ज्ञान, कर्म और भक्ति-योग की समग्र साधना

May 1967

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मनुष्य तीन शरीर धारण किये हुए है। जिस प्रकार शरीर पर बनियान, उसके ऊपर कुर्ता, उसके ऊपर कोट पहनते हैं उसी प्रकार आत्मा पर तीन परिधान लिपटे हुए हैं। केले के तने में एक के भीतर एक पर्त निकलता है, प्याज के छिलके के भीतर एक छिलका होता है, उसी प्रकार जीव अपने ऊपर तीन शरीर धारण किये हुए है एक का नाम है स्थूल शरीर, दूसरे का सूक्ष्म शरीर, तीसरे का कारण शरीर। यह तीनों ही अविच्छिन्न रूप से एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं और इन तीनों के समुचित विकास पोषण से ही जीव को अभीष्ट सुख शान्ति एवं विभूतियों की प्राप्ति होती है।

इन तीन शरीरों के रूप सुसंतुलित विकास ही साधना का एकमात्र प्रयोजन है। ईश्वरीय अनुकम्पा के लिये दैवी अनुग्रह प्राप्त करने के लिए भगवान् से कुछ कहना सुनना नहीं पड़ता। वह हर किसी को उसकी पात्रता के अनुदानों की निरन्तर वर्षा करता रहता है। यह सोचना ठीक नहीं कि जितना ज्यादा अनुरोध किया जाएगा उतना ही ईश्वर देगा। वरन् सच तो यह है कि वह सारी सृष्टि को एक विधि व्यवस्था के अनुसार चला रहा है, यहाँ तक कि वह स्वयं भी अपने नियमों में आबद्ध रहता है। यदि वह सुनिश्चित विधि व्यवस्थाओं का उल्लंघन करे तो सारा संसार ही अव्यवस्थित हो जाए। ईश्वरीय उपासना का अर्थ है- दैवी गुण कर्म स्वभाव से अपने आपको अलंकृत करना। इस दिशा में जो कुछ भी प्रयास किया जाएगा वह सारा का सारा साधना के अंतर्गत आ जाएगा।

जिस प्रकार व्यायामशाला में शरीर को -स्कूल में मस्तिष्क को और मन्दिर में आत्मा को परिष्कृत, परिपुष्ट करके सर्वांगीण जीवन विकास की व्यवस्था बनाई जाती है उसी प्रकार इन तीनों शरीरों में देवत्व की मात्रा बढ़ाकर आत्मबल बढ़ाया जाता है, आन्तरिक स्तर ऊँचा उठाया जाता है। इस दिशा में जितनी ही ठोस प्रगति होती है उतनी ही साधना सफल बन जाती है। हम पात्रत्व के अनुरूप ईश्वरीय विशेष अनुग्रह प्राप्त करते चलते हैं और बाह्य जीवन को समृद्धियों से तथा भीतरी जीवन विभूतियों से भरा-पूरा देखकर आनन्दित होते हैं। आन्तरिक जीवन की सफलताओं को ऋद्धियाँ और बाह्य जीवन की सफलताओं को सिद्धियाँ कहते हैं। सच्ची साधना इन दोनों ही स्तरों पर फलित होती है।

साधना के दो स्तर हैं एक असामान्य दूसरा सामान्य। असामान्य स्तर की साधना की सरकस में दिखाये जाने वाले कौतूहलपूर्ण करतबों से तुलना की जा सकती है। सरकस के कलाकार विशेष मनोयोग से, विशेष मुस्तैदी के साथ, विशेषज्ञों के प्रशिक्षण में विशेष रूप में शिक्षा प्राप्त करते हैं और वे पतले तार के ऊपर एक पहिये की साइकिल चलाने, आकाश में टँगे झूलों पर आश्चर्यजनक रीति से झूलने, ऊँची सीढ़ी से कूदने, कुंए में मोटर साइकिल चलाने जैसे आश्चर्यजनक प्रदर्शन कर सकने में सफल होते हैं। ऐसे कलाकारों को वेतन भी अधिक मिलता है और सरकस का भी आकर्षण बढ़ता है। योग साधनाओं की विशेष प्रक्रियाएं इसी स्तर की हैं। हठ-योग, लय-योग प्राण-योग, ऋजु-योग, कुण्डलिनी योग, ग्रन्थि भेद, पश्चागिन विद्या, तंत्र प्रयोग आदि 84 प्रकार के योग साधन इसी प्रकार के हैं इनके लिये असाधारण अभ्यास करने पड़ते हैं और असाधारण वातावरण में असाधारण क्रम का जीवन-यापन करना पड़ता है। वनवासी तपस्वी और योगी इसी स्तर का साधना मार्ग अपनाते हैं । इसके विशेष लाभ भी हैं और विशेष चमत्कार भी। पर सर्व साधारण के लिये यह अति कठिन मार्ग है।

सामान्य जीवन यापन में यह सब बन नहीं पड़ता। सरकस में काम करने वाली युवतियाँ यदि सामान्य गृहस्थ जीवन बिताना चाहें, बाल बच्चे उत्पन्न करें, चूल्हा-चक्की सम्भालें तो बेचारी सरकस के लायक स्वास्थ्य कहाँ सुरक्षित रख सकेंगी? उन्हें तो अविवाहित ही रहना होता है और उसी ढर्रे का जीवन क्रम बनाना पड़ता है जो सरकस में काम करने वालों के लिये सुविधाजनक है। विशिष्ट आत्मिक विभूतियों की जिन्हें आकाँक्षा है उनके लिये उपर्युक्त प्रकार का असामान्य साधना पथ भी है और उसका एक विशेष विज्ञान भी। पर उसकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। अखण्डज्योति के पाठक उस स्तर के नहीं हैं । उनके लिए सामान्य जीवन यापन ही सुविधाजनक है इसलिये साधना प्रकरण भी उन्हें सामान्य स्तर का ही उपयुक्त हो सकता है।

सामान्य स्तर की साधनाओं का भी अपना महत्व है। घर गृहस्थी सम्भालने वाले, साधारण जीवनक्रम अपनाने वाले भी यदि ठीक तरह से अपना कार्यक्रम निबाहें तो सरकस के कलाकारों से भी बढ़कर स्वास्थ्य, यश और धन कमा सकते हैं । जो लाभ सरकस वालों को मिलते हैं उससे भी बढ़कर उन्हें मिल सकते हैं। इसलिए यह सोचना ठीक नहीं कि यदि सामान्य परिस्थितियों का जीवनयापन करना पड़ता है तो आत्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध बना रहेगा और जो लाभ योगी यती प्राप्त करते हैं वह हमें प्राप्त न हो सकेगा। वस्तुतः आत्मिक प्रगति का मार्ग उनके लिये भी योगियों की तरह ही खुला पड़ा है। प्रश्न केवल रास्ते की पसन्दगी है। मंजिलें दोनों ही एक लक्ष्य पर पहुँचती हैं। रास्तों में दिखाई पड़ने वाले दृश्यों के मनोरंजन का अन्तर मात्र है। एक रास्ता बन पर्वतों नदी सरोवरों के सुरम्य दृश्य दिखलाता हुआ उस स्थान पर पहुँचाता है, दूसरा गाँव बस्तियों और खेत खलिहानों के जाने पहचाने दृश्य दिखाता हुआ वहीं पहुँचा देता है। दोनों में से किस रास्ते जाया जाए? कौन-सा अधिक आकर्षक है? इस प्रश्न पर मतभेद हो सकता है और पसंद भी अलग-अलग हो सकती है? इसीलिये अनादि-काल से प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति-मार्ग के दो विधान बने चले आ रहे हैं।

अपने पाठकों को स्थिति के अनुरूप यहाँ सामान्य स्तर के साधना विधान की चर्चा करना ही उचित है। जो अधिकारी है उनके लिये षट्चक्र वेधन, कुण्डलिनी योग, ग्रन्थिभेदन, प्राण योग, हठ योग आदि की अन्यत्र चर्चा की जाएगी। इन पंक्तियों में तो उस सामान्य साधना विज्ञान का स्वरूप समझाया जाएगा जो सर्व साधारण के लिए गृहस्थ जीवन यापन करते हुए-कामकाजी दिनचर्या एवं परिस्थितियों के बीच भी सरल तथा सम्भव हो सकता है।

जिन तीन शरीरों की लेख के प्रारम्भ में चर्चा की गई है वे जीवन यापन के एक से एक बढ़कर सुविधा साधन हैं। इनकी शक्तियों का बहुत थोड़ा ज्ञान हमें है, जितना ज्ञान है, उसका सौवाँ भाग भी प्रयोग में नहीं लाया जाता यदि हम अपने आपको अपने तीन शरीरों को ठीक तरह जान लें, उनके भीतर विद्यमान अद्भुत क्षमताओं का स्वरूप समझ लें और उन्हें सही तरीके से प्रयोग में लाने लगें तो इसका परिणाम अद्भुत एवं आश्चर्यजनक ही हो सकता है। साधन-हीन अथवा सामान्य परिस्थितियों में उत्पन्न होकर जिन व्यक्तियों ने उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचने में सफलता पाई उनमें से प्रत्येक को किसी न किसी प्रकार अपने व्यक्तित्व के तीनों ही स्तरों को समर्थ बनाना पड़ता है। महापुरुष का अर्थ ही-व्यक्तित्व की दृष्टि से समग्र समर्थता है। प्रगति की धुरी यही है तीनों स्तरों की सफलतायें इसी उपलब्धि के ऊपर निर्भर रहती हैं।

देह, मन और हृदय के त्रिविधि परिधानों को स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर को विकसित करने के लिये जो भी तरीके हैं उन सबको कर्मयोग, ज्ञानयोग, एवं भक्तियोग की परिधि में सम्मिलित किया जा सकता है। यही तीनों ही साधनायें -आत्मा के त्रिविधि परिधानों को सुविकसित एवं सर्वांग सुन्दर बनाने में समर्थ रही हैं । कर्म योग से शरीर, ज्ञान योग से मन और भक्ति योग से अन्तःकरण की महान महत्ताओं का विकास होता है। यों मोटे तौर से आहार व्यायाम से शरीर, शिक्षा से मन और वातावरण से अन्तःकरण के विकास का प्रयत्न किया जाता है पर यह तरीके बाह्योपचार मात्र हैं।

जड़ों की गहराई तक ले जाने और उपलब्धियों को चिरस्थायी बनाने के लिये कुछ अधिक गहराई में जाना पड़ता है और कुछ अधिक मजबूत प्रयत्न करने पड़ते हैं इन गहरे और मजबूर प्रयोगों से आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना द्वारा गतिविधियाँ ही नहीं, प्रवृत्तियाँ भी बदल जाती हैं। यह परिवर्तन ही व्यक्तित्व को एक स्थिर ढाँचे में ढाल देने का प्रयोजन पूरा करता है।

तत्वदर्शी ऋषियों ने सर्व साधारण के लिये -जिस सामान्य स्तर की साधना पद्धति का निर्देश किया है उसे ही कर्म योग ज्ञान और भक्ति-योग की त्रिवेणी कहते हैं। इसमें स्नान करके जीव समस्त कषाय कल्मषों और पाप तापों से छुटकारा पाकर परम निर्मलता का मंगल आनंद उल्लास उपलब्ध करता है। यह त्रिविधि साधना जितनी सरल है उतनी ही महान् भी है। जिनने भी इस मार्ग को अपनाया उसी ने अपने भौतिक एवं आत्मिक जीवन को सुख-शांति, प्रगति एवं समृद्धि से परिपूर्ण किया है। आत्मबल बढ़ाने के लिए-आत्म -कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये-यह त्रिविधि साधना पद्धति निर्विवाद एवं निश्चित रूप से सफल होती रही है।

देश, काल, पात्र की स्थिति के अनुरूप साधनाओं के मूल उद्देश्य को सुरक्षित रखते हुए कार्य पद्धति में सामयिक हेर-फेर किये जाते हैं। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक समय-समय पर ऋषियों ने इस त्रिविधि साधना का-विभिन्न विधि विधानों के रूप में, अपने समय के साधकों की मनोभूमि और समाज की परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए, मार्ग-दर्शन किया है। आज की स्थिति के अनुरूप-अखण्ड ज्योति परिवार के -आज के साधक वर्ग के लिये -उपयोगी क्रिया विधान प्रस्तुत है।

युग निर्माण की प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रथम वर्षीय कार्यक्रम इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिये है। इसमें तीनों शरीरों के परिपुष्ट करने के लिये कर्म योग ज्ञान योग और भक्ति योग का इस ढंग से समावेश किया गया है, जिसमें व्यक्ति एवं समाज के सर्वांगीण विकास का पुण्य प्रयोजन भली प्रकार पूर्ण हो सके।

प्रातःकाल आँख खुलते ही चारपाई पर पड़े-पड़े जिस प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिये कहा गया है वह कर्म योग की आधार शिला है। हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत की विचारणा हमें इस बात के लिये प्रेरित करती है कि आज का दिन एक अनुपम सौभाग्य माना जाए और उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाए। इसके लिये क्या छोड़ना और क्या सीखना होगा इसकी योजना हर स्थिति के व्यक्ति की अलग-अलग ही हो सकती है और उसे वह अपनी परिस्थितियों के साथ ताल मेल बिठाकर स्वयं ही बना सकता है। जो कार्यक्रम बने उसके साथ-साथ किस स्तर की विचार धारा का समावेश रहना चाहिये यह एक महत्वपूर्ण पहलू है। काम को एक हलचल के रूप में ही किया जाए तो वह कर्म योग नहीं बनेगा। कर्मयोग वह कार्य है जो उच्च भावनाओं के साथ किया जाता है। दिनचर्या बनाकर यह भी निश्चित करना होगा कि जब वह काम किया जाए तो किस स्तर की भावनाएं उस समय मन में उठाई जायें। शरीर की हरकत और मन का भाव सम्मिश्रण मिलकर कर्मयोग बनता है। प्रातःकाल उठते ही दिनचर्या और भाव समन्वय का पूरा ढाँचा खड़ा कर लिया जाए और फिर दिनभर कड़ाई के साथ उस निर्धारण का पालन किया जाए तो खेती, दुकानदारी, नौकरी जैसा सामान्य जीवन-क्रम कर्म योग की साधना का फल प्रदान करेगा। रात को सोते समय अपनी सफलताओं के लिये ईश्वर के धन्यवाद और भूलों के लिये सम्बन्धित जीवों से सच्चे पश्चात्ताप के साथ क्षमा प्रार्थना करते हुए निद्रा देवी की-माता की गोद में शान्तिपूर्वक सो जाया जाए तो इस सामान्य क्रम के आधार पर हम दिन-दिन अधिक उत्कृष्ट स्तर के कार्य करते हुए अन्ततः इसी जीवन में सच्चे कर्मयोगी की तरह नर से नारायण बन सकते हैं।

सूक्ष्म शरीर का विकास करने के लिये मानसिक स्तर को परिष्कृत करने के लिये -ज्ञान योग की साधना है। उत्कृष्ट विचारों को मन में भरे रहना उसमें ईश्वर की भावनात्मक प्रतिमा प्रतिष्ठापित किए रहना ही है। इसलिए प्रेरक स्वाध्याय वस्तुतः एक प्रकार की ईश्वर उपासना ही है। यों रूढ़िवादी लकीर पीटकर कूड़े करकट जैसी किन्हीं बूढ़ी, पुरानी, किस्से कहानियों की किताबों को घोटते रहना भी आज स्वाध्याय के नाम से पुकारा जाता है पर वास्तविक स्वाध्याय वह है जिसकी एक-एक पंक्ति हमें व्यवहारिक जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने की प्रेरणा से ओत-प्रोत हो। ऐसा स्वाध्याय दैनिक-जीवन का एक अविच्छिन्न नित्य-कर्म माना जाए। व्यक्ति एवं समाज के नव-निर्माण के लिये जो प्रेरक स्वाध्याय-साहित्य विनिर्मित हो रहा है उसके लिए आहार निद्रा जैसी दैनिक आवश्यकताओं की तरह ही समय निकाला जाए तो इससे ज्ञान-योग की महती आवश्यकता पूर्ण होती चलेगी।

ज्ञान-योग की साधना अपने तक ही सीमित न रहकर आज की परिस्थितियों के अनुरूप उसे ज्ञान-यज्ञ का भी रूप देना पड़ेगा। समाज में सबसे बड़ा दुर्भिक्ष सद्विचारणाओं का है। इस अकाल के कारण सारा संसार अपराधी, कुकर्मी और उद्धत बना हुआ है। शोक सन्ताप की-दुःख दारिद्रय की आग में जल रहा है । इस स्थिति को बदला ही जाना चाहिये। यह कार्य जन-मानस का स्तर बदलने से ही सम्भव है। विचारक्रान्ति आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। ज्ञान-यज्ञ का महान् अभियान इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। अपने प्रभाव क्षेत्र में नवनिर्माण की विचार धारा को अधिकाधिक व्यापक बनाना एक ऐसा पुण्य परमार्थ है जिस पर मानव-जाति के उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ निर्भर हैं। एक घण्टा समय और दस पैसा प्रतिदिन खर्च करना देखने में एक छोटा ही काम करते हैं पर वस्तुतः उसका सम्मिलित परिणाम इतना महान् है कि युग परिवर्तन की सम्भावना उतने मार्ग से भी मूर्तिमान हो सकती है। साधक का अपना ही नहीं, समस्त विश्व का कल्याण भी उससे हो सकता है।

भक्ति-योग का तात्पर्य है अन्तरात्मा में प्रेम भावनाओं का अविच्छिन्न निर्झर झरना। भगवान् को अपना अनन्यतम प्रेमी-माता-मानकर उभय पक्षीय प्रेम हिलोरे की अनुभूति का स्मरण करना एक ऐसा प्रभावकारी अभ्यास है जिससे रुँधे हुए प्रेम स्रोत पुनः सजल होने लगते हैं और यह स्रोत जब प्लावित होने लगते हैं तो उनकी सजलता समीपवर्ती सारे क्षेत्र को सरस, स्नेह सिक्त एवं हरा-भरा बना देती है। सच्चा प्रेमी-सच्चा भक्त -केवल ईश्वर की प्रतिमा की ध्यान छवि को ही प्यार नहीं करता वरन् ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ईश्वरीय सत्ता से -प्राणि मात्र से अनन्य आत्मीयता भरा प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। करुणा, दया, सेवा, उदारता, सहृदयता, सद्भावना, सहानुभूति सज्जनता के रूप में उसको पग-पग पर उसे कार्यान्वित करना पड़ता है। प्रेमी न परिग्रही हो सकता और न स्वार्थी। ईश्वर भक्त के लिये एक ही मार्ग है, अपनी समस्त उपलब्धियों को विश्व मानव के चरणों पर भावना ही नहीं व्यवहार से भी समर्पित कर देना। इस समर्पण से कम में ईश्वर कभी किसी भक्त को अपनी कृपा करुणा-उदार अनुकम्पा प्रदान नहीं करता । ईश्वर भक्त को एक आदर्श चरित्र - लोक मंगल में अपना सर्वस्व समर्पण किये हुए परमार्थ परायण व्यक्ति के रूप में ही देखा जा सकता है। परिवार का पालन भी वह इसी दृष्टिकोण के साथ करता है और समस्त लोगों के साथ उसका व्यवहार क्रम इसी आधार पर चलता है।

फरवरी अंक में उपासना के साथ जिस भाव समन्वय का विधान बताया गया है वह आज की स्थिति में सर्वोत्तम भक्ति-योग है। एक वर्ष के छोटे बालक जैसा जिसका हृदय वासनाओं और तृष्णाओं से रहित है जिसका अन्तःकरण निर्मल एवं निश्चिन्त है वही भक्तियोग का अधिकारी है। उसे ही ईश्वर को अपना कहने और अपने को ईश्वर का बना देने का पात्रत्व मिलता है। इसी मनोभूमि पर पहुँचकर शबरी, मीरा,सूर, तुलसी, आदि भक्तों ने तथा सभी ऋषियों मुनियों ने ईश्वर दर्शन आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्माण का परमानन्द प्राप्त किया था। वही राज-मार्ग हमारे लिये भी खुला पड़ा है। नाम और रूप के आधार पर जप और ध्यान की साधना बहुत दिनों से हम करते रहे हैं। अब यदि उसमें उपरोक्त स्तर का भाव समावेश भी किया जा सके तो उससे भक्ति योग की आवश्यकता पूर्ण हो जाएगी।

हम एक साथ तीन शरीर धारण किये हैं और एक साथ तीन जीवन जीते हैं। हर शरीर एवं हर जीवन की अपनी विशेषता एवं अपनी महत्ता है। इनके विकसित एवं परिपुष्ट होने पर जो भौतिक एवं आध्यात्मिक लाभ मिलते हैं वे भी अनोखे हैं। अपने निर्माण एवं विकास में सफलता प्राप्त कर लेने का अर्थ है-संसार की समस्त बाधाओं को जीत लेना और प्रगति के समस्त अवरोधों को समाप्त कर देना। साधना इसी दिशा में अग्रसर होने का विज्ञान सम्मत, शास्त्र सम्मत अनुभूत उपाय है कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग की त्रिविधि साधना सम्पन्न करके इसी प्रयोजन की पूर्ति की जाती है। आरंभ कैसे और कहाँ से किया जाए, इसका पथ प्रदर्शन अपनी प्रथम पंच वर्षीय योजना के प्रथम तीन कार्यक्रम पूरा करते हैं। साधना की प्रगति के अनुरूप हर वर्ष आगे का पथ प्रदर्शन मिलता रहेगा जिस पर चलते हुए परिजन इतना आगे बढ़ सकते हैं कि उन्हें फिर आगे का मार्ग-दर्शन किसी दूसरे की सहायता पर अपेक्षित न रहेगा, वरन् अन्तःप्रकाश के आधार पर ही वे पूर्णता के लक्ष्य पर द्रुतगति से अग्रसर होते रहेंगे।

अपनी पंचवर्षीय प्रथम योजना देखने में ही एक सामाजिक कार्यक्रम सरीखी लगती है पर वस्तुतः वह एक ऐसी आध्यात्मिक योग साधना है जिसे अतिशय सरल और साथ ही अभिशाप महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। इसमें व्यक्ति के लिये स्वर्ग मुक्ति की पूरी-पूरी सम्भावनायें विद्यमान हैं। वह उत्कृष्ट व्यक्तित्व उपलब्ध करके महापुरुषों की पंक्ति में बैठने का अधिकारी बन सकता है और उन सफलताओं तथा विभूतियों का अधिकारी बन सकता है जो समर्थ व्यक्तियों को अनायास ही मिलती रहती हैं। किसी को आश्चर्य में डाल देने वाले खेल तमाशे दिखा देना तो जादुई करामात है, आध्यात्म की जो असली ऋद्धि-सिद्धियाँ विकसित व्यक्तित्व के आधार पर मिलती हैं उन्हें पाकर मनुष्य उतना आगे बढ़ जाता है जिस पर पहुँचकर “भक्त के वश में भगवान् होने की” उक्ति सार्थक सिद्ध होती है।

व्यक्ति निर्माण की-समाज निर्माण की-युग परिवर्तन योजना इन तीन साधनाक्रमों पर अवलम्बित है जन्म दिनों का मनाना और मथुरा में आरम्भ किये गये विद्यालय को सफल बनाना यह दो कार्यक्रम शाखाओं और संचालक केन्द्र बिन्दु को सुदृढ़ बनाने वाले आधार हैं। ये सफल हो सकें तो त्रिविध साधना क्रम को विश्वव्यापी बना सकने की संगठनात्मक संभावना बढ़ जाएगी। इसलिए इन दो कार्यों को प्रथम पञ्चवर्षीय योजना के हाथ पैर कह सकते हैं। वस्तुतः उसका प्राण तो उपरोक्त त्रिविधि साधना क्रम पर ही अवलम्बित है, उसी से धरती पर स्वर्ग अवतरित होने का भगीरथ प्रयास पूर्ण होगा इसी माध्यम से सुख-शान्ति की सुधा-सुरसरि इस पुण्य धरित्री पर प्रवाहित करने का स्वप्न साकार बनेगा।


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