चेतन चित्त-न, चिन्तन

June 1967

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आत्मा के स्वरूप, स्वभाव और अनुभूति की व्याख्या करते हुए ऋषि ने बताया-विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों में व्यास चेतना ही आत्मा है। वह अति गूढ़ निर्गम तत्व है इसलिये लोग प्रत्यक्ष नहीं देख पाते । स्पष्टतया चित्तवृत्तियाँ गतिशील जान पड़ती हैं इसलिये मन या चित्त को ही आत्मा होने का भ्रम होता है, वस्तुतः चित्त आत्मा नहीं है। वह परम प्रकाश -तत्व है।

एकमात्र चिन्तन ही वह उपाय है जिसके द्वारा चेतना की, आत्मा की अनुभूति और प्रगति सम्भव है। विद्वज्जन उसी अक्षर, अविनाशी, अजर-अमर आत्मा का चिन्तन करते हैं। लौकिक जीवन से उतना ही सम्बन्ध रखते हैं जितना आत्मा के आध्यात्मिक विकास के लिये आवश्यक है। अन्यथा आत्मा के गुणों और कौतुक का चिन्तन ही उनका स्वभाव होता है। उसी में असीम तृप्ति भी है।

दीर्घतमा के शिष्यों में उस दिन विलक्षण खामोशी थी। इतिहास, भूगोल, जीव-विज्ञान, रसायन विज्ञान के पाठ्यक्रम भली-भाँति समझ में आ जाते थे, किन्तु आत्म विद्या का विषय ही इतना गूढ़ और रहस्यपूर्ण है कि दीर्घतमा के बहुत प्रयत्न और विश्लेषण करने के बावजूद भी विद्यार्थी उसे समझ न पाये।

आत्मा का विषय प्रत्येक विद्यार्थी का अपना निजी विषय था, इसलिये उसकी सर्वोपरि आवश्यकता भी थी। जब वह कक्षा आती तो उनकी गम्भीरता भी बढ़ जाती और तन्मयता भी किन्तु आज भी आत्मा के चेतन स्वरूप का बोध विद्यार्थी को नहीं ही हो पाया।

मध्याह्न के पूर्व ही एकाएक बन्द की शंखध्वनि कर दी गई। विद्यार्थियों के हृदय “मैं क्या हूँ, कहाँ से आया हूँ, क्यों आया हूँ?” इन प्रश्नों को जानने के लिये पहले से ही बेचैन थे। गुरु द्वारा अकस्मात् विद्यालय बन्द कर दिये जाने की घोषणा से वे और भी बेचैन हो गये। सब विद्यार्थी एक-एक कर अपने पर्णकुटीरों में चले गये। मध्याह्न की हलचल उस दिन किसी ने नहीं सुनी। सम्पूर्ण आश्रम उस दिन विधवा की-सी शान्ति में डूबा हुआ था।

सूर्यदेव का रथ थोड़ा पश्चिम की ओर झुका और घण्टा पुनः बजा। विद्यार्थी एकत्रित हुए, किसी के हाथ में न तो लेखनी थी न भोज-पत्र। कोई घोषणा भी नहीं थी। छात्र एकत्रित हो गये तो ऋषि एक ओर चल पड़े, चुपचाप विद्यार्थियों ने भी उनका अनुगमन किया। एक ही पंक्ति में अनुशासनबद्ध विद्यार्थी गुरु का पीछा करते हुए चल रहे थे।

गाँगेय के श्मशान-घाट पर दल रुक गया। घाट की सीढ़ियों के सहारे एक शव अटका हुआ था। ऋषि उसके समीप पहुँच गये। सब विद्यार्थी सीढ़ियों पर पंक्तिबद्ध बैठ गये।

ऋषि ने पाठ शुरू किया। शव के एक-एक अंग की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा-इन दोनों हाथों की तुलना अपने हाथों से करो, वैसी ही बनावट, माँसल उंगलियों से युक्त किन्तु ये हाथ न हिलते हैं, न डुलते हैं। आँखें हैं पर वह देखती नहीं, कान हैं पर यह सुनते नहीं। जिस मुख ने सैकड़ों सु-स्वादयुक्त पदार्थों को चखा, मुख आज भी वही है पर अब यह खा भी नहीं सकता, नाक साँस नहीं ले रही है। हृदय स्थान पर होने वाली धक-धक भी बन्द है। यह सारा शरीर ज्यों का त्यों है पर इसके लिये रूप, रस, गन्ध, आकाश, सूर्य-चन्द्रमा,प्रकाश, वर्षा, अग्नि आदि सम्पूर्ण वस्तुयें अस्तित्वहीन हैं।

इस शरीर को क्रियाशील बनाने वाली शक्ति इससे ऐसे ही अलग हो गई है जैसे अंगारे से ऊष्मा और जल से शीतलता। जब तक वह शक्ति थी तब तक यही शव क्रियाशील बना हुआ था, शक्ति न होने पर वही आज मुर्दा है।

चींटी-चिड़िया, हाथी, ह्वेल, गाय-बैल, गरुड़, कौवा गीध आदि से लेकर मनुष्य तक इन सबमें एक जैसी चेतनता है। किसी की शक्ति कम है, किसी की अधिक। वृत्तियाँ और संस्कार भी अलग-अलग हैं, किन्तु देखने-सुनने काम करने, इच्छाओं की पूर्ति में संलग्न रहने, प्रेम प्रदर्शित करने, काम व्यक्त करने, आहार-निद्रा, भय, मैथुन की प्रवृत्ति सबमें एक जैसी है। सभी में यह शक्ति एक ही गुण रूप वाली मिलेगी। यह शक्ति प्रत्येक प्राणी में सन्निहित है, समायी हुई है, इसीलिये इसे आत्मा कहते हैं। यह आत्मा ही प्रकाश, तत्व, शक्ति अथवा चेतना के रूप में विभिन्न शरीरों में व्याप्त है, यद्यपि उसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं। वह अजर, अमर, अविनाशी और सतत् चेतनायुक्त है पर स्थूल पदार्थ के साथ संगम हो जाने के कारण ऐसा भासता है कि वह जन्म लेता है और मृत्यु को भी प्राप्त होता है। सुख-दुःख का कारण यही विभ्रान्ति ही है।

चेतना (आत्मा) विशुद्ध तत्व है। चित्त उसका एक गुण है। इच्छायें, वासनायें यह चित्त हैं, प्रवृत्तियाँ है किन्तु आत्मा नहीं, इसलिये जो लोग शारीरिक प्रवृत्तियों काम, भोग, सौंदर्य-सुख को ही जीवन मान लेते हैं वह अपने जीवन धारण के उद्देश्य से भटक जाते हैं। चेतना का जन्म यद्यपि आनन्द, परम आनन्द, असीम-असीम आनन्द की प्राप्ति के लिये ही हुआ है तथापि यह चित्तवृत्तियां उसे क्षणिक सुखों में आकर्षित कर पथ-भ्रष्ट करती हैं, मनुष्य इसी साँसारिक काम-क्रीड़ा में व्यस्त बना रहता है, तब तक चेतना की अवधि समाप्त हो जाती है और वह इस संसार से दुःख, प्रारब्ध और संस्कारों का बोझ लिये हुए विदा हो जाता है। चित्त की मलिनता के कारण ही वह अविनाशी तत्व, आप आत्मा इस संसार में बार-बार जन्म लेने को विवश होते हैं और परमानन्द से वंचित होते हैं सुखों में भ्रम पैदा करने वाला यह चित्त ही आत्मा का-चेतना का बन्धन है।

“आत्म-ज्ञान के बिना किसी भी काल में किसी को भी मुक्ति नहीं मिलती”-ऋषि इस विषय को आगे बढ़ाते हुए अपनी वक्तृता जारी किये हुए थे। तभी एक छात्र ने पूछा “गुरुदेव! यह आत्मा जब इतना सूक्ष्म, गूढ़ और रहस्यपूर्ण है तो उसे पाया कैसे जा सकता है? कैसे इन चित्तवृत्तियों के दाँव से छुटकारा पाया जा सकता है।”

संकेत पर छात्र बैठ गया-ऋषि ने शंका का समाधान करते हुए बताया -”मैं शरीर हूँ” जब तक जीव यह मानता रहेगा, तब तक करोड़ उपाय करने पर भी शाश्वत सुख-शान्ति, जो आत्मा का लक्ष्य है, नहीं उपलब्ध हो सकती। हम शरीर नहीं हैं, शरीर में तो हम बैठे हैं, वाहन बनाएं हैं घुसे हैं यह निश्चय है फिर भी हम अपने को शरीर मानकर सारा व्यवहार करते हैं पहले इस धारणा को बंद करना चाहिए और निश्चय करना चाहिए-मैं शरीर नहीं, शरीर इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि अन्तःकरण चतुष्टय से परे असंग शुद्ध आत्मा हूँ। कुछ दिन इस प्रकार का निरन्तर चिन्तन करने से अपनी आत्मिक धारणा पुष्ट हो जाती है और आत्म-कल्याण का मार्ग दिखाई देने लगता है।

ऋषि गम्भीर विवेचना में उतर गये। सूर्यदेव अस्ताचल की और बढ़ चले किन्तु आत्मा का विषय ही इतना आनंदप्रद था कि सम्पूर्ण छात्र निश्चल भाव से तन्मयता की मुद्रा में बैठे रहे। न उनकी जिज्ञासा तृप्त होती थी न उठने की किसी को इच्छा ही थी। आश्चर्य और कौतूहल से सभी ध्यानपूर्वक गुरुदेव की व्याख्या सुनने में निमग्न थे। ऋषि ने आगे बताया-

‘आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है। ज्ञान की प्राप्ति की लिये कोई परिश्रम करने की आवश्यकता है न यत्न की। कठिन साधनों से अप्राप्त वस्तु के लिये प्रयत्न करना पड़ता है जो स्वयं ज्ञान रूप है उसे अपने आप को ढूँढ़ने के लिये न तो जंगलों में भटकने की आवश्यकता है न जीवन को शुष्क और कठोर बनाने की। अपने आप में अहंकार का जो भाव है केवल उसे मिटा देने की आवश्यकता है। क्योंकि यह भ्रम भी आत्मा की तरह अनादि और संत है इसलिये अपने शक्ति स्वरूप, ज्ञान स्वरूप चेतनता की धारणा को पुष्ट बनाने के लिये गहन चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। आत्मा की प्राप्ति के लिये जितने भी साधन और उपासनायें बताई गई हैं वह केवल इसी बात को परिपुष्ट करने के लिये हैं कि तुम शरीर नहीं, मन और इन्द्रियाँ भी नहीं हो इनसे परे अनन्त शक्ति स्वरूप आत्मा हो-आत्मा बन्धन रहित है। अपनी इच्छा संकल्प बल से कहीं भी विचरण कर सकती है। प्रकाश खेल खेलता है न उसका कोई बन्धु है न बान्धव, पुत्र न कलत्र, सब विविध रूप आत्मायें ही अपनी-अपनी चित्तवृत्तियों के कारण भाई, पिता माता ऐसे भासते हैं, यही बंधन है। इस बन्धन से छूटकर राग, द्वेष माया, ममता छोड़कर, केवल कर्तव्य पालन का ध्यान रखता हुआ जो व्यक्ति आत्मा में ही रमण करता है। आत्मा का ही चिन्तन करता है, आत्मा के गुणों के अनुरूप आचरण करता है अन्त में वह साँसारिक, सुख ऐश्वर्य और भोगों को भोगते हुए भी आत्मा को प्राप्त कर लेता है। मन, प्राण एवं प्रकृति के परिवेश से प्रकट में पृथक-पृथक प्रतीत होने पर भी हम आप सब वस्तुतः एक ही आत्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं। इसे यों भी कहा जा सकता है कि आत्मा ही विभिन्न रूपों में व्यक्त होकर उन्मुक्त चेतना परमात्मा में परिणत होना चाहती है। जो इस तत्व रूप को खोजते हैं वह तो अपना लक्ष्य पा जाते हैं और जो अपने चित्त की अहंवृत्तियों में ही भूलते-भटकते रहते हैं वह सुख स्वरूप होने पर भी दुःख भुगतते हैं, बन्धन मुक्त होने पर भी बन्धनों में पड़े रहते हैं।

जीवन अवस्था में जो यह कहा करता था यह मेरा धन है, घर है, बार है, मैं खाता हूँ, मैं, पंडित हूँ, ज्ञानी हूँ। मेरा सौंदर्य सबसे-बढ़कर है आज वही बोलने वाला कहीं खो गया है यद्यपि शरीर ज्यों का त्यों विद्यमान है। मन और अहंकार से अपने को भिन्न समझने में ही आत्मा का सारा रहस्य छिपा हुआ है। चिन्तन से इसी सिद्धान्त की पुष्टि होती है।

यह आत्मा मन और अहंकार से अलग रहकर अपना काम किया करती है। मन और अहंकार वस्तुतः जागतिक अवस्था के कारण हैं जबकि आत्मा शाश्वत और अनादि है। बुधजन इसीलिये निरन्तर आत्मा का चिन्तन करते और अन्त में सुखपूर्वक उसी भाव में अन्तर्हित होकर परमात्मा की शरण में चले जाते हैं।

सूर्य लगभग ढल चुकने को था। सन्ध्या का समय हो चुका था। जब यह ध्यान कर उन्होंने अपना पाठ समाप्त किया तो विद्यार्थियों का भी ध्यान टूटा। उन्होंने अनुभव किया कि कुछ समय के लिये वे सब ऐसे लोक में चिन्तन की गहन स्थिति में पहुँच गये थे, जो आत्मा का यथार्थ लक्ष्य है। सबको अपना पाठ समझ लेने का सन्तोष था। ऋषि के पदों का अनुकरण करते हुए सभी विद्यार्थी गुरुकुल लौट आये और अपने-अपने सन्ध्या पूजन में लग गये ।


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