ज्योति का मंगल-अवतरण (Kavita)

June 1967

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तम का पर्दा चीर धरा पर ज्योतिपर्व आया है!

आज निराशा-डूबी वाणी फिर से मुखर हुई है

लाजभरी अनबोल रागिनी उर-पुर में उतरी है

चेतनता ने सतरंगी चूनर फिर लहराई है

प्यासे मरु पर तृप्ति रूपिणी सोम-सुधा छहरी है

शुभ्र धेनुएँ पय स्त्रवती हैं, वत्स द्वार आया है!!

आज आस्थाओं की कलियाँ विहँसी, क्यारी झूमी

ज्योति विहग चहके,जागृति की शाश्वत वाणी गूँजी

अवसादों का गढ़ टूटा, जीवन ने ली अँगड़ाई

ज्योतिर्धारा में मानस की कलुष-कालिमा छूटी

दूर हुआ शैथिल्य, प्राण में प्रबल वेग आया है!

स्वप्न हिले, मिट गई भ्राँति, धरती को गँध मिला है

हटा विस्मरण, आत्मरूप का नूतन क्षितिज खुला है

तम की सब आसक्ति मिटी बह चले प्रभाती के स्वर

प्राची में नूतन जीवन की विकसी अरुण कला है

देवधरा ने भैरव स्वर में मुक्ति राग गाया है!

तपो पूत प्रज्ञा ने हैं फौलादी हाथ उठाए

विगत निद्र धरती सुत ने निष्ठामय चरण बढ़ाए

डगर-डगर में गूँज रही है जागृति की शहनाई

निर्वासित तम गहन गुहाओं में मुँह पड़ा छिपाए

मन-आँगन में मानवता का नव सुवास छाया है!

तम का पर्दा चीर धरा पर ज्योतिपर्व आया है!!

- भ. श. भारद्वाज प्रदोप्त

*समाप्त*


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