दान-अहसान नहीं, एक प्रायश्चित

May 1967

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माता के स्तनों में उतना ही दूध उतरता है जितना बच्चे के शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक है। इसमें कमी तो पड़ सकती है, पर बढ़ोतरी की कोई सम्भावना नहीं। शायद ही कभी ऐसी कोई माँ देखी गई हो जो बच्चे की आवश्यकता से अधिक दूध देती हो। धरती माता के बारे में भी यही बात है-प्रकृति माता के बारे में भी यही बात है। वे उतनी सुविधा सामग्री उत्पन्न करती हैं जितनी कि जीव-धारियों के उचित निर्वाह के लिये आवश्यक है। भगवान ने मनुष्य को शरीर दिया है साथ ही प्रकृति ने यह व्यवस्था की है कि उस शरीर की रक्षा के लायक सामग्री उत्पन्न एवं उपलब्ध होती रहे। यही विधान अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए समाज के मूर्धन्य लोगों ने यह व्यवस्था बनाई कि हर व्यक्ति उतनी ही सुविधा सामग्री उपभोग करे जितनी कि उसके जीवित रहने के लिये आवश्यक है। अधिक का न तो संग्रह करे, न उपभोग। क्योंकि यदि कुछ लोग अधिक संग्रह एवं उपभोग करने लगेंगे तो उतना ही भाग दूसरे लोगों को कम पड़ेगा और उन्हें अभाव-ग्रस्त रहना पड़ेगा। समतल जमीन पर दीवार खड़ी की जाए तो उसमें जो मिट्टी लगेगी उससे कहीं न कहीं गड्ढा जरूर बनेगा। कोई व्यक्ति अमीर बन रहा होगा तो उतनी ही गरीबी किसी के पल्ले बँध रही होगी। इसलिये उचित यही समझा गया कि समाज में ऐसी व्यवस्था बनी रहे जिसके अनुसार हर व्यक्ति को उपभोग सामग्री लगभग समान रूप से मिलती रहे।

बेशक कई व्यक्तियों में प्रतिभा अधिक और कई में कम होती है। अधिक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति अपनी कुशलता, चतुरता एवं बुद्धिमत्ता के बल पर अधिक उपार्जन कर सकते हैं। इस उपार्जन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए ताकि उपभोग की सुविधा सामग्री अधिक मात्रा में प्रस्तुत एवं विकसित हो सके। पर इस बात का प्रतिबन्ध रखा जाए कि वह प्रतिभाशाली व्यक्ति अपने उपार्जन का स्वयं की स्वामी न बन बैठे, स्वयं ही उसका उपभोग न करने लगे, संग्रह करके सृष्टि का आर्थिक संतुलन न बिगाड़ने लगे। इस प्रकार का प्रतिबन्ध सदा से चला आ रहा है जो सर्वथा उचित है। यह प्रतिबंध जितने कड़े होते हैं, उनका जितनी कड़ाई से पालन होता है, संसार में उतनी ही आर्थिक सुव्यवस्था रहती है। उसमें ढील पड़ी तो दुनिया में एक ओर अभाव दारिद्रय और दूसरी और व्यसन व्यभिचार का बोल बाला हो उठता है। मनुष्य-मनुष्य के बीच उत्पन्न हुई इस प्रकार की अवाँछनीय असमानता समाज में बगावत एवं उच्छृंखलता की दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ाती है।

अमीर लोग अपने धन के बल पर अगणित प्रकार के व्यसन व्यभिचार अपनाते हैं। उनकी सन्तानें कुमार्ग-गामिनी विलासी, अहंकारी, स्वार्थी बनती हैं और अवाँछनीय दुष्प्रवृत्तियों की शिकार होकर शारीरिक मानसिक पारिवारिक सामाजिक सभी क्षेत्रों में पतन एवं विनाश उत्पन्न करती हैं। दूसरी ओर वैसा ही विलासी जीवन जीने की उत्कण्ठा सामान्य व्यक्तियों में उत्पन्न होती है, वे उतना उपार्जन तो कर नहीं पाते, देखा-देखी से हविस भड़क उठती है इसलिये वे अनुचित रीति से धन कमाने पर उतारू होते हैं। असमानता ईर्ष्या को जन्म देती है। गरीबों में ईर्ष्या और विलासिता की हविस भड़काने का बहुत कुछ उत्तरदायित्व अमीरों का है। अपराधों की जड़ यही है। यहीं से विभिन्न प्रकार के पाप और अपराध उत्पन्न होते हैं। चोरी, डकैती, जेब कटी, लूट, ठगी, हत्या, बेईमानी, व्यभिचार आदि की जो विभिन्न वेष-भूषा धारण किये दुष्टतायें सामने आती हैं उनसे मानव-जाति को अतिशय कष्ट एवं क्लेश सहना पड़ता है। उत्पीड़न और असुरता भी बढ़ती है और घृणा, द्वेष, भय, आतंक से सारा समाज उद्विग्न हो उठता है।

इन अपराधों को रोकने के लिए राज्य व्यवस्था यथासम्भव कुछ प्रयत्न करती है। उसने पुलिस, कानून, कचहरी, जेल आदि का प्रबन्ध किया है, पर उससे फोड़े पर मरहम चुपड़ने जैसा अकिंचन ही प्रतिकार होता है। जनमानस में भड़कने वाली विलासिता की तृष्णा एवं ईर्ष्या अपना काम करती रहती है, और राज्य व्यवस्था को चकमा देकर अपराध निर्बाध गति से पनपते और व्यापक विक्षोभ एवं सन्ताप पैदा करते रहते हैं। इस संकट का स्थिर समाधान करना हो तो अन्ततः हमें समस्या के मूल तक जाना पड़ना और जहाँ से यह दुष्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं वही कुठाराघात करना होगा।

तत्वदर्शी मनीषियों ने, शास्त्रकारों ने उपरोक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए परिग्रह को पाप और अपरिग्रह को पुण्य घोषित किया। गीताकार ने कहा है-जो अपनी कमाई आप ही खा जाता है सो चोर है। उपनिषद्कार ने कहा है-जो दूसरों को बाँटे बिना खाता है वह माँस खाता है। ईसा ने कहा है-सुई के नथुने में होकर ऊँट का निकल जाना सम्भव है पर मालदार का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकना सम्भव नहीं। इन उक्तियों और व्यवस्थाओं के पीछे एक ही संकेत है कि जिन्होंने अपने कौशल चातुर्य के बल पर कुछ इकट्ठा कर लिया हो वे उसे सज्जनतापूर्वक समाज को वापिस लौटा दे। दान इसी सज्जनता का नाम है। जिनके पास अपने समाज के जन साधारण की अपेक्षा अधिक सुविधा-सामग्री संचित है उनका न्याय-संगत सीधा-साधा कर्तव्य यही है कि उसे समाज में सत्प्रवृत्तियाँ पनपने के लिए वापिस कर दें। भारतीय धर्म में पग-पग पर दान-पुण्य की महिमा है। बिना दान के कोई धर्म कार्य सम्पन्न नहीं होता।

उपार्जन, संग्रह और उपयोग की पाशविक वृत्ति अति स्वाभाविक है। उसके लिए किसी को कहना सिखाना नहीं पड़ता। मन में बैठा असुर यह कार्य तो अपनी प्रबल प्रेरणा से स्वयं ही कराता रहता है। शिक्षा उस बात की दी जाती है, जिधर मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती। धर्मशास्त्र पग-पग पर दान की -पुण्य की-त्याग की प्रेरणा इसीलिए देते हैं कि स्वार्थ के असुर की तुलना में परमार्थ का देवत्व भी जीवित रहे। ईश्वर प्राप्ति के लिए सबसे प्रधान साधन त्याग ही बताया गया है। भगवान उसे ही प्यार करते हैं-उसे ही अपनाते हैं जो अपनी त्याग वृत्ति का-अधिकाधिक प्रमाण प्रस्तुत करता है। संग्रही और भोग-माया भ्रमित कहे जाते हैं और माना जाता है कि उन्हें उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने से सदा वंचित ही रहना पड़ेगा। साधु और ब्राह्मण की-वानप्रस्थ और संन्यास की दान और पुण्य की प्रचलित धर्म परम्पराएं यही उद्घोष करती हैं कि जो अपनी प्रतिभा एवं कुशलता का प्रतिफल स्वयं न लेकर समाज को वापिस कर देता है वही श्रेष्ठ है, वही सराहनीय है, वही धन्य है।

जिस समाज में हम पैदा हुए हैं वही हमारा परिवार है। हमें उन्हीं की तरह रहना चाहिये। घर के सारे व्यक्ति दुःख-दरिद्र से भरा कष्टकर जीवन बिताऐं और उनमें से एक आदमी गुलछर्रे उड़ाये तो उसे हर दृष्टि से घृणित कहा जाएगा, भले ही वह यह दलील देता फिरे कि मैंने कमाया है, इसलिये उस कमाई का मैं कुछ भी करूं। संयुक्त परिवार में ऐसी दलीलें निरर्थक मानी जाती हैं। सारा मानव समाज एक संयुक्त परिवार है। हर सहृदय व्यक्ति को वैसा ही अनुभव करना चाहिए। 90 प्रतिशत जनता जिस स्तर का जीवन-यापन करती है उसी स्तर का रहन-सहन, खर्च और उपभोग उन्हें भी रखना चाहिये, जो प्रतिभा सम्पन्न हैं। इसी में उनकी सज्जनता एवं महानता है। यदि वे ऐसा अनुभव नहीं करते, अपने देशवासियों की दुर्दशा से मुँह मोड़कर केवल अपनी, अपने कुटुम्ब की ही सुख-सुविधा सोचते हैं तो समझना चाहिये कि वे असामाजिक तत्व हैं, उन्हें हिंसक पशुओं की रीति-नीति पर चलने वाला हृदयहीन नर-पशु कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

विवेक और न्याय की पुकार ने धर्म और आध्यात्म में इस तथ्य का समावेश किया है कि व्यक्ति उदार, दानी त्यागी और परोपकारी बने, और इसके लिये स्वेच्छापूर्वक अपनी कमाई का उतना अंश अपने लिए रखे जिससे समाज की औसत जिन्दगी जी सकना सम्भव हो, शेष को दान ही कर दिया जाए। कबीर की इस उक्ति में धर्म और आध्यात्म का पूरा-पूरा तत्व ज्ञान सम्मिलित है-

पानी बाढ्यो नाव में, घर में बाढ्यौं दाम।

दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।

यदि प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी कोई व्यक्ति अपनी उपलब्धियों को दूसरे दीन-दुर्बलों की सहायता के लिये परित्याग करता है तो उससे समाज में बहुत ही मंगलमयी प्रतिक्रिया होगी । भोग और संग्रह से उत्पन्न हुए विक्षोभ द्वारा जिस प्रकार अपराधों का सृजन होता है उसी प्रकार त्याग, प्रेम, उदारता, महानता एवं सादगी का आदर्श उपस्थित करने पर परस्पर सेवा-सहायता की, उदारता, मित्रता की परम्परा प्रचलित होती है। देखा−देखी जैसे दुष्प्रवृत्तियाँ पनपती हैं वैसे ही सत्प्रवृत्तियाँ भी फैलती हैं। एक व्यक्ति उदार आदर्श उपस्थिति करे तो अनेकों को उस प्रकार का अनुकरण करने की भी आकाँक्षा उत्पन्न होती है। लोग वैसा करते भी हैं। सज्जन अपने भाषण से नहीं, चरित्र से जन मानस का निर्माण करते हैं। यदि यह उचित लगे कि संसार में प्रेम, सादगी, उदारता एवं आदर्शवादिता की परम्पराएं फैलें तो इसके लिये उन प्रतिभाशाली लोगों को आगे आना पड़ेगा जो प्रगतिशील एवं समर्थ हैं। बड़ों की बड़ी जिम्मेदारी भी है। साधारण सिपाही की अपेक्षा कप्तान से अधिक कर्तव्य-पालन की आशा रखी जाती है जिन्हें उपार्जन की चतुरता प्राप्त है उन्हें उस चातुर्य के आधार पर यह भी सोचना और करना चाहिये कि उनका संयुक्त परिवार, समाज सुखी रहे। इसके लिये जो कार्य सबसे आवश्यक, सबसे सरल है वह है कि अपनी सम्पन्नता को समाज-हित के लिए परित्याग कर दें। साधारण लोगों की तरह सादगी से रहें। जितना धन, बल, बुद्धिमान पास है उसे पिछड़ों को आगे बढ़ाने के लिये खर्च करना आरम्भ कर दें। इस दिशा में जो जितना साहस दिखा सकेगा वह उतना ही सच्चे अर्थों में बड़ा आदमी कहा जा सकेगा। अन्यथा अधिक कमाने और अधिक खाने की बुद्धिमत्ता अपनी दृष्टि से ही अच्छी हो सकती । हर विवेकशील उससे घृणा ही करेगा।

राजकीय स्तर पर भी इस तथ्य को स्वीकार कर लिया गया है जो कमाता है उसे स्वयं ही पूरा खा जाने का या अपने अंश-वंश के लिये जमा करके रख जाने का अधिकार नहीं है। उस उपार्जन को समाज के लिये वापिस किया जाना चाहिये। आमदनी के अनुरूप उत्तरोत्तर बढ़ते चलने वाले इनकम टैक्स रेट इसी आदर्श के अनुरूप हैं। सुपर टैक्स, सेल्स टैक्स, मृत्यु टैक्स आदि में अन्याय तनिक भी नहीं, वरन् सामाजिक न्याय के सिद्धान्त ही सन्निहित हैं। पूँजीवादी देशों में इस प्रकार की वापसी धीरे-धीरे थोड़ी-थोड़ी होती है किन्तु साम्यवादी देशों में इस संदर्भ में पहले से ही काफी कड़ाई कर दी गई है। प्रतिभाशाली व्यक्तियों की विशेषता उन्हें थोड़ी सम्पन्नता एवं थोड़ी -सी आवश्यक सुविधा जरूर देती है बाकी उसका सारा लाभ समाज को मिलता है।

लोहा, ताँबा, सोना आदि धातुओं की खानें एक स्थान पर निकलती हैं, पर उसका लाभ अन्य भू-भागों में रहने वालों को भी मिलता है। जहाँ खान निकले वहीं के लोग उन्हें उपभोग करें यह न्याय नहीं होगा। इस प्रकार जिस मस्तिष्क में प्रतिभायें उपजें वही उनका लाभ समेट कर बैठ जाए तो फिर खेत में ही अनाज और बाग में ही फलों का संग्रह करना पड़ेगा । दूसरे क्यों उससे लाभ उठा सकेंगे? बच्चों की विकास सुविधा के लिये उन्हें आवश्यक सहायता देना उचित है पर यह गलत है कि उन्हें उत्तराधिकार से इतनी सम्पत्ति दे दी जाए जिससे उन्हें फिर उपार्जन की चिन्ता ही न रहे। यह बालकों की प्रतिभा को कुँठित करने, और समाज में अस्वस्थ परम्परा प्रचलित करने की एक भयंकर बुराई है। इससे बालकों का भविष्य उज्ज्वल नहीं होता, अन्धकारमय ही बनता है।

जिन्हें असाधारण प्रतिभा प्राप्त है, जिनके सामान्य स्तर से अधिक आर्थिक साधन हैं, उन्हें स्वयं अधिक उपभोग करने की, बच्चों को सम्पत्ति बाँटने की, संग्रह करते रहने की विडम्बना का परित्याग करना चाहिये। अपने देश में पिछड़ापन बहुत है उसे दूर करने के लिए धन और प्रतिभा की भारी कमी पड़ रही है। जिनके पास वह हो उन्हें किसी पर अहसान जताने के लिए नहीं, यश और सम्मान पाने के लिए नहीं, वरन् इस प्रायश्चित्त के साथ समाज को लौटा देना चाहिये कि अब तक उसने ऐसा क्यों न किया? उदार एवं विवेकशील व्यक्ति के सामने तो हर घड़ी वह आवश्यकतायें विद्यमान रहती हैं जिनके लिए उन्हें योगदान करते ही रहना होता है। कठोर हृदय एवं अनुदार चित्त वाले व्यक्ति ही संग्रह कर सकते हैं। यह भूल जिनसे हुई उनके लिए प्रायश्चित्त यही है कि शरीर में संग्रहीत विष की तरह अनुचित संचय का परित्याग कर दें।


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