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May 1967

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मनुष्य की विपरीत बुद्धि-

मनुष्य की बुद्धि अब तक विपरीत बनी हुई है ओर अभी न जाने कब तक बनी रहेगी। मनुष्य को जो करना चाहिये वह न करके उल्टा ही करता है। श्रेय को समझता हुआ भी उससे विमुख होकर चलता है। सेवा, तप, त्याग, दया, क्षमा आदि मानवीय गुणों का कोई मूल्य अंकित ही नहीं करता, और यदि करता भी है तो बहुत ही बेमन से कृपणता के साथ थोड़ा-सा। इतना थोड़ा जो नहीं के बराबर ही समझा जाये।

इसके विपरीत यह पशु बल के सम्मुख नमन करता है। जो संसार को संहार के घाट उतारता या उतारने को उद्यत रहता है, उसकी वन्दना करता है उसका यश गाता है । उपद्रवी की पूजा करना और निरूपद्रवी की उपेक्षा करना मनुष्य की उल्टी बुद्धि ही नहीं तो क्या है? मानवता या मनुष्यता का अर्थ है अन्यायी के विरुद्ध असन्तोष और सज्जन के प्रति श्रद्धा रखना।

-संत तुकाराम

प्रगति के पथ पर नित्य नये कदम बढ़ते हैं।

प्रतिक्षण आगे बढ़ने का प्रयत्न करते रहना ही जीवन का लक्षण है और लक्ष्य भी। जो एक स्थान पर जम गया, ठहर गया वह जड़ एवं निर्जीव ही माना जायेगा।

संसार में जो भी विकास एवं उन्नति-दृष्टिगोचर हो रही है वह सब मनुष्य की प्रगतिशीलता का ही परिणाम है। यदि मनुष्य अपनी आदि अवस्था में ही सन्तुष्ट होकर स्थिर हो गया होता तो आज हम जो अपने को सभ्य एवं उन्नत दशा देख रहे हैं वह सम्भव न होता। मनुष्य जंगलों एवं गुफाओं में रहता हुआ आखेट के आधार पर जीवन बिता रहा होता। अन्य पशुओं की तरह मनुष्य भी आज तक नगण्य एवं निराधार जीवन बिताता हुआ पशु श्रेणी में ही रह रहा होता। यह सब प्रगतिशीलता का ही परिणाम है कि हम आज अपने को ऐसी सुसंस्कृत दशा में देख रहे हैं।

प्रगति प्रकृति का अटल नियम है। जो बढ़ता एवं विकसित होता रहता है वह ही जीवित रहता है, संसार उससे सम्बन्ध रखता है। विकास अथवा प्रगति अवरुद्ध होने पर किसी भी वस्तु को निरर्थक, निरुपयोगी तथा निर्जीव मानकर मूल्य घटा दिया जाता है।

मनुष्य की गति रुक जाने से वह मुर्दा समझ लिया जाता है। बच्चों का विकास रुक जाने पर उसे रोगी मान लिया जाता है। पेड़ पौधों का बढ़ना, फलना-फूलना अथवा पल्लवित होना बन्द हो जाने पर वह ठूँठ होकर इंधन बन जाता है। गति रुक जाने से नक्षत्र टूट जाते जाते हैं। प्रवाहहीन नदियाँ रेत बन जाती हैं और गतिहीन पवन तो निश्चय ही संसार की मृत्यु का कारण हो सकती है। संसार में जिस ओर देखिये गति एवं प्रगति ही नजर आती है। संसार का प्रत्येक अणु क्षण प्रत्यक्ष अथवा प्रच्छन्न रूप से निरन्तर चलता ही रहता है। जड़ कही जाने वाली वस्तुओं में भी एक आन्तरिक गति रहा करती है और इसी गति, इसी जीवन की अवधि तक वे उपयोगी बनी रहती हैं अन्यथा कूड़ा करकट बनकर बेकार हो जाती हैं।

मनुष्य चौरासी लाख योनियों में विकास एवं प्रगति करता हुआ मनुष्य योनि में पहुँचा है। इसी योनि में जाकर उसे आत्मा परमात्मा की जिज्ञासा हुई है और इसी योनि में विकास करके वह भौतिक बंधन से मुक्त होकर अपने परम लक्ष्य चरम विकास परमात्मा स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। जो उसे ही करना चाहिये और जिसे प्राप्त करने के लिए कर्म, धर्म, परमार्थ एवं पुरुषार्थ द्वारा बुद्धिमान लगे ही रहते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि यदि हम इस मौलिक विकास ही परमाविधि मनुष्य शरीर से सन्तुष्ट होकर आगे लिए प्रगति अवरुद्ध कर देंगे तो निश्चय ही पुनः मानवेत्तर अधम योनियों में पतित हो कर हमारा विनाश हो जायेगा। मनुष्य का कल्याण इसी में है कि जब तक वह प्रेय से लेकर श्रेय तक की परमाविधि न पा जाये तब तक निरन्तर प्रगति करता हुआ उत्तरोत्तर विकास एवं उन्नति के लिए अधिक पुरुषार्थ करता रहे। प्रगति ही जीवन है और अगति ही दुर्गति एवं मृत्यु।

मनुष्य जाने अथवा अनजाने प्रगति करने को मजबूर है। वह एक स्थान पर स्थिर होकर खड़ा नहीं रह सकता यदि वह सावधानीपूर्वक स्वयं प्रगति करेगा तो उन्नति की ओर बढ़ता जायेगा अन्यथा प्रकृति की स्वाभाविक गतिशीलता उसे पतन की ओर ढकेल देगी। मनुष्य को इस अथवा उस ओर चलना ही पड़ेगा। वह किसी भी दशा में एक स्थिति अथवा स्थान पर रुका नहीं रह सकता।

जीवन प्रतिक्षण बढ़ता हुआ मनुष्य को मृत्यु की ओर लिए जा रहा है। किसी में शक्ति नहीं कि वह जीवन की इस प्रगति को एक स्थान पर रोके रहे। जहाँ अबुद्धिमान लोग अन्त की ओर प्रगति करते हुए जीवन की यों ही उपेक्षा करके प्रमाद एवं आलस्य के वशीभूत होकर व्यर्थ में बरबाद होने देते हैं वहाँ इस अन्तोन्मुख जीवन यात्रा को बुद्धिमान लोग महत्वपूर्ण मानकर एक क्षण भर भी व्यर्थ नहीं खोते और प्रबल पुरुषार्थ के बल पर इस निश्चित अन्त में श्रेय पूर्ण कार्यों में अनन्तता का समावेश कर देते हैं। संसार में हजारों लाखों ऐसे सुकृति हुए हैं जिन्होंने अन्त होने पर भी अनन्तता प्राप्त कर ली है और वे या तो परम पद पर प्रतिष्ठित हो गये हैं अन्यथा मानवता के इतिहास में अमर होकर जी रहे हैं। ऐसे अमृत पुरुषों ने प्रगति के महत्व को समझा है और मनुष्य की प्रकृत गति को पुरुषार्थपूर्वक श्रेयस्कर मोड़ दिया है। वे समय के प्रवाह में तिनके की तरह नहीं बहे हैं बल्कि शक्तिसम्पन्न पथिक की तरह मनोवाँछित दिशा में बलपूर्वक स्वयं चले हैं और गौरवपूर्ण निर्धारित गन्तव्य स्थल पर जानकारी के साथ पहुँचे हैं।

परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य को मनोवाँछित प्रगति का समान अधिकार एवं शक्ति दी है। अब जो इन सुविधाओं का सदुपयोग नहीं करता वह पतन के गढ़े में गिरता है।

ईश्वर के संसार रूपी साम्राज्य में अनन्त विभूतियाँ अपरिमेय ऐश्वर्य बिखरा पड़ा है। यह सब उसके उत्तराधिकारी पुत्र मनुष्य के लिये ही तो है। परम पिता परमात्मा की इच्छा है कि उसका प्रत्येक पुत्र अपने पुरुषार्थ से इस अनन्त ऐश्वर्य का स्वामी बने, श्रेय एवं सुख प्राप्त करे। यदि उसे यह वाँछनीय न होता तो वह मनुष्य को अनेक प्रकार से अनेक तरह की शक्तियाँ क्यों देता? क्यों तो उसे आगे बढ़ने की जिज्ञासा देता? क्यों तो उसको रहस्य समझने की बुद्धि देता? और क्यों प्रगति में किसी न किसी रूप में उसका सहायक होता? परमात्मा द्वारा मनुष्य को नित्य नवीनता की इच्छा दिया जाना इस बात का प्रमाण है कि उसे मनुष्य की उन्नति, प्रगति एवं विकास वाँछित है। अन्यथा वह मनुष्य को भी क्यों न अन्य पशुओं की तरह जड़ बुद्धि बनाता? मनुष्य की रुचि किसी एक चीज में स्थायी न रखने में उसका यही मन्तव्य है कि मनुष्य एक चीज पाने के बाद दूसरी लाने के लिए अग्रसर होता रहे। एक सोपान चढ़ने के बाद दूसरे के लिए कदम बढ़ाता रहे। मनुष्य की यह प्रगतिशीलता बनाए रहने के लिए वह संसार की नाना वस्तुओं में आकर्षण जगाता रहता है और जब मनुष्य एक वस्तु पा लेता है तो वह उसके लिए पुरानी आकर्षणहीन हो जाती है, फलतः वह अन्य नये आकर्षण वाली वस्तु को पाने के लिये प्रयत्नशील हो उठता है। इस आकर्षण एवं अनाकर्षक में एक यही रहस्य छिपा है कि मनुष्य सन्तुष्ट होकर अपनी प्रगति एवं परिश्रमशीलता न छोड़ दे वह किसी न किसी कारण से प्रगति करता ही रहे क्योंकि प्रगतिशील रहने पर ही मनुष्य अपने अंतिम श्रेय परमात्मा की प्राप्ति तक पहुँच सकता है।

व्यवसाय, सेवा, शिक्षा, धर्म अथवा राजनीति किसी क्षेत्र में भी क्यों न देख लिया जाये, जो व्यक्ति निरन्तर विकास एवं प्रगति का प्रयत्न करता रहता है वह अधिकाधिक सुदृढ़ होता एवं उन्नति करता जाता है, और जो लोग एक स्थान पर रुक कर आगे बढ़ने की इच्छा को त्याग देते हैं, कुछ ही समय में उन्हें निर्बल होकर मैदान से हटना पड़ता है। जो दुकानदार अपनी दुकान, अपने माल और अपने व्यवहार को समयानुकूल विकसित करते रहते हैं वे अपने ग्राहकों की संख्या एवं सद्भावना बढ़ाते रहते हैं। जो अधिकाधिक शिक्षा पाने के लिए जिज्ञासु रहता है वह किसी न किसी प्रकार अवसर निकालकर आगे पढ़ ही लेता है। एक साथ पढ़ने और एक जैसी परिस्थिति में विद्यालय छोड़ने वाले हजारों साथियों में सैंकड़ों केवल हाई स्कूल तक ही पढ़कर रह जाते हैं और सैकड़ों बी॰ ए॰ पास कर लेते हैं। इसका कारण यही होता है कि पिछड़े हुए लोगों की शिक्षा विषयक प्रगतिशीलता नष्ट हो गई होती है जब कि अन्य आगे पढ़ने का हौसला बनाए रहे होते हैं। प्रगति की इच्छा के अनुसार मनुष्य को आगे बढ़ने का अवसर मिलता ही रहता है ईश्वर उनकी मदद करता है जो अपनी मदद आप किया करते हैं।

नौकरी के विषय में बहुत बार देखा जाता है कि एक व्यक्ति क्लर्क का क्लर्क ही बना रहता है जब कि दूसरा उससे आगे बढ़कर हेड क्लर्क तथा अधिकारी तक बन जाता है। इसका कारण यही है कि एक अप्रगतिशील बना रहा और दूसरा प्रगतिशील। उसने आगे बढ़ने की जिज्ञासा की योग्यता पढ़ाई, परीक्षायें पास कीं, विभागीय प्रशिक्षण के लिए परिश्रम किया और उन्नति के साधनों पर अग्रसर हुआ । जो चलता-बढ़ता रहेगा वह उन्नति तो करेगा ही साथ ही एक सम्मानित, संतुष्ट तथा जीवन्त जिन्दगी भी जियेगा। जो रुक जाता है, आगे बढ़ने का प्रयत्न छोड़ देता है उसकी सारी शक्तियाँ एवं योग्यताएँ नष्ट हो जाती हैं और वह निकृष्ट जीवन का ही अधिकारी बनकर रह जाता है, उत्कृष्ट एवं संतुष्ट जीवन के लिए प्रगति करते रहना बहुत आवश्यक है।

प्रगतिशीलता जीवन में रस, अभिरुचि एवं आकर्षण उत्पन्न करती है, जबकि अप्रगतिशील की जिन्दगी में ने तो कोई नवीनता आती है, न कोई उत्साह रहता है। उसकी जिन्दगी लौकिक बनकर एक भार जैसी ही बन जाती है। प्रगतिशील व्यक्ति की जिन्दगी में नित्य नई सफलताओं के समारोह आते रहते हैं। उन्नति एवं उपलब्धियों से उसका जीवन एक उत्सव की तरह उल्लास एवं प्रसन्नता के साथ बीतता है। उसे यह अनुभव करके सुख मिलता रहता है कि उसकी जिन्दगी चल रही है, वह कुछ काम कर रहा है और अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहा है।

उन्नति, विकास एवं प्रगति करना प्रत्येक व्यक्ति का परम पावन कर्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसके जीवन में जड़ताजन्य अनेक दोष आ जायेंगे। जो इस प्रसन्न मानव जीवन को एक यातना में बदल देंगे। निराशा, चिन्ता, क्षोभ, ईर्ष्या द्वेष आदि अवगुण प्रगति शून्य जड़ जीवन के ही फल हुआ करते हैं। जो आगे बढ़कर पाने का प्रयत्न नहीं करेगा वह किस प्रकार पा सकता है। और न पाने की स्थिति में उसे पाने वालों से डाह होगी ही, पीछे रह जाने से निराशा चिन्ता एवं क्षोभ होगा ही, जीवन को सुन्दर बदलने और अवगुणों से बचो रहने के लिए मनुष्य को प्रगति के पावन कर्तव्य से विमुख न होना चाहिए।

मनुष्य इस कर्मभूमि पर एक जगह पड़े-पड़े जीवन बिताने के लिए पैदा नहीं हुआ है। वह आया है नित्य नई प्रगति करके अपने परम जीवन लक्ष्य को पाने के लिए। जो जहाँ खड़ा है, उसे वहीं नहीं खड़ा रहना चाहिये उसे मन वचन कर्म से किसी न किसी रूप में परिस्थिति अनुसार कुछ न कुछ प्रगति करते ही रहना चाहिए । कोई कारण नहीं कि जब कोई दूसरा अपने परिश्रम एवं पुरुषार्थ का उपयोग करके नित्य नये श्रेयों एवं उपलब्धियों को प्राप्त करता रहता है तो हम उसे क्यों नहीं पा सकते। अब भी पा सकते हैं। किन्तु दिन-दिन पुरुषार्थ एवं अधिकाधिक परिश्रम द्वारा कदम-कदम बढ़ते हुए और उन्नति पथ पर चढ़ते हुए।


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