जितं जगत् केन? मनो हि येन

June 1967

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किसी गाँव में एक बालक रहता था। उसने हाथी, बैलगाड़ी, रेल, मोटर आदि सभी सवारियाँ चढ़ी थीं। ऊँट के विषय में उसने सुना था चढ़ा नहीं था। उसकी इच्छा सदैव ऊँट की सवारी करने को हुआ करती थी।

एक बार वह घर को लौट रहा था। रास्ते में एक व्यापारी अपने ऊँट को बैठाकर नदी में स्नान करने चला गया था। ऊँट को विश्राम देने के लिए उसने काठी और नकेल दोनों खोल दी थीं। ऊँट देखते ही बालक प्रसन्नता से नाचने लगा। वर्षों की अधूरी साध पूरी करने का इससे सुन्दर अवसर कहाँ मिलता? छलाँग लगाई और ऊँट की पीठ पर जा बैठा। अपने स्वभाव के अनुसार ऊँट एकाएक उठा और रास्ते-कुरास्ते भाग चला। लड़का घबड़ाया पर क्या हो हो सकता था। नकेल भी नहीं, ऊँट को काबू कैसे करता। जिधर जी आया ऊँट उधर ही भागता रहा। बालक की घबराहट भी उतनी बढ़ती गई। मार्ग में दो पथिक जा रहे थे, बालक की घबराहट देख कर उनने पूछा बालक कहाँ जाओगे? लड़के ने सिसकते हुए जवाब दिया-भाई जाना तो घर था किन्तु अब तो जहाँ ऊँट ले जाये वहीं जाना है। इसी बीच वह एक पेड़ की डाली से टकराया और लहूलुहान को कर भूमि पर जा गिरा।

बालक की कहानी पढ़ कर लोग मन ही मन उसकी मूर्खता पर हँसेंगे पर आज संसार की स्थिति भी ठीक इस बालक जैसी ही है। मन के ऊँट पर चढ़ कर उसे बेलगाम छोड़ देने का ही परिणाम है कि आज सर्वत्र अपराध, स्वेच्छाचारिता, कलह और कुटिलता के दर्शन हो रहे हैं। मन के नियंत्रण में न होने के कारण ही लोग पारलौकिक जीवन की यथार्थता, आवश्यकता और उपयोगिता को भूल कर लौकिक सुख-स्वार्थ की पूर्ति में संलग्न हो गये हैं कि उन्हें भले-बुरे, उचित अनुचित का भी ध्यान नहीं रहा।

मनुष्य के शरीर में सभी कुछ महत्व का है और तो और नाखून पंजे, उँगलियाँ और पाँव, हाथ तक बड़े उपयोगी हैं, परन्तु मन का महत्व सर्वाधिक है। इसकी विलक्षण शक्तियाँ है। मनुष्य का सुख दुख, बन्धन और मोक्ष यह सभी मन के आधीन है। शास्त्रकार ने कहा है-”मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयो” मनुष्यों के बन्धन ओर मोक्ष दोनों का कारण मन ही है। साँसारिक वैभव चाहिये तो उसको भी मन प्रदान करता है और परम-सुख, मोक्ष चाहिए तो उसका भी प्रदाता मन ही है। मनुष्य की सेवा में हर घड़ी मन ताबेदार सेवक की तरह तैयार खड़ा रहता है वह कभी थकता नहीं, कभी रुकता नहीं। कभी वृद्ध नहीं होता सतत् उद्योग उसका स्वभाव है। इच्छाएं करते रहना और उनकी पूर्ति के पीछे भागते फिरने में ही उसे आनन्द आता है मन की सामर्थ्य अपार है यह सब कुछ कर सकता है। किन्तु उसमें स्वेच्छाचारिता की बुराई भी है। अनियंत्रित मन नकेल रहित ऊँट की तरह ही मनुष्य को पथ भ्रष्ट करता और घर-जीवन लक्ष्य-की ओर ले जाने की अपेक्षा इन्द्रिय सुखों के बीहड़ में ले जाकर किसी रोग, शोक, कलह कुटिलता कुसंग कुमार, कुटेल से टकराकर पटक देता है। मनुष्य का जन्म जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिये हुआ था उसका स्मरण भी नहीं आता, उल्टे यह जीवन भी नारकीय बन जाता है।

सारी सिद्धियों का मूल मनःसंयम में है। परन्तु वह केवल साधारण पुरुषार्थ से मिल जाने वाली नहीं। मन को साधना किसी भी पुरुषार्थ से, योग से बढ़कर है इसीलिए शास्त्रकार ने कहा-”जितं जगत केन? मनो हि यने” जिसने मन को जीत लिया उसने संसार को जीत लिया।

मन की शक्तियाँ विलक्षण हैं। मनुष्य का सुख-दुख बन्धन और मोक्ष मन के अधीन है। संसार में ऐसा कोई स्थल नहीं जहाँ मन न जा सके, लोक और परलोक में भी मन एक पल में जा सकता है। जिसे आंखें देख नहीं सकतीं, जो कान सुन नहीं सकते, मन उसे भी सरलता से ग्रहण कर सकता है उसकी चंचलता को रोका जा सके और पारदर्शी काँच की तरह स्वच्छ बनाया जा सके तो आत्म साक्षात्कार का नित्य निरतिशय सुख भी मन के आधीन है। “मन सैवानुद्रष्टव्यम्” आत्मसाक्षात्कार के लिए मन ही नेत्रवान् है ऐसा श्रुति में कहा गया है।

संसार में हम जो भी उन्नति और उत्कर्ष प्राप्त करते हैं। उनका मुख्य कारण हमारा स्वस्थ शरीर, परिपक्व ज्ञान, और सक्षम ज्ञानेन्द्रियाँ कही गई हैं। कानों से सुनाई न देता हो, पावों से चल न सकते हों, आँखों में देखने शक्ति न हो, तो कितनी ही कुशाग्र बुद्धि क्यों न हो, न तो किसी सफलता का सम्पादन कर सकता है और न अर्थोपार्जन। ऐसा व्यक्ति संसार में दीन-हीन ही रहेगा। अपनी साधारण जीवन यात्रा के लिए भी वह दूसरों का भार बनकर जियेगा। स्वस्थ और सक्षम ज्ञान और कर्मेन्द्रियाँ ही हमारे विकास के मुख्य साधन हैं परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि इनका प्रवर्तक हमारा मन है। यदि मन असहयोग करे, कुमार्ग में चलने की हठधर्मी करे तो एक भी इन्द्रिय प्रयोजन की, काम की नहीं हो सकती। श्रेयमार्ग पर, इन्द्रियों की क्षणिक वासना में भटका कर शरीर को रोग-शोक का घर बना देने वाला अपना मन ही है।

मनुष्य का मन पारे की तरह है। अशुद्ध पारा खा लेने पर मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जाता है किन्तु वही पारा जब शुद्ध और आयुर्वेदिक रीति से संस्कारित कर लिया जाता है तो वह एक अमूल्य औषधि बन जाता है। संस्कार ही मन मनुष्य के अमूल्य जीवन को नष्ट भ्रष्ट कर डालता है और यदि मनुष्य का मन सुसंस्कृत है तो वह इस लोक ओर परलोक में भी आनन्द प्राप्त करता है, उसका उद्धार हो जाता है।

मन की व्याख्या में इतना जान लेना आवश्यक है कि वह कोई स्थूल अंग नहीं है। हाथ को सरलता से बन्धन में लाया जा सकता है। नियंत्रित किया जा सकता है पर मन को नहीं। वह एक अदृश्य तत्व है। जीव के विचार करने के तंत्र को मन कहते हैं अन्तःकरण की जितनी उथल-पुथल है उसका कारण मन ही है। अंतर्जगत में क्रियाओं की प्रेरणा देने वाली शक्ति का नाम मन है वह प्रेरणायें अच्छी भी हो सकती हैं बुरी भी, उपयोगी भी हो सकती हैं और अनिष्टकारक भी। उपयोगी प्रेरणाओं पर चलने से अच्छे कार्य होते हैं अच्छे फल मिलते हैं वैसे ही बुरे विचारों का प्रतिफल बुरा होता है। इन्हीं दो अवस्थाओं में जागरुकता और दृढ़ता-पूर्वक अच्छाई को पकड़े रहने का नाम मनो-नियंत्रण है। मन की इच्छाओं में केवल उन्हीं को क्रियान्वित किया जाए जो आत्मा के विकास के लिये आवश्यक है। इससे अधिक इन्द्रिय सुखों की तृष्णा को दबाये रखना ही चतुराई है। मनोनिग्रह है जो इस कला को सीख लेते हैं उनका यह जीवन भी सफल होता है और परलोक भी। इसीलिये मन को ही बन्धन और मुक्ति दोनों का कारण बताया गया है।

प्रत्यक्ष प्रमाणों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान वस्तुतः मन के द्वारा ही उत्पन्न होता है। जब शरीर को कोई कष्ट होता है। भूख लगती है, सर्दी या गर्मी की पीड़ा होती है, तब बुद्धि में ज्ञान की स्फुरणा बन्द हो जाती है। यद्यपि ज्ञान ही मनुष्य की विशेषता है, ज्ञान ही से मनुष्य का जीवन मधुर है और मोक्ष भी प्राप्त होता है पर ज्ञान अपने आप में कोई वस्तु नहीं, वह मन की शक्ति है । इसलिये ज्ञान से भी बड़ी शक्ति मन है और वही मनुष्य के कल्याण अकल्याण का मुख्य कारण कहा गया है।

ऋषियों ने प्रार्थना में कहा है-

यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।

यस्मिंश्चिचं सर्वमोतं प्रजानाँ तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु॥

(शुक्ल यजु॰ 34।5)

अर्थात्-रथ चक्र की नाभि में जिस प्रकार पहियों के अरे प्रतिष्ठित है उसी प्रकार ऋक् यजुः ओर सामवेद का ज्ञान मन में प्रतिष्ठित है। ऐसी अपार सामर्थ्य और शक्ति वाला हमारा मन शुभ संकल्प वाला हो।

मन की शक्ति अपार है। वेगवान होने के कारण वह शीघ्र वश में नहीं आता। बिगड़ उठे तो ऊँट में चढ़ने के इच्छुक बालक की तरह झकझोर कर रख देता है। यदि मन शुद्ध, पवित्र और संकल्पवान बन जाए तो हमारे जीवन की धारा ही बदल सकती है। जिसने मन को जीत लिया उसने जगत को जीत लिया की कहावत चरितार्थ हो सकती है।


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