ति पर समाज का नियन्त्रण यह दो सिद्धान्त अध्यात्मवाद और साम्यवाद दोनों में ही एक से हैं। इस अर्थ व्यवस्था को छोड़ कर साम्यवाद के अन्य सभी सिद्धांत भौतिकवाद का समर्थन करते हैं और यह विचार-धारा नगण्य से समय में- मात्र 60-70 वर्षों में इतनी तेजी से फैली है कि संसार का बहुमत आज प्रायः उसी के पक्ष में हो चला।

साम्यवादी शासन के अंतर्गत चीन, तिब्बत, कोरिया, अलवानिया, रूस, पोलैण्ड, हंगरी, चेकोस्लाविया, यूगोस्लाविया आदि देश आते हैं, उनकी आबादी लगभग डेढ़ अरब है। दुनिया की संख्या 3 अरब है। इसका अर्थ यह हुआ कि 70 वर्ष के भीतर आधी दुनिया पर उस विचार-धारा का कानूनी शासन हो गया। अन्याय देशों में भी लाखों, करोड़ों की संख्या में कम्युनिस्ट फैले हुए हैं, इस दृष्टि से संसार का बहुमत इतने थोड़े समय में अनीश्वरवादी भौतिकवादी हो गया।

यही क्रम चलता रहा तो आगामी 50 वर्ष में सारा संसार इसी विचार-धारा का अनुयायी होगा। साम्यवाद के अर्थ-सिद्धान्त से हमारा कोई विरोध नहीं, वरन् एक सीमा तक समर्थन है। किन्तु उसका भौतिक दर्जन-शास्त्र ऐसा है जो व्यक्ति एवं समाज की उत्कृष्ट मर्यादाओं को तोड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। साम्यवाद में तो अपना कुछ दर्शन-शास्त्र समाज के निर्माण का अपना विधान फिर भी है। जिन्हें विशुद्ध भौतिकवादी कहना चाहिये, वे तो सर्वथा आस्था रहित है।

बुद्धिवाद ने ऐसे ही अनास्थावान जन-समूह का निर्माण किया है। और वह साम्यवाद से भी अधिक तीव्र गति से बढ़ता चला जा रहा है। कहने भर के आस्तिक एवं धार्मिक बनने वाले लोगों में से भी अधिकांश भीतर ही भीतर भौतिकतावादी मान्यताओं को आचरण में उतारते हैं और अपराधी, अवांछनीय, असामाजिक एवं निकृष्ट स्वार्थों से ओत-प्रोत जीवन जीते हैं। यह स्थिति हमारे भविष्य को अन्धकारमय बनने की ही सम्भावना प्रकट करती है।

इन भयावह परिस्थितियों में मानवीय आदर्शों के प्रति श्रद्धा रखने वाले और विश्व-शांति के सपने देखने वाले आस्तिक एवं धार्मिक भावना सम्पन्न प्रबुद्ध व्यक्तियों को- मनीषियों को- कुछ विशेष उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य अनुभव करना होगा और इस भौतिकवादी अनास्था की बाढ़ रोकने के लिए कुछ रचनात्मक योजनाबद्ध कार्यक्रम अपनाना पड़ेगा। इस दिशा में यदि उपेक्षा बरती जाती है तो उसका परिणाम मानव की भावनात्मक स्थिति को डाँवाडोल ही कर देगा। इतिहासकार इस उपेक्षा को अक्षम्य मानेंगे।

आज आवश्यकता इस बात की है कि काँटे से काँटा निकाला जाय। जिस भाषा को लोग समझने लगे हैं, उसी भाषा में उन्हें समझाया जाय, जिस स्तर की उनकी समझ है, उसी स्तर पर खड़े होकर उनके तर्कों और मान्यताओं को उल्टा किया जाय। ऐसा कर सकना पूर्णतया सम्भव है। आध्यात्मिक एवं धार्मिक सिद्धान्त कच्ची मिट्टी के बने नहीं हैं। वे बहुत ही मजबूत आधार पर खड़े हैं। बात केवल इतनी भर है कि पुराने समय के लिये शास्त्रों एवं आप्त पुरुषों को प्रमाण मान कर उस आधार से धर्म मान्यताओं का प्रतिपादन करते थे और अब तर्क, प्रमाण, उदाहरण आदि को ठीक समझा जाता है। इन कसौटियों पर भी धर्म के सिद्धान्त पूर्णतया खरे हैं पर कठिनाई यह है कि धर्म-पक्ष से इस प्रकार का, इस स्तर का बुद्धि-संगत प्रतिपादन नहीं हो रहा है, जो अनास्थावानों को प्रभावित कर सके।

पुराने ढर्रे का प्रतिपादन बुद्धिवादियों को स्वीकार नहीं। नये ढर्रे के अनुभव समझने, समझाने की क्षमता पुराने स्तर के धर्मवादियों में नहीं। फलतः खाई चौड़ी होती चली जा रही है और एक-दूसरे से दिन प्रति दिन दूर हटते चले जा रहे हैं और संकट की घटायें अधिक सघन घिरती जा रही हैं। प्रयत्न यह होना चाहिये कि धर्म, आस्तिकवाद, आदर्शवादिता, मर्यादा एवं कर्तव्यपरायणता के प्राचीन आदर्शों को- बुद्धि-संगत ढंग से विज्ञान, तर्क, आधार और प्रमाणों के अवलम्बन से इस प्रकार प्रतिपादित किया जाय कि हर बुद्धि-जीवी को उसे स्वीकार करने के लिए- सहमत होने के लिए बाध्य होना पड़े। यह कार्य कठिन अवश्य है पर असम्भव नहीं। क्योंकि सच्चाई को प्रतिपादन करना प्रत्येक आधार पर- प्रत्येक स्तर पर- सम्भव हो सकता है। यदि ऐसा सर्वांगपूर्ण प्रतिपादन बन सके तो अवास्तविकता, अधार्मिकता एवं उच्छृंखलता की बाढ़ को निश्चयपूर्वक रोका जा सकता है।

हमें यही करना होगा। इसके लिये व्यापक तैयारी में लगना होगा। समय कम है- काम हिमालय जैसा- समुद्र जैसा बड़ा है। इस कार्य को करने के लिए ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है, जो अध्यात्मवाद और भौतिकवाद दोनों को ठीक तरह संमिश्रण कर सके। इस दिशा में छुट-पुट प्रयत्न तो जहाँ तहाँ से हुए हैं पर समग्र और साँगोपाँग तैयारी के साथ पूरी मोर्चे बन्दी के साथ यह कार्य कहीं से भी नहीं हुआ। अब समय आ गया है कि इस अभाव की पूर्ति की जाय। हर्ष की बात है कि यह कार्य उस समर्थ सत्ता की प्रेरणा से इसी गायत्री जयंती से आरम्भ कर दिया गया है। हमारे कार्यकाल का जो थोड़ा-सा समय शेष है, उसी में इसे पूरा करना होगा, यही थोड़ी अड़चन की बात है पर उसका उपाय भी सोच किया गया है।

कार्लमार्क्स ने सारे जीवन भर शोध की और तब साम्यवाद की बाइबिल- ‘कैपीटल’ पुस्तक तैयार की। हमारे पास समय कम है तो उस अध्ययन कार्य को अपने समर्थ परिजनों से करा सकते हैं। भौतिकवाद की विचार परक एवं विज्ञानपरक लगभग 600 शाखायें हैं। इन सभी की जानकारी होने पर ही वैज्ञानिक एवं बुद्धि सम्बल अध्यात्मवाद को समग्र रूप से प्रतिपादित किया जा सकेगा। इसके लिए जितना लिखा है, उससे हजार गुना अधिक पढ़ना पड़ेगा।

इस कार्य में अखण्ड-ज्योति परिवार के ग्रेजुएट स्तर के परिजनों की सहायता अभीष्ट है। जिनके पास एक-दो घण्टे रोज का अवकाश है और उस समय को हमारी इस सहायता में लगाना चाहें वे अपने नाम नोट करादें और अपनी शिक्षा का पूरा विवरण सूचित कर दें ताकि उनके स्तर का काम उन्हें दिया जा सके।

फिलहाल दो प्रकार के काम इन सहयोगियों से कराने होंगे। (1) उनकी शिक्षा में जो अपने काम का अंश होगा- उतने को सारांश रूप में लिख भेजने को कहा जायेगा। (2) कुछ बड़े ग्रन्थ पढ़ने के लिए दिये जायेंगे और उनमें से निर्दिष्ट प्रसंग ढूंढ़ने को कहा जायेगा। इस प्रकार इस प्रसंग में अगणित आवश्यक संदर्भ इकट्ठे होते चले जायेंगे और फिर उस सामग्री में से जो अंश उपयोगी होगा, उसका कोई भाग किसी आध्यात्मिक सिद्धान्त की पुष्टि में प्रयुक्त किया जाता रहेगा। इस प्रकार सहयोगी व्यक्ति को विशाल अध्ययन एक महान कार्य में सहयोगी बनने का अवसर मिलेगा और हमें वह अध्ययन जो पूरे एक जीवन में भी सम्भव नहीं, कुछ ही वर्षों में पूरा कर लेने का अवसर मिल जायेगा। कार्य की सरलता इसी प्रकार होगी।

अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी अथवा अन्यान्य भाषाओं के ग्रेजुएट स्तर के व्यक्ति ही इस कार्य में सहयोगी हो सकेंगे। स्वल्प शिक्षा वालों की सेवाओं से काम न चलेगा। अतएव जिन्हें अवकाश एवं उत्साह हो वे पत्र-व्यवहार कर लें। वैसे इन सहयोगियों को एक बार मथुरा आकर मिलना ही होगा, तभी पूरी बात समझाई जा सकेगी। ऐसे लोग भी अभी से लेकर दशहरा, दिवाली तक किन्हीं छुट्टियों में मथुरा आने की तैयारी करें तो मिलने पर उन्हें आवश्यक परामर्श दिया जा सकेगा। एक बात स्मरणीय है कि इस प्रकार के सहयोग के लिए किसी को कोई आर्थिक सहायता न दी जा सकेगी।

भौतिकवादी अनास्था से संघर्ष करने के लिए प्रौढ़ प्रखर, तर्क सम्मत, आधार, प्रमाण समेत- विज्ञान सम्मत विचार-धारा की आवश्यकता है। मानव समाज को अवाँछनीय दिशा में जाने से रोकने के लिए आज की महती एवं सर्वोपरि आवश्यकता रही है। इस अभाव की पूर्ति करके निस्सन्देह एक अति महत्व का महान कार्य सम्पादित किया जा सकेगा।


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