युद्ध और बदलती हुई दुनिया

June 1967

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(श्री ‘भारतीय योगी’)

एक बार फिर विश्व के ऊपर युद्ध की काली घटाएं इकट्ठी होने लगी हैं। वियतनाम का युद्ध भीषण रूप धारण कर ही रहा है और राष्ट्रसंघ के महासचिव ऊथाँत ने चेतावनी दी है कि-”इससे चीन के साथ युद्ध का खतरा पैदा होना स्पष्ट है और उसके परिणामस्वरूप मानवता का अस्तित्व संशय में पड़ जाएगा।” अब पूर्वी एशिया में अरब गणराज्य तथा इसराइल का संघर्ष उग्र रूप में उठ खड़ा हुआ है और इसराइल के प्रधान ने भी चेतावनी दी है कि-”यदि इसराइल पर आक्रमण किया गया तो इसका परिणाम विश्व-युद्ध ही होगा।” ऐसी परिस्थिति में किस दिन सचमुच युद्ध का शंखनाद हो जाएगा और भयंकर संहारक अस्त्र अपनी दानवी शक्ति से निर्दोष नर-नारियों का संहार करने लगेंगे, यह कोई नहीं कह सकता। प्रतिदिन अखबारों में छपने वाली घटनाओं और अन्य लक्षणों से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि संसार तेजी से युद्ध की तरफ बढ़ता जा रहा है और आज नहीं तो कल उसका होना अनिवार्य ही है।

युद्ध की तैयारियाँ तो द्वितीय महासमर के समाप्त होते ही सन् 1947 से शुरू हो गई थीं और बीच में एकाध बार ऐसा मौका भी आ चुका है जब विश्वव्यापी महासंग्राम छिड़ते-छिड़ते कुछ खास व्यक्तियों के प्रयत्न और प्रभाव से जैसे-तैसे रुक गया। इस समय भी संकट की सूचना मिलते ही महासचिव ऊथान्त तुरन्त मिश्र पहुँच गये हैं और राष्ट्रपति नासर को समझने की कोशिश कर रहे हैं। भारत भी युद्ध नहीं चाहता और उसने संघर्षरत राष्ट्रों से शान्ति की अपील की है। सम्भव है पहले की तरह इस बार भी भगवान भयत्रस्त लोगों की प्रार्थना सुन ले और दुनिया को फिर चन्द दिन शाँतिपूर्वक रह सकने का वरदान प्राप्त हो जाए। पर ‘बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी’ वाली कहावत के अनुसार साल-दो साल बाद यही आग फिर भड़केगी और संसार के रंग-मंच पर महाकाल का ताण्डव नृत्य दिखाई पड़ने लगेगा।

यों तो युद्ध सदा से होते रहे हैं और उनके कारण अनेक राजसिंहासन तथा राष्ट्र नष्ट-भ्रष्ट हो चुके हैं। गत पचास वर्षों के भीतर ही दो विश्वव्यापी महासमर हो चुके हैं जिनने दुनिया का नक्शा ही बदल दिया है। जिन देशों का पृथ्वी पर डंका बज रहा था वे प्रायः नाम शेष हो गये और नये-नये राष्ट्र संसार के नायक और सूत्रधार बन गये। इस बार जिस युद्ध के बादल गरज रहे हैं वह दस-पाँच देशों को ही मटियामेट नहीं करेगा वरन् समस्त मानव-जति को उथल-पुथल कर डालेगा। उससे केवल संसार की राजनीति और आर्थिक व्यवस्था की कायापलट ही न होगी वरन् समाजों और धर्मों (मजहबों) की जड़े भी हिल जायेंगी। जो परम्पराएं, रूढ़ियां, रीति-रिवाजें, कर्मकाँड, धर्मोत्सव आदि आज अनिवार्य समझे जाते हैं, जिनका पालन किये बिना नाव डूब जाती है, नाक कट जाती है, वे आगामी युद्ध के पश्चात धुंए की तरह अंतरिक्ष में उड़ जायेंगे और फिर ढूंढ़ने से भी उनका पता न लगेगा। उसमें मानवजाति का अभूतपूर्व संहार ही न होगा वरन् उस सभ्यता और आदर्शों की भी काया पलट हो जाएगी जिनको सामान्य विद्या बुद्धि के व्यक्ति अटल और अचल समझे बैठे हैं।

इस प्रकार की घटना को अनहोनी या अतिरंजित समझ लेना ठीक न होगा। गत पाँच-छः हजार वर्षों का जो इतिहास प्राप्त हो सका है, उसके अनुसार इसी बीच में मिस्र, बैबिलोनिया, असीरिया, ईरान, यूनान, रोम आदि की भूमण्डल में प्रसिद्ध सभ्यताएं पूर्णतया नष्ट हो चुकी हैं। अब से 25-30 हजार वर्ष पहले अटलाँटिक महासागर में एक महाद्वीप की सभ्यता संसार में सर्वश्रेष्ठ थी, ऐसा पता कुछ शोध करने वाले विद्वानों ने लगाया है। पर वह भी काल के थपेड़ों-भूकम्प के धक्कों से विनष्ट हो गई और वहाँ के इने-गिने व्यक्ति ही बच कर अन्य स्थानों में पहुँच सके जहाँ उन्होंने नई सभ्यताओं को जन्म दिया। कुछ विद्वानों के मतानुसार इसी घटना का वर्णन बाईबल में नूह की नाव के रूप में किया गया है। जल-प्रलय की घटना भारतीय पुराणों में भी पाई जाती है और उसका सम्बन्ध मनु से बतलाया गया है।

इसलिये यदि इस बार भी युद्ध और किसी तरह की महामारी आदि से मानव-सभ्यता का एक बड़ा भाग नष्ट हो जाये तो यह बात दैवी विधान के प्रतिकूल नहीं समझी जा सकती ? हमारे शास्त्रकार और भविष्यवेत्ता तो सदा से यह कह चुके हैं कि जब-जब पृथ्वी पर धर्म और नीति का अत्यन्त ह्रास हो जाता है और अनीति तथा पाप का बोलबाला होने लगता है, मनुष्य परमार्थ, परोपकार का भाव त्याग निरन्तर स्वार्थपरायण और निर्दयी बन जाते हैं, तब-तब ही प्रकृति और भगवान कोई ऐसी योजना प्रस्तुत कर देते हैं जिससे पापी-समुदाय का अन्त होकर सज्जनों के उपयुक्त वातावरण फिर से उत्पन्न किया जाता है। इस सिद्धान्त की घोषणा सबसे स्पष्ट और उच्च स्वर में ‘श्रीमद्भगवद् गीता’ ने की है-

यदा यदा हि धर्मस्यग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाय साधूनाम विनाशाय न दुष्कृताम्।

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥

संसार में जब कभी धर्म (सत् कर्मों) की अत्यन्त न्यूनता हो जाती है और दूषित (रीति-रिवाज) अधिक बढ़ जाते हैं, उस समय भगवान संतों की रक्षा और दुष्टों के शमन के लिये अपनी शक्ति को किसी रूप में प्रकट करते हैं।

‘योग वशिष्ठ’ में भी महर्षि वशिष्ठ ने कहा है-”जब पृथ्वी पर मनुष्यों का भार बहुत अधिक बढ़ जाता है तो भगवान् युद्ध, अकाल, महामारी, भूकम्प आदि किसी उपाय से उनको नष्ट करके भार को हल्का करते हैं।”

भविष्य-वर्णन का एक पद महात्मा सूरदास जी के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें कहा गया है-

एक, सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसा योग परे।

सहस्रवर्ष लौं सतयुग बीते धर्म की बेल बढ़े॥

इस भविष्यवाणी में हमको एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह जान पड़ती है कि ईसाइयों की ‘बाइबिल’ में भी भविष्य-कथन करते हुए कहा है कि-

“मैंने एक ईश्वरीय दूत (फरिश्ते) को आकाश से आते देखा जिसके हाथ में एक बड़ी जंजीर थी। उसने शैतान को जंजीर से बाँध कर अथाह गड्ढे में डाल दिया और उसे बन्द कर दिया। उसके पश्चात् एक हजार वर्ष तक पृथ्वी पर ईश-पुत्र ईसा का धर्म-राज्य रहेगा।”

सूरदास जी तथा बाईबल दोनों की भविष्यवाणियों में एक हजार वर्ष तक सतयुग या धर्मयुग के गुजरने की बात को दिव्य दृष्टि का चमत्कार कहें तो अनुचित न होगा। क्योंकि ये दोनों भविष्यवाणियाँ एक दूसरे से बहुत अन्तर पर और एक दूसरे से सर्वथा अनजान होते हुए कही गई थीं। महात्मा सूरदास जी ने जो सम्वत् 1900 के बाद नया युग आने का वर्णन किया है उसका आशय शाके सम्वत् से हो सकता है जो इस समय समस्त देश में प्रचलित है और जिसका 1886 वाँ वर्ष गुजर रहा है।

मुसलमानी धर्म के अनुयाइयों ने भी अपने मजहब के सम्बन्ध में लिखा है कि चौदहवीं सदी के अन्त में कयामत हो जाएगी और इस्लाम खत्म होकर कोई नया धर्म उसका स्थान ले लेगा। इस समय चौदहवीं सदी चल रही ही और इसके समाप्त होने में 13 वर्ष की देर है।

एक अन्य मुस्लिम सन्त शाह नियामत उल्ला ने अब से 800 वर्ष पहले एक भावी घटनाओं की पुस्तक कविता में लिखी, जो इस समय पटना की “खुदाबख्श लाइब्रेरी” में रखी है। उसमें सन् 1914 और 1936 के दोनों महायुद्धों का वर्णन बड़ी स्पष्टता से किया है। तीसरे महायुद्ध के विषय में उसमें लिखा है कि “अलिफ ‘(अमरीका) इस युद्ध में एक प्रधान दल होगा। उसके मुकाबले में रूस और जर्मनी एक होकर और संसार को क्षण भर में नष्ट करने वाले हथियारों को लेकर उतर आयेंगे। अँग्रेजों को इस युद्ध में इतनी हानि उठानी पड़ेगी कि वे अपनी सभ्यता सहित संसार से मिट जायेंगे।”

आधुनिक भविष्यवक्ता -

वर्तमान समय में शिक्षित व्यक्तियों का विश्वास अधिकाँश में ज्योतिष और भविष्य कथन जैसी बातों पर से उठता जाता है और अनेक ‘गुप्त-विद्या’ वाले व्यक्ति जैसा ढोंग फैलाते या बहकाते हैं, उसे देखकर इसे अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता। पर इस पर जमाने में भी भारत वर्ष ही नहीं योरोप और अमरीका जैसे विज्ञान क्षेत्र में प्रगतिशील देशों में भी बड़े-बड़े भविष्यवक्ता मौजूद हैं और इन देशों के प्रभावशाली नेता तथा शासन-सूत्र के संचालक उन पर पूरा विश्वास करते हैं। इसका कारण यही है कि ज्योतिष सामुद्रिक, शकुन शास्त्र के अतिरिक्त कुछ मनुष्यों में एक स्वाभाविक शक्ति भी होती है जिससे उनको होनहार का आभास मिल जाता है। इसका सम्बन्ध आध्यात्म-जगत से होता है उसका संकेत तत्वतः ठीक ही सिद्ध होता है।

अमरीका में एक कैथोलिक-सम्प्रदाय की महिला जीन डिक्सन की इस दृष्टि से बड़ी ख्याति है। महायुद्ध के विजेता प्रेसीडेंट रुजवेल्ट भी उससे अनेक बार पूछा करते थे। उसने रुजवेल्ट की मृत्यु, प्रेसीडेण्ट कैनेडी की हत्या, महात्मा गाँधी की हत्या के विषय में पहले ही बतला दिया था। आगामी महायुद्ध के विषय में उसने जो कुछ कहा है उसका साराँश इस प्रकार है-

कुछ समय बाद चीन और रूस का संघर्ष गम्भीर रूप धारण कर लेगा और उससे विश्वव्यापी युद्ध की शुरुआत हो जाएगी। अमरीका भी चीन के विरुद्ध है, इससे चीन को काफी क्षति उठानी पड़ेगी। यह युद्ध सन् 1980 के आस-पास होगा और इसकी आग में सारी दुनिया के लोगों को झुलसना पड़ेगा। यह ऐसा भयंकर होगा कि वर्तमान समय की साधन सामग्री को ही नहीं, मानवजाति के विचारों, मान्यताओं, आदर्शों एवं गतिविधियों को भी बदल कर रख देगा। तब एक नई और उत्कृष्ट आध्यात्मिकता का विकास होगा और एक ऐसे नये-युग की आधारशिला रखी जाएगी जिसमें विश्वशाँति अक्षुण्ण रह सके। यह परिवर्तन सन् 1999 के पश्चात् स्पष्ट दिखाई पड़ने लगेगा। इसका नेतृत्व करने वाला महापुरुष सन् 1965 में जन्म ले चुका है।

इसराइल राष्ट्र के आत्मदर्शी विद्वान प्रो॰ हरार ने वर्तमान तीन चार वर्षों में भयंकर युद्ध होने की बात निश्चित रूप से कही है और अपनी सचाई को प्रमाणित करने के लिये अपनी भविष्यवाणियों का कई साक्षियों के सामने टेप रिकार्ड करा दिया है। उनकी मुख्य बातें इस प्रकार हैं-

“वियतनाम का युद्ध 1960 तक चलेगा और अमरीका को सफलता प्राप्त होगी। 1970 तक रूस और चीन का विरोध भी युद्ध का रूप ग्रहण कर लेगा जिसका प्रभाव समस्त एशिया पर पड़ेगा। इसी बीच अरब और इसराइल में भी युद्ध होगा जिसमें दोनों पक्षों की काफी हानि होकर अन्त में संधि हो जाएगी। सन् 1968 में मिश्र के राष्ट्रपति नासर की भी हत्या की संभावना है। 1970 में ही एक बहुत भयंकर तूफान आयेगा जिससे सीरिया, लेबनान, जार्डन और इसराइल का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो जाएगा।

मैक्सिको के ज्योतिर्विज्ञान ज्ञाता अहारो अमाया ने कहा है कि-”सन् 1965 से 1991 तक का समय इस शताब्दी में सबसे भयंकर सिद्ध होगा। तीसरे महायुद्ध की शुरुआत इसी काल में हो जाएगी।

राजनीतिज्ञों के उद्गार -

भविष्य वक्ताओं की बात को छोड़ भी दें तो इस समय सभी प्रमुख देशों के सूत्र-संचालक स्वयं शीघ्र ही तीसरा महायुद्ध आरम्भ होने की आशंका प्रकट कर रहे हैं। वे युद्ध को अपने लिये भी नाशकारी मानते हैं, पर उनकी दृष्टि में संसार की गति-विधि को देखते हुए यह अनिवार्य जान पड़ता है।

इस संसार का सबसे शक्तिशाली और साधन सम्पन्न राष्ट्र अमरीका माना जाता है। उसके सूत्र संचालक प्रेसीडेण्ट जान्सन ने गत वर्ष अपनी पुत्री लूसी से कहा था कि-”हो सकता है कि इतिहास में तुम्हारे पापा को तीसरा विश्व युद्ध शुरू करने वाला माना जाए। कारण यह है कि मैं किसी को यह बतला देना चाहता हूँ कि हम बड़े से बड़ा खतरा उठाने को भी तैयार हैं।”

फिलीपाइन के प्रेसीडेंट फर्डीनेंस ने इसी 8 मई को कहा था कि-”कम्यूनिस्ट चीन दस साल के भीतर फिलीपाइन तथा अपने सभी पड़ोसी एशियाई देशों को सैनिक ताकत के बल पर हथियाने की कोशिश करेगा। इसी भय के कारण हमें अपनी रक्षा के लिये अमरीका पर निर्भर रहना पड़ा है।”

स्वयं चीन के राष्ट्रपति माओ ने तीन-चार वर्ष पूर्व स्पष्ट रूस से कहा था कि-”मेरा यह अटल विश्वास है कि आगामी 10, 15 वर्षों में विश्वयुद्ध अवश्य होगा।”

हर एक संकट के लिये तैयार रहिए-

अब एक बात तो निश्चय ही समझ लेनी चाहिए कि कोई भी कारण क्यों न हो संसार में संकट-युग का आगमन हो चुका है। आकाश में तरह-तरह की आपत्तियों और विपत्तियों के बादल छाये हुये हैं जो किसी भी समय बरस सकते हैं। सावन भादों के महीनों में जब गहरे बादल इकट्ठे हो जाते हैं तो अनुभवी व्यक्ति मौसम की भविष्यवाणी करते रहते हैं जो ठीक ही होती है। अन्तर इतना ही है कि किसी स्थान में एक समय और किसी में दूसरे समय वर्षा होती है। कहीं इतना पानी गिरता है कि जल-थल एक हो जाते हैं और कहीं मामूली बूँदा-बाँदी ही होकर रह जाती है। कहीं पर कुछ छींटे मात्र ही आते हैं। पर इससे जहाँ वर्षा बहुत कम हुई या नहीं हुई तो वहाँ के निवासियों का भविष्यवाणी को झूठ समझ लेना अनुभवहीनता का परिचय देना ही है। यही बात युद्ध के सम्बन्ध में भी है। विश्वव्यापी परिवर्तनों के ज्ञाता, एक-एक व्यक्ति का अथवा किसी खास दिन का वर्णन नहीं करते वरन् समग्र मानव-समाज के उत्थान-पतन, नाश और निर्माण सम्पत्ति और विपत्ति की दृष्टि से ही विचार करते हैं। इसी दृष्टि से हम भी यहाँ जो कुछ बतलायेंगे वह आगामी तीस वर्ष अर्थात् सन् 2000 तक घटित होने वाली घटनाओं और परिवर्तनों की एक झलक ही होगी।

हमने आज से 27 वर्ष पूर्व एक भविष्यवाणी प्रकाशित की थी। जिसमें सन् 1965 से नये युग के परिवर्तन की बात कही गई थी। यद्यपि लोग हमसे कहते हैं कि अभी नवयुग या धर्मयुग कहाँ है? अभी तो दुष्कर्म बढ़ते ही जा रहे हैं और दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई महंगाई के कारण लोग तड़फड़ा रहे हैं? हमारा कहना है कि यह घोर महंगाई, भ्रष्टाचार और अगले तीन-चार वर्षों में आने वाला महाभयंकर अकाल तथा उसके पश्चात् महामारी ही धर्मयुग आने के चिन्ह हैं। इस पापों लदी गन्दी दुनिया में धर्मयुग कैसे आ सकता है? इसलिये जब तक इसकी पूरी तरह सफाई न हो जाएगी और दुष्कर्मी लोगों को यहाँ से हटा न देंगे तब तक धर्मयुग के प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होने की कल्पना करना निराधार है। हम इस सफाई की प्रक्रिया को और अनुपयुक्त दूषित तत्वों के निराकरण को नवयुग आगमन का ही एक अंश मानते हैं। इसलिये जैसे-जैसे संसार पर संकट और विपत्तियों के बादल घने होते जा रहे हैं, हमको नवयुग आगमन पर अधिकाधिक आस्था और विश्वास होता जाता है।

भयंकर अकाल और नई बीमारी भी-

इस समय मानव-जाति के सामने केवल युद्ध का ही खतरा नहीं है वरन् अकाल और महामारी के दो खतरे भी स्पष्ट रूप से मौजूद हैं। इस समय अन्न की कमी का अनुभव तो भारत और अन्य कई देशों में किया ही जा रहा है, और खाद्य पदार्थों का भाव बेतरह तेज हो गया है। फिर भी अधिक दाम देने पर किसी तरह अन्न मिल जाता है पर आगे वास्तव में ऐसे अकाल पड़ने वाले है जिनमें न्यूयार्क विश्व-विद्यालय (अमरीका) के अनुसंधान विभाग के संचालक श्री रेमण्ड ईवेल ने भविष्यवाणी की है कि-

“एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका के अविकसित देश इतिहास में एक अभूतपूर्व अकाल के दरवाजे पर खड़े हुए हैं। अगर इस स्थिति का सामना करने के लिये तुरन्त व्यापक प्रयत्न नहीं किये गये तो सन् 1970 के आरम्भ में ही भारत पाकिस्तान और चीन में भयंकर अकाल का खतरा उपस्थित है 1980 तक तो एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमरीका के कई दूसरे देश भी इस व्यापक अकाल के कौर बन सकते हैं।

इसी प्रकार जन-संख्या की वृद्धि से संसार में संहारकारी महामारी का भय उत्पन्न हो रहा है । इस सम्बन्ध में लन्दन के कई डाक्टरों ने परीक्षा करके यह घोषित किया है-”निकट भविष्य में जिस महामारी के फैलने की शंका की जा रही है उसका नाम ‘एशियाई फ्ल्यू’ रखा गया है। डाक्टरों ने चूहों पर परीक्षण करके यह पता लगाया है घनी आबादी वाले चूहों में अकेले रहने वाले चूहों की अपेक्षा रोग-कीटाणुओं से संघर्ष करने की क्षमता कम रह जाती है।

हमने ‘योग वशिष्ठ’ के श्लोक के आधार पर मानव जाति का भयंकर अनिष्ट करने वाली जिन चार विभीषिकाओं का वर्णन ऊपर किया है उनमें से तीन की संभावना आज के वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ भी जोर-शोर से प्रकट कर रहे हैं। तब चौथी दैवी आपत्ति-भूकम्प, ज्वालामुखी, जल प्लावन, तूफान आदि भी इनको सहयोग देने आ पहुँचे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं!

दूषित कर्मों को त्याग कर सत्कर्मों को अपनाइये-

महर्षि वशिष्ठ और आजकल के वैज्ञानिकों का मत इस सम्बन्ध में पूर्णतया मिल जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, कर्मफल का सिद्धान्त अटल है। मानव-जाति यदि प्रकृति के विरुद्ध चलेगी, नैतिक और चारित्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन करेगी, सेवा सहानुभूति, अनुकम्पा जैसे मानवीय गुणों को त्याग कर स्वार्थ, नृशंसता, परस्वापहरण आदि के दोषों को ग्रहण करेगी तो उसे अवश्य उसका दण्ड सहन करना पड़ेगा।

अब भी समय है कि लोग चेतें आँखें खोलें और सेवा तथा सहानुभूति के मार्ग को अपना कर पिछली भूलों के लिये प्रायश्चित करें। भगवान् की दृष्टि में मनुष्य-मात्र उसका पुत्र है और उसे पृथ्वी, जल, वायु आदि पर एक समान अधिकार प्राप्त है। आज संसार में जो विपत्तियाँ दिखाई पड़ रही हैं और निकट भविष्य में जिनका भयंकर रूप हमको दिखलाई पड़ता जाएगा उनका प्रतिकार यही है कि हम अपने अन्य मानव-भाइयों का अपकार करने के स्थान पर सदैव उपकार करने का प्रयत्न ही करते रहें।


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