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June 1967

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न जाने यह मनुष्य की कौन-सी दुर्बलता है कि वह अपने किसी पीड़ित बन्धु को देख कर सम्वेदना के साथ सहायता के लिए दौड़ नहीं पड़ता। आज यदि एक मनुष्य दूसरे के दुख में हाथ बंटाने लगे तो संसार से दुःख दर्द को भागते देर न लगे। न जाने मनुष्य में यह सद्बुद्धि कब आयेगी? फिर भी इस ओर से निराश होने की तब तक आवश्यकता नहीं है जब तक इस धरती पर विलियम बूथ और एवे-पियरे जैसे जनसेवा का मार्ग दिखलाने और प्रेरणा देने वाले आविर्भूत होते रहें।

एक समय ऐसा भी रहा है जब इंग्लैंड और फ्राँस के लन्दन व पेरिस जैसे नगरों की गली-कूँचों और फुटपाथों पर हजारों अनाथ बच्चे और रोगी दोषी स्त्री-पुरुष भूखे प्यासे पड़े हुए पशुओं की तरह जीते और उन्हीं की तरह मरा करते ये। उन अभागों को एक टूक रोटी और दो चुल्लू पानी देने वाला तो दूर मनुष्यतापूर्ण दृष्टिकोण से भी देखने वाला कोई नहीं था। रोगी मरते , बच्चे रिरियाते, स्त्रियाँ व्यभिचार करतीं और पुरुष चोरी, उठाईगीरी और राहजनी करते, किन्तु फिर भी पेट की ज्वाला शान्त न हो पाती।

असहायों के नारकीय जीवन से उपजी बीमारियों और कुप्रवृत्तियों व अन्य विवादों का नागरिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता था किन्तु फिर भी कोई इस ओर ध्यान न देता था। किसी को यह सोचने समझने की फुरसत न थी कि आखिर यह भी मनुष्य हैं इनके सुधार सहायता के लिये हमारा भी कुछ दायित्व है।

इंग्लैंड के विलियम बूथ और फ्रांस के एवेपियरे नामक दो-महात्माओं की दृष्टि अपने-अपने देश के इस कलंक पर पड़ी और उन्होंने मानव-जीवन का ईश्वरीय सम्बन्ध मानकर इन अभागों उद्धार किया।


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