मैं भी मरना चाहता हूँ-
जब नेपोलियन अपनी सेना को लेकर किले के बाहर निकला, सामने गगनचुम्बी आल्पस पर्वत सर ऊँचा किये खड़ा था। गर्व और मद भरी वाणी में मानो वह घोषणा कर रहा था मैं अजेय हूँ आज तक कोई भी पार नहीं कर सका है। केवल आकाश ही मुझसे ऊँचा है किसी मनुष्य की क्या ताकत जो कि मुझ पर पग रख सके।
नेपोलियन ने अपनी सेना को आज्ञा दी - ऊपर चढ़ जाओ। पर्वत की तलहटी में एक वृद्धा अपनी झोंपड़ी में बैठी लकड़ियाँ काट रही थी। नेपोलियन द्वारा सेना को दिये गये आदेश को उसने सुना, सुनकर नेपोलियन की ओर मुखातिब हुई और कहने लगी-व्यर्थ जान क्यों गँवाते हो? तुम्हारे जैसे सैंकड़ों मनुष्य यहाँ आये और मुँह की खाकर वापिस चले गये। उसकी सेना और उनके घोड़े देखते-देखते पर्वत के गर्भ में समा गये। उनकी हड्डियाँ तक आज शेष नहीं मिलीं। नेपोलियन ने हीरों का एक हार गले से उतारकर वृद्धा को भेंट किया और कहा-मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ तूने मेरा उत्साह बढ़ाया है। मैं पर्वत की ऊँचाई देखकर घबरा रहा था, किन्तु तुम्हारी बातों ने मेरे उत्साह को दुगना कर दिया है। मैं भी दूसरे लोगों की तरह मरना चाहता हूँ यदि जीवित दूसरी ओर चला गया तो मेरे नाम का डंका बजाना तुम्हारा कर्तव्य होगा।
वृद्धा ने कहा-तुम पहले आदमी हो, जिसने मेरी बात सुनकर वापिस जाने से इन्कार किया। मुझे निश्चय है तुम जो करने या मरने का व्रत लेकर आये हो उसमें अवश्य सफल होगे। नेपोलियन वास्तव में सफल हुआ आल्पस ऊँची गर्दन करके उसकी विजय का डंका बजा रहा है।