सर्वत्र अभय ही अभय हो।

June 1967

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आत्महीनता ही भय है, आत्मबल ही अभय। इसलिए अभय होने के लिए अपनी आत्मा को बलवान बनाना चाहिए। अपने जीवन-क्रम, विचारणा, संकल्प को इतना सशक्त बनाना चाहिए जिससे भय कहीं स्मरण ही न हो।

इसी बात की आकाँक्षा वेद को हुई उनने कहा-

अभयं मित्राद भयम्मित्राद भयं, ज्ञातादभयं परोक्षाद्।

अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशो मममित्रं भवन्तु॥

मित्र से मुझे अभय हो और शत्रु से भी मुझे अभय हो, ज्ञात से मुझे अभय हो और अज्ञात से भी मुझे अभय हो, दिन में मुझे अभय हो और रात में भी मुझे अभय हो। सब दिशाएं मेरी मित्र हों।

मित्र, पड़ोसी, परिजन जीवन व्यवहार में जिनके साथ संपर्क होता है वह भी सब हमारी ही तरह के आदमी होते हैं। दो हाथ दो पाँव, नाक, मुँह, आँख, दाँत, पेट, पीठ, सिर सब हमारी ही तरह। शारीरिक दृष्टि से कोई बड़ा अन्तर व्यक्ति और व्यक्ति के बीच नहीं होता है फिर एक दूसरे से डर किस लिये हो सकता है?

डर तभी हो सकता है जब हृदय कमजोर हो। हृदय कमजोर करने वाली एक ही वस्तु है संसार में चाहे उसे अविश्वास, अपघात, धोखेबाजी, बेईमानी कह लो अथवा पाप। मुख्य बात यह है कि हमें किसी से भय न हो इसके लिये यह भी आवश्यक है कि हम किसी के साथ क्षुद्रता न करें। जब कोई बुरी बात मन में आती है तभी मनःस्थिति कमजोर होती है और छुपाने का स्थान ढूँढ़ना पड़ता है। हमारे मन में उठने वाली भावनायें पवित्र हों योजनायें और विचार धारायें ऐसी हों जिनसे जीवन सुव्यवस्थित बनता हो, प्रगति होती हो, हमारे कार्य इतने स्वच्छ हों कि कभी किसी को ॐ गली उठाने का अवसर न मिले तो फिर डर भी किस लिये होगा? डर का घर नहीं रहेगा तो वह बसेगा कहाँ?

संसार में सब मित्र ही नहीं होते शत्रु भी होते हैं। विसंगतियाँ प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती हैं। आप अच्छे व्यक्ति हैं। आपकी भावनायें सदैव दूसरों का कल्याण चाहती हैं परोपकार, परमार्थ और पुण्य को जीवन का लक्ष्य मान कर चलने वाले लोगों के साथ भी खरपेंच लगाने वालों की कमी नहीं रहती। भलमनसाहत जितनी है दुष्टता भी उससे कम नहीं। इन्हीं को शत्रु कहा गया है।

पाप से बचो तो उसका संताप आक्रमण करता है-वाली बात है। नेकी पर चलो तो भी अहित चाहने वाले शत्रुगण सीधी राह नहीं चलने देते। उनसे भी भय होना स्वाभाविक है। इस भय से कैसे निपटा जाए, यह भी विचारणीय प्रश्न है।

ज्ञात को तो हम अपनी दृढ़ता, निश्चयता और सत्संकल्पों से अभय कर लेते हैं किन्तु अज्ञात से कैसे बचें यह भी जानना आवश्यक है।

फिर उसके लिये शक्ति और शौर्य अपेक्षित है। शत्रु का मुकाबला शक्ति से ही किया जा सकता है। शक्ति केवल शारीरिक नहीं वरन् मानसिक बौद्धिक और सामाजिक भी होनी चाहिए। शत्रु को परास्त करने के लिये शरीर बल भी चाहिये और जन-बल भी। वह दुश्मन की ताकत के अनुरूप होता है। एक व्यक्ति से अकेले लड़ा जा सकता है और अनेक से संगठित हो कर। अब शरीर की लड़ाई दिमागों में चली गई है। दाँव पेंच चलते हैं, कानून चलता है। इनसे सुलझने के लिये बौद्धिक शौर्य और मानसिक दृढ़ता भी आवश्यक है। मानसिक सन्तुलन, विचार शक्ति से ले कर कानूनी ज्ञान तक की बौद्धिक शक्तियों का आश्रय ही अज्ञात से अभय कर सकता है।

यहाँ तक पहुँचने के बाद एक चिन्ता उठ खड़ी हुई। दिन में मुझे अभय हो रात में भी अभय हो। दिन अर्थात् जो दिखाई देता है और रात अर्थात् जो बीत गई है दिखाई नहीं देती। अज्ञान की अवस्था का दूसरा नाम मनीषियों ने प्रारब्ध रखा है। पूर्व जन्मों में जो पाप और अनियमितताएं हो गई हैं और जिनका संस्कारीय सम्बन्ध अब तक जुड़ा हुआ है उनसे अभय कैसे हो?

जेल की सजा हो जाती है उससे छुटकारा पाना कठिन होता है पर उसे दंड से आगे वैसी भूल न करने की प्रेरणा दी जा सकती है। जीवन वस्तुतः इन परिस्थितियों से भी अधिक गूढ़ है। सामान्य स्थिति में अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का लेखा जोखा किया जाना कठिन है, पर यदि अपनी वृत्तियों पर गौर किया जाये तो यह समझा जा सकता है कि अपनी मनोभूमि का झुकाव किस दिशा में है। प्रेम की दिशा क्या है और उस दिशा में मनुष्य कहाँ तक बढ़ सकता है उसके दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं? इस तरह उनसे बचाव का पक्ष भी ढूंढ़ा जा सकता है।

एक व्यक्ति कामुक वृत्ति का है। उसकी चेष्टायें काम-वासना की ओर लगी रहती हैं। हर सौंदर्य को वह ललचाई दृष्टि से देखता है। समय असमय, संयोग असंयोग का उसे ध्यान नहीं रहता। इस दिशा में बढ़ता हुआ वह अपनी तमाम शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का पतन कर लेता है फिर चारों ओर भय ही भय रह जाता है। यह हमारे विश्लेषण की एक पद्धति है।

ऐसे-ऐसे सैकड़ों तरह के प्रारब्ध मनुष्य के जीवन में देखे जाते हैं जिसकी जैसी वृत्तियाँ हों उसे वैसी ही प्रारब्ध-मनोभूमि का मान कर आत्म संशोधन करना चाहिए जिससे भविष्य के लिये अंतस्वरूप स्वच्छ और निष्कलुषित हो जाए। अभय की अन्तिम स्थिति जीवात्मा की यह निष्कलुषता ही है। निष्पाप व्यक्ति ही सब दृष्टियों से सशक्त और समर्थ होते हैं। भले ही उनमें साधनों का अभाव दिखाई दे। इसी का नाम जन्मान्तर पुरुषार्थ है।

इस तरह सब ओर से निष्कलुष हुआ व्यक्ति सर्वत्र आत्म-भाव से देखता है। उसे सम्पूर्ण विश्व में एक ही निर्मल निष्पाप, निर्गुण, निराकार आत्मा जाग्रत दिखाई देती है। यह आत्मानुभूति की परिपक्वता जिस दिन आ जाती है उस दिन मनुष्य पूर्ण रूप से भयमुक्त हो जाता है उसे एक ही आवाज सुनाई देती है-

अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे।

अभयं पश्चाद भयं पुरस्तादुत्तरादधरादभय नो अस्तु।

यह अन्तरिक्ष मुझे अभय दे रहा है, ये द्याबा पृथिवी अभय दे रही है। मेरे पीछे और मेरे सामने, मेरे ऊपर और नीचे अभय ही अभय है।

जीवन का आरम्भ और अन्त

बहुत से लोग अनुचित साधनों और अवाँछनीय उपायों के बल पर उन्नति करते और जोर जुल्म के बल पर धनवान होते देखे जरूर जाते हैं किन्तु यह भी न भूलना चाहिए कि उनका अन्त बड़ा शोक पूर्ण होता है। मनुष्य के सारे समयों में उसका अन्तिम काल बहुत महत्वपूर्ण होता है। आयु के अन्तिम चरण में मनुष्य की सारी क्षमतायें समाप्त हो चुकती हैं।

आयु के पूर्व चरणों में जो मनुष्य बड़े से बड़े कष्ट सहन कर सकता है वह अन्तिम चरण में पहुँच कर कष्ट की कल्पना को भी नहीं सह पाता। तनिक सी निराशा थोड़ा-सा विषाद उसे मृत्यु के समान कष्टदायक हो जाता है।

जीवन के पूर्व काल में मनुष्य जो कुछ अच्छा बुरा इकट्ठा करता है जीवन के उत्तर-काल में उस निधि का भोग करता है। जिस प्रकार मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य योनियों में मुक्ति के लिए कर्म नहीं किये जा सकते ठीक उसी प्रकार आयु का अन्तिम चरण कुछ कर सकने में असमर्थ रहता है अपने उत्तर जीवन को ध्यान में रख कर जो बुद्धिमान जीवन के पूर्व चरण में सत्कर्मों के बीज बोता है वह उसके फल खाता हुआ आनन्द प्राप्त करता है।

जीवन के पूर्व काल में मनुष्य जो कुछ अच्छा बुरा इकट्ठा करता है जीवन के उत्तर-काल में उस निधि का भोग करता है। जिस प्रकार मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य योनियों में मुक्ति के लिए कर्म नहीं किये जा सकते ठीक उसी प्रकार आयु का अन्तिम चरण कुछ कर सकने में असमर्थ रहता है अपने उत्तर जीवन को ध्यान में रख कर जो बुद्धिमान जीवन के पूर्व चरण में सत्कर्मों के बीज बोता है वह उसके फल खाता हुआ आनन्द प्राप्त करता है।


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