नीलकण्ठ विष पियो (Kavita)

May 1967

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घट-घट ने रस नहीं, द्वेष-विष की धारा ढुलकाई,

आज सुधा की नहीं, धरा पर बाढ़ गरल की आई।

देवों का दल दुबक रहा दनुजों की मति चकराई,

इसे तुम्हारे सिवा कौन पी सकता है विष-पायी।

सुधा सुरों का पेय सुरा असुरों ने पीना सीखा,

मानव तेरे बाँट पड़ा है यही हलाहल तीखा।

अधर फिरायें विष-धारा तो कायरता ही होगी,

तुम्हीं हुये यदि मीत, पिये विष किसमें क्षमता होगी।

मुकर गये तो फिर अंकित होगा कालिख का टीका,

मर्त्यलोक के महामहिम का होगा गौरव फीका।

अमिय सुरा मत माँग मनुज, यह तेरा पेय नहीं है,

यह औरों का भाग इसे पीने में श्रेय नहीं है।

इनकी ओर निहार ललकना दुर्बलता है भारी,

नीलकण्ठ विष पियो विश्व का आज तुम्हारी बारी।

इसे तुम्हारे सिवा पान कर कौन पचा सकता है?

विष प्लावन से आज धरा को कौन बचा सकता है।

उठता हुआ उफान शान्त हो, हे अगस्त्य, विष सोखो,

एक बूँद रह जाए न भू पर इस प्लावन को रोको।

तोड़ो सपनों की समाधि अब जागो कर्मठ योगी,

पियो पियो यह विश्व हलाहल मधु वितरो उद्योगी।

-श्री लाखनसिंह भदौरिया “शैलेन्द्र”


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