वरदान नहीं माँगा करते (Kavita)

July 1968

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जिनको विश्वास अडिग निज पर वरदान नहीं माँगा करते!

कब जाना शलभ विचारे ने जलना उसकी नादानी है। शबनम का कतरा क्या जाने, वह मोती है या पानी है॥ कंटक में कलियाँ पली चरख कर फल बनी अलि मंडराया। व क्या जाने अलि कब तक है जब तक यह खिली जवानी है॥ जो देने में ही सुख पाते, प्रतिदान नहीं माँगा करते। जिनको विश्वास अडिग निज पर वरदान नहीं माँगा करते!

जिनको सागर पर गर्व वही लहरें अपहृत हो जाती हैं। बन मेघ श्याम अम्बर के नीले आँगन में छा जाती हैं। सागर का प्रेम अगाध विकल हो आवाहन करता जाता। ये सजल घटाएं सावन बन धरती पर चू-चू जाती हैं॥ जिनको वसुधा से प्रेम स्वर्ग का दान नहीं माँगा करते। जिनको विश्वास अडिग निज पर वरदान नहीं माँगा करते!

सूरज की किरणें प्रखर सही गति देती जीवन देती है। तिमिरावृत पथ को ज्योति दान फूलों को यौवन देती है॥ पर हुई प्रशंसित सदा चाँद की असल चाँदनी स्वप्नमयी। इन सूर्य रश्मियों की सदैव शशि किरणें लाँछन देती है॥ है कर्म क्षेत्र से नेह जिन्हें सम्मान नहीं माँगा करते। जिनको विश्वास अडिग निज पर वरदान नहीं माँगा करते!

*समाप्त*


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