सुख दुःख हमारे कर्मों का ही फल है।

May 1967

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सुख दुःख की विषमता संसार की विशेषता है । जिस ओर दृष्टि जाती है तो कोई सुखी और कोई दुःखी दिखाई देता है। दुःखी कोई भी नहीं रहना चाहता। सभी सुखी रहना चाहते हैं। उसके लिए प्रयत्न भी करते हैं। कभी सफल और कभी असफल भी होते हैं।

सुखी से सुख का कारण पूछिये वह उसे परमात्मा की कृपा, भाग्य का फल बतलायेगा। दुःखी से पूछिये तो वह उसका कारण भगवान का कोप और दुर्भाग्य का दोष बतलायेगा।

इस प्रकार के विपरीत कथनों पर विश्वास करने पर यही समझ पड़ता है कि परमात्मा भी मनुष्यों के प्रति असमानता की दृष्टि रखता है। वह किसी को सुखी तथा किसी को दुःखी बनाया करता है। इससे उसकी समदर्शिता पर आक्षेप आता है। क्या यह बात विश्वास करने योग्य हो सकती है कि परमात्मा असम दर्शी है? वह मनुष्यों से भेद-भाव बर्तता है। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इस अनर्गल बात की हामी नहीं भर सकता।

प्रभु समदर्शी है। वह सबका पिता है। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं। वह किसी के बीच भेद भाव नहीं बर्तता। सबको समान दृष्टि से देखता है और सब पर समान कृपा रखता है। उसे असमानदर्शी कहना अथवा भेद-भाव बरतने वाला मानना उसकी महिमा, उसकी गरिमा और उसके ऐश्वर्य के प्रति धृष्टता करना है, जो किसी को भी नहीं करना चाहिये। अपने सुख दुःख और अच्छी बुरी परिस्थितियों का कारण मनुष्य स्वयं है, परमात्मा अथवा अन्य कोई व्यक्ति, शक्ति अथवा वस्तु नहीं ।

उदाहरण कि लिए लौकिक पिता को ही ले लीजिये। वह अपने सभी लड़कों को समान रूप से चाहता, प्यार करता और वस्तुएँ देता है, किन्तु उनमें से एक लड़का बीमार रहता है तो इसका कारण क्या यह माना जा सकता है कि वह इसलिए दुःखी या विषण्ण है कि उस पर उसके पिता की कृपा दृष्टि नहीं है। भला ऐसा कौन समझदार हो सकता है जो उस लड़के के दुःख में पिता की दृष्टि को हेतु बताये। स्पष्ट है कि उस लड़के ने अपने असंयम तथा अकर्मों से ही अपने लिये वह दुःखद स्थिति उत्पन्न की है। उसमें उसके पिता का रंच मात्र हाथ नहीं रहता। पिता चाहता है कि उसका पुत्र सुखी रहे, स्वस्थ बने, किन्तु तब तक उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती जब तक लड़का उन परिस्थितियों के अनुरूप अपने कर्मों में सुधार नहीं करेगा। क्योंकि मनुष्य का सुख-दुःख उसके अपने कर्मों का ही फल है जो कि निश्चय ही योग्य है। उसको बदला नहीं जा सकता।

मनुष्य अपने दुःख का उत्तरदायी स्वयं है। उसका दोष दैव, दुर्भाग्य अथवा परमात्मा को देना योग्य नहीं। प्रारब्ध और आकस्मिक हानि-लाभ जो दैवी अनुग्रह या कोप समझे जाते हैं, वस्तुतः मनुष्य के अपने कर्म ही होते हैं। उसका कारण कोई बाहरी व्यक्ति, परिस्थिति, ग्रह नक्षत्र अथवा देवदानव नहीं होता । पूर्व जन्म में मनुष्य जो शुभाशुभ कर्म किया करता है उसका परिपाक ही वर्तमान जीवन में प्रारब्ध बनकर सामने आता है। जिसने सत्कर्म किये रहे होते हैं उसका प्रारब्ध सुख सम्पत्ति के रूप में प्रत्यक्ष होता और इसके विपरीत जिसने अपकर्म तथा पाप कर्म की गठरी बाँधी वह दुःख दारिद्रय के रूप में सामने खुलता है। मनुष्य अपने सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य का निर्माता आप है उसका श्रेय अथवा दोष किसी दूसरे को देना भूल है।

मनुष्य अपने सुख दुःख का उत्तरदायी आप है यदि इस सत्य को अतर्क भाव से स्वीकार हृदयंगम कर लिया जाये, तो मनुष्य अपने पर, अपने आचार विचार, आहार बिहार और व्यापार व्यवहार पर विचार कर सकता है। अपने अन्दर अपनी कमियों एवं त्रुटियों को खोज सकता है और यदि वे कोई हैं तो उन्हें सुधार सकता है। दोष दूसरे के सिर मढ़ने से, उत्तरदायित्व और के कंधे पर डालने से, मनुष्य की दृष्टि अपनी ओर जाती ही नहीं। फलतः न वह आत्म-सुधार में तत्पर होता है और न उसके भाग्य में आलोक अक्षर अंकित किये जाते हैं। अस्तु जिन बुद्धिमानों को मानव जीवन के लक्ष्य सुख शाँति की यथार्थ जिज्ञासा है वह अपना उत्तरदायित्व अपने ऊपर लें। दूसरे को दोष देना छोड़ कर अपना सुधार करें और अपने श्रेय अथवा प्रेय के अधिकारी बनें।

प्रत्येक व्यक्ति सुख-समृद्धि की सम्पत्ति और वैभव-ऐश्वर्य की कामना करता है। किन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि वह यह समझना नहीं चाहता कि इन सारी विभूतियों का मात्र आधार पुण्य ही है। अतीत के शुभ कर्म ही कालान्तर में ऐश्वर्य और वैभव बनकर सामने आते हैं, किसी समय जिन्होंने सत्कर्मों में रुचि रक्खी है पुण्य परमार्थ पर श्रम किया है वे उसका फल आज सुख-सामग्री के रूप में पा रहे हैं। इसी प्रकार जो आज जिस प्रकार के बीजों को बो रहा है वह आगे चल उनका फल पायेगा। यह विधान निश्चित है इसमें हेरफेर अथवा परिवर्तन की गुँजाइश नहीं।

निःसन्देह देखने में आता है कि लोग खुले आम बेईमानी कर रहे हैं और धन-धाम के अधिकारी बनते जा रहे हैं। पाप कर्मों में रत हैं फिर भी दरिद्री नहीं दीखते। अन्याय, अत्याचार और अनीतिवर्त रहे हैं फिर भी धन दौलत और साधन सामग्री की कमी नहीं हैं। ऐसा देखकर यह भ्रम हो सकता है कि धन-दौलत, साधन-सामग्री और सुख सम्पत्ति के विषय में पाप-पुण्य की कोई सत्ता नहीं । प्रत्यक्ष के प्रमाण पाकर यह कहा जा सकता है यह सब झूठ है केवल विचार करने और मन को समझने का ढंग है।

इस भ्रम में पड़ने से पूर्व यदि इस पर ठीक से विचार किया जाये तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। पापकर्म अथवा अनुचित कार्य करते हुए भी जो सुखी और सम्पन्न दिखाई देते हैं उसका यह अर्थ नहीं कि उनकी इस सम्पत्ति-सामग्री का सम्बन्ध वर्तमान कर्मों से ही है। उनके पास आने वाली सम्पत्ति पूर्व कर्मों का प्रतिफल है और आज के कर्म आगे के उपक्रम हैं जो कालान्तर में फलीभूत होने ही हैं। यदि ऐसा न होता तो वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक कर्म का एक समान ही फल मिलता। जब कि धन वैभव के लिए अपामार्ग अपनाने वाले अनेक अन्य लोग दीन−हीन और दरिद्री ही रह जाते हैं। इसी प्रकार अनेक सत्यव्रती धनी और अनेक निर्धन दिखाई देते हैं। इस विभिन्नता विषमता तथा विपरीतता का कारण पूर्व कर्मों का प्रभाव ही कहा जायेगा।

कर्म विपाक के इस सूक्ष्म एवं दार्शनिक विवेचन को छोड़कर यदि विषय को स्थूल एवं प्रत्यक्ष रूप में देखा जाए तो भ्रम और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। अपकर्म अपकर्म हैं। वह आदि अन्त और वर्तमान तीनों कालों में दुःखदायी होता है अन्तःकरण में पापकर्म के संकल्प का उदय होते ही आत्मा में एक बेचैनी पैदा होने लगती है। उसका विवेक बार-बार धिक्कारता और भर्त्सना करता है, मनुष्य सुख-चैन की नींद खो देता है। उसकी अन्तरात्मा बार-बार पुकार करती है कि तेरा यह संकल्प यह विचार यह भाव उचित नहीं, इनकी पूर्ति तेरे लिए अकल्याणकर परिस्थितियाँ पैदा करेगी, पाप कर्म के लिए मनुष्य का यह आदि अन्तर्द्वन्द्व कितना दुःखद, कष्टकर तथा मानसिक क्षय करने वाला होता है इसको तो कोई भुक्त -भोगी ही बतला सकता है।

जब मनुष्य अपनी अन्तरात्मा की आवाज दबा कर प्रत्यक्ष रूप में पाप कर्म में प्रवृत्त होता है तब उसे थोड़ा कष्ट नहीं भोगना पड़ता। समाज से छिपने, एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ के मढ़ने, राजदण्ड से डरने अपयश अपवाद और कलंक से बचने के लिए प्रयत्न करने में उसे कितना कष्ट होता होगा क्या इसका अन्दाज लगाया जा सकता है? क्या कभी बेईमानी से धन कमाने, सम्पत्ति सामग्री बनाने वाले को किसी ने सुख चैन की श्वाँस लेते देखा है। क्या किसी ठग चोर अथवा डाकू को किसी ने अपहरण की हुई वस्तु को निश्चिंत होकर भोगते देखा है। चोरी का माल उसकी छाती पर बैठे सर्प की तरह ही उसे हर समय डराता रहता है।

पाप कर्म खुलते हैं। कचहरी, पुलिस जेल आदि का दण्ड भुगतना पड़ता है। लोकापवाद और लाँछना की आग में जलना पड़ता है और बहुत बार तो बेईमानी की कमाई घर की सत्सम्पत्ति को भी डुबाकर दरिद्री बना देती है। साहूकार बनकर भी अनुचित मार्ग से साधना सम्पत्ति कमाने वाला वास्तव में चोर बना रहता है। उसकी सारी वृत्तियाँ चोर जैसी ही निष्कृष्ट एवं निम्न-कोटि की हो जाती हैं। इस स्थिति में किसी को कितना कष्ट होता होगा और कौन-सी दुर्दशा नहीं हो जाती होगी यह नहीं बताया जा सकता । जिस सुविधा साधन, धन दौलत अथवा वैभव ऐश्वर्य से सुख नहीं, शान्ति नहीं, प्रसन्नता अथवा प्रफुल्लता नहीं उसका होना न होना बराबर ही नहीं बल्कि असुखकर सम्पत्ति की वर्तमानता भयानक रूप से दुःखदायी बन जाती है। पाप अपने स्वभाव के अनुसार अपने आश्रयदाता को न केवल इस जन्म में ही खाता रहता है बल्कि वह जन्मान्तरों में साथ लगा हुआ लोक परलोक को नष्ट करता रहता है। इस प्रकार भ्रमवश पापी को बाहर से भरा पूरा देखकर अपकर्म का समर्थन करना भारी भूल है इससे हर बुद्धिमान् व्यक्ति को बचे ही रहना चाहिये।

सत्कर्म लोक परलोक, जन्म-जन्मान्तर सभी जगह और आदि, मध्य व अन्त। तीनों कालों में सदा सुखकर ही होता है, सच्ची साधन सामग्री, समृद्धि तथा धन धाम और उससे मिलने वाली सुख शाँति का हेतु पुण्य परमार्थ ही है। जो शुभ विचारों के साथ सत्कर्मों में निरत रहता है उसे न राज्य का भय रहता है और न समाज का। न लोक की चिन्ता करनी पड़ती है और न परलोक की। उसका हृदय प्रसन्नता, प्रफुल्लता तथा सुख शाँति से ओत प्रोत रहता है, चैन की नींद सोता है और निश्चिन्त होकर विचरता है।

जो कुछ कमाओ उचित मार्ग से और जो कुछ चाहो उसकी उपलब्धि निष्पाप प्रयत्नों द्वारा करो। किसी स्थान अथवा काल में दुःख का कोई कारण ही उत्पन्न न होगा। और यदि होगा भी तो उसकी आत्मा में भरा पुण्य परमार्थ का व्रत उसका प्रभाव न पड़ने देगा। पुण्य परमार्थी, सत्यव्रती यदि एक बार धनहीन भी रहता है तब भी उसका सन्तोष, उसका धैर्य उसको उम्र भर तक प्रसन्न और आन्तरिक सम्पन्नता से ओत प्रोत ही रखेगा। जिस धनहीनता का कोई आतंक नहीं वह रहे अथवा चली जाये इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। पुण्य परमार्थ का निश्चित फल आत्मसुख व आत्म संतोष है।

स्थायी एवं यथार्थ सुख की आकाँक्षा है तो कर्म परिपाक में विश्वास रखकर पुण्य परमार्थ का मार्ग अपनाना ही होगा। नहीं तो झूठे सुख और सच्चे दुःख के बीच यों ही जीवन गँवाना होगा।


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