महाकाल और उसका युग-निर्माण प्रत्यावर्तन

June 1967

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भगवान की अनेक शक्तियाँ हैं। उनके प्रयोजन, विधान, स्वरूप एवं प्रकरण भी अनेक हैं। जड़-चेतन जगत् के विविध क्रिया-कलापों को चलाने एवं बनाने बिगाड़ने के संदर्भ में अनेक तथ्य समुपस्थित होते हैं उनको कैसे सुव्यवस्थित रखा जाए, इस समस्या का हल करने में भगवान् अपनी शक्ति को अनेक भागों में विभक्त करके उन्हें विभिन्न कार्यों में लगा देता है। यही अवतारों का रहस्य है। समय-समय पर भगवान् की अनेक शक्तियाँ अनेकों प्रकार की अव्यवस्थाओं एवं आवश्यकताओं को हल करने के लिये अवतरित होती रहती हैं।

कालान्तर में उपयोगी वस्तुयें भी अनुपयोगी हो जाती हैं। समय जिस तीव्रता से आगे बढ़ता है, वस्तुएं, परिस्थितियाँ एवं मान्यताएं उस गति से बढ़ या बदल नहीं पातीं फलतः वे जीर्ण हो जाती हैं और अपनी उपयोगिता खो बैठती हैं। आज का बनाया हुआ उत्तम भोजन एक दो दिन बाद ही बासी हुआ, दुर्गन्धित एवं हानिकारक हो जाता है। बहुत दिन रखे रहने पर कपड़े जीर्ण हो जाते हैं। मजबूत इमारतें गिर पड़ती हैं, शरीर बूढ़े हो जाते हैं। उसी प्रकार प्रथाएं, परम्पराएं, मान्यताएं भी अपनी उपयोगिता खो बैठती हैं। समाज भी बिना बुहारे घर की तरह अवाँछनीय कूड़े करकट से घिर जाता है। ऐसी दशा में जीर्ण-शीर्ण अनुपयुक्त को हटा कर उसके स्थान पर अभिनव सृजन की आवश्यकता पड़ती है। इस उलट-पुलट के लिये भगवान् की विशेष शक्ति समय-समय पर विशेष रूप से अवतरित होती है। वैसे साधारण कार्य तो उसका निरन्तर सदा ही चलता रहता है।

काल के परिवर्तन का प्रयोजन पूरा करने वाली शक्ति “महाकाल” है। युग का परिवर्तन एवं प्रवर्तन इसी सत्ता द्वारा होता है। रुद्र नाम इसी का है। परिवर्तन सदा ही रौद्र-भयानक कष्टकारक होता है। इसलिये रुद्र की गतिविधियों को भी वैसा ही माना गया है। वह ताण्डव नृत्य करके प्रलय उपस्थित करता है। अपने तीसरे नेत्र से काम-भार को जलाकर भस्म कर देता है। उसके अंग-प्रत्यंग से फुसकारते हुए भयंकर विषधर लिपटे रहते हैं भयानक भूत, प्रेत, भैरव, बैताल उसकी सेना है। त्रिशूल की विदारिणी शक्ति को क्या कहा जाए? जब उसका डमरू बजता है तब दशों दिशा में तूफान उठ खड़ा होता है। ऐसा है वह भयानक रुद्र देवता युग परिवर्तन का अधिनायक महादेव महाकाल। इस रुद्रता के भीतर भी लोक-मंगल का महान प्रयोजन सन्निहित रहता है। इसलिये उसके शीश पर अमृतमय गंगा विराजमान है। शान्ति और शीतलता का प्रतीक चन्द्रमा विराजता है। सौजन्य, श्रद्धा, और सद्भावना का प्रतीक वृषभ उसका वाहन है। विष को वह न धरती पर जलाने के लिये बिखरा छोड़ता है और न उसे स्वयं ही पीता है। वरन् गले में अन्दर उल्टा लटका कर स्वयं नीलकण्ठ बनता है। ऐसा है यह महारुद्र-महाकाल।

इस महाकाल की अधिष्ठात्री शक्ति का नाम है-महाकाली । महाकाल एक तथ्य है- महाकाली उसका सक्रियता क्षमता। सूर्य करोड़ों मील दूर आकाश में विद्यमान् है, उसका लोक-लोकाँ तरकारी प्रभाव एवं प्रकाश का कार्य किरणें करती हैं। महाकाल को सूर्य कहा जाए तो महाकाली को किरण कह सकते हैं। तथ्य जो भी हो उसकी अनुभूति ही हमारे लिये प्रधान है। महाकाल के अस्तित्व की अनुभूति हम महाकाली द्वारा ही करते हैं। इसलिये उसे माँ कह कर पुकारते हैं। महाकाल पिता अवश्य है पर उसके साथ हमारा संपर्क माता महाकाली द्वारा ही होता है। युग परिवर्तन में महाकाल की इच्छा एवं प्रेरणा अवश्य रहती है पर उसका प्रयोजन पूर्ण करने का वास्तविक श्रेय उस महान सक्रियता-काली को ही है। व्यक्ति समाज एवं विश्व का परिवर्तन करने के लिये जिस महाशक्ति का समय-समय पर महारास, अट्टहास, प्रलय नर्तन होता है, उस विश्व मंगल की अभिनेत्री को महाकाली कहा जा सकता है।

पौराणिक गाथाओं में महाकाली की रोमाँचकारी लीलाओं का वर्णन मिलता है। जब असुरता का बाहुल्य हुआ, पाप बड़ा, दुष्टता पनपी और सृष्टि का, समाज का संतुलन बिगड़ कर अभाव अशाँति एवं अविवेक का नारकीय विक्षोभ व्यापक हुआ तो महाकाली ने अवतार लेकर दुष्टता को ललकारा, युद्ध किया और धूल में मिला दिया। शान्ति की स्थापना के लिये जो अशान्ति उत्पन्न होती है वस्तुतः वह वही महाशान्ति है। इसलिये दुर्ग अर्थात् कठिन को सरल करने का उत्तरदायित्व संवरण करने के कारण महाकाली को दुर्गा के नाम से भी पुकारा जाता है। शिव-अर्थात् कल्याण की यह दुर्गा-शक्ति अर्धांगिनी है। यों नर-नारी के योग्य में आमतौर से नर को प्रधान और नारी को गौण माना जाता जा रहा है पर यहाँ वैसा नहीं। शिव-शक्ति की प्रधानता है। शिक्षा शब्द में प्रारम्भिक ‘इ’ की मात्रा को शक्ति माना गया है। यदि वह न रहे तो शिव शब्द शव अर्थात् लाश मात्र होकर रह जाए। महाकाली के चित्र में शिव को भूमि पर पड़ा हुआ और उसकी छाती पर शक्ति को नृत्य करते हुए देखा जाता है। तात्पर्य यह है कि शिव को हृदय से समुचित उत्साह, उल्लास, शक्ति का नर्तन भाता है। यदि यह उपलब्धि उसे न मिले तो बेचारा साक्षी, दृष्टा, निर्विकार बन कर रह जाए।

महाकाल समय-समय पर अवतार लेता रहा है। युग परिवर्तन का प्रयोजन पूरा करने के लिये उसने समय-समय पर अनेक रूप धारण किये हैं तथा अनेक लीलायें की हैं। उनके बाह्य सब रूपों में भिन्नता रही है पर आन्तरिक उद्देश्य एक ही रहा है “परित्राणाय साधूनाँ विनाशायाच दुष्कृताम्-धर्म संस्थापनार्थाय-संभवामि युगे-युगे।”

महाकाल की उग्रता का शमन करने, उसके अन्तस्तल को उल्लासपूर्ण करने, क्षमता को घटने न देने की प्रक्रिया में व्यवधान न आने देने का कार्य महाकाली करती है। दोनों की मिली-जुली प्रक्रिया से वह महान उद्देश्य पूर्ण होता है जिसके लिये अवतरण हुआ था। विद्युत धारा में एक तार एक गरम-एक ‘पाजेटिव’ एक ‘नेगेटिव’ रहता है। यह सन्तुलन न रहे तो तारों में आग लग जाए और शक्तिशाली बिजलीघर भी अपना प्रयोजन पूर्ण न कर सके। महाकाल को अत्यधिक उग्र-रुद्र प्रयोजन पूरा करना पड़ता है। महाकाली उस प्रक्रिया को सुव्यवस्थित, संतुलित, शाँत सौम्य एवं गतिशील बनाये रहती है। यदि ऐसा न हो तो वह अवतरण अति उष्ण होकर विस्फोट का रूप धारण कर ले। शिवजी की प्रथम पत्नी दक्ष-सती जब तिरोधान हो गई तो उस अभाव की पूर्ति किये बिना काम न चला उमा के रूप में उसकी पुनः प्रतिष्ठा करनी पड़ी।

महाकाली को बोलचाल की भाषा में महाक्रान्ति भी कह सकते हैं। यह विवेकशील प्रबुद्ध देव आत्माओं के सहयोग से संभव होती है। निराश बैठे देवताओं के शरीर में से थोड़ी-थोड़ी शक्ति निकाल कर उसके एकत्रीकरण से प्रजापति ने दुर्गा का निर्माण किया है। उसी ने (1) मधुकैटभ, (2) महिषासुर एवं (3) शुँभ निशुँभ का वध किया। मधुकैटभ-अर्थात् मानसिक दुर्बलता, दुष्टता, भावनात्मक अव्यवस्था। महिषासुर-अर्थात् राजनैतिक उच्छृंखलता, नेतृत्व की दुष्ट दिशा, सत्ता का दुरुपयोग। शुँभ निशुँभ - अर्थात् सामाजिक और आर्थिक अव्यवस्था। संसार के यही तीन असंतुलन हैं। इन्हीं की गड़बड़ी से संसार में विविध विधि यातनायें सहनी पड़ती हैं। इस बिगाड़ को सुधार के रूप में परिणत करने के लिये (1) विचार क्रान्ति (2) राजनैतिक क्रान्ति (3) सामाजिक एवं आर्थिक क्रान्ति की आवश्यकता पड़ती है। महाकाली के इस अभिनव नर्तन एवं सृजन संहार के द्वारा ही अवतरण का अभीष्ट प्रयोजन पूरा होता है। महाकाल की इच्छा इसी प्रक्रिया से पूरी होती है।

यह अत्यन्त स्पष्ट है कि श्रेय महाकाल को भले ही मिले, उसकी मर्मस्थली महाकाली के ही हाथ रहती है। त्रेता में जब रावण कालीन दुष्टता का शमन अनिवार्य हो गया तो भगवान् राम के रूप में महाकाल का अवतरण हुआ। राम ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं सम्पादित कीं अनेक लीलायें की और अधर्म के स्थान पर धर्म की स्थापना में सफलता पाई। पर मर्म को समझने वाले जानते हैं कि उस महा अभियान की सफलता का सूत्र संचालन कौन कर रहा था? दुहरा नेतृत्व पीछे था। कौशल्या ने उनमें अपना अन्तःकरण निचोड़ कर उत्कृष्टता भर दी। कैकेयी ने वह परिस्थिति उत्पन्न की। उनका कार्य यद्यपि अप्रिय अरुचिकर और अनुपयुक्त लगता है तो भी उन्होंने साहसपूर्वक वह कार्य किया, जिससे अवतार अपना प्रयोजन पूरा कर सका। अन्यथा राम जैसे सुकुमार राजकुमार को वनवास में जाने, रीछ वानरों का संगठन करने एवं लंका जैसे सुन्दर प्रदेश में पहुँचकर असुरता के केन्द्र को नष्ट-भ्रष्ट कर सकना कैसे सम्भव होता? महाकाली ने कैकेयी के रूप में ही नहीं, सीता का रूप धारण करके भी अभीष्ट प्रयोजन साधा। वनवास में साथ रह कर उन्होंने राम अन्तःकरण को उल्लसित करने और वियोग की हलचल देकर क्रान्ति का अन्तिम अध्याय पूर्ण करने की व्यवस्था बनाई। सीता का जन्म ऋषियों के बूँद-बूँद रक्त एकत्रित घड़े में हुआ था। उनकी लंका से वापसी का श्रेयादि वानरों को मिला । इससे स्पष्ट है कि क्रान्ति किसी एकाकी व्यक्ति के द्वारा नहीं वरन् जनसमूह के प्रबल सहयोग में ही सम्भव होती है। राम का यश वर्चस्व एवं प्रयोजन पूर्ण करने में सीता का कितना महान योगदान रहा इसका विश्लेषण मोटी दृष्टि से नहीं, सूक्ष्म तत्व विवेचना की क्षमता से ही सम्भव हो सकता है।

महाकाल ने जब द्वापर में कृष्ण अवतार लिया तो देवकी यशोदा का वात्सल्य, कुन्ती का प्रोत्साहन आदि आशीर्वाद, द्रौपदी की श्रद्धा और राधा के स्नेह सौजन्य ने मिलकर उस केन्द्र बिन्दु को हर दिशा से सींचा। राधा कृष्ण की सर्वत्र सम्मिलित पूजा होती है। दोनों में अनन्य आत्मीयता थी, एक दूसरे में विलीन थे। शिव और शक्ति का सन्तुलन इसी रीति-नीति से सम्भव था। फिर भी यह प्रणय पवित्र था। पति-पत्नी के रूप में दृष्टिगोचर होते हुए भी वे वासनात्मक दांपत्ति से अत्यधिक ऊपर उठे हुए थे। रायण घोष कृष्ण जी के मामा थे। राधा विवाहित पत्नी थी। कथा है कि राधा का जब विवाह हो रहा था तब उनके पति रायण घोष ने नन्हे से बालक कृष्ण को दुलार वश गोदी में उठा लिया था। अग्नि परिक्रमा के समय भी उन्हें गोदी में लिये रहे। इससे स्पष्ट है कि राधा जी कृष्ण से कम से कम 25 वर्ष बड़ी थीं।

छोटे बालक का वासनात्मक प्रणय सम्भव नहीं। फिर कृष्ण ने मथुरा वृन्दावन छोड़ा है और सदा राधा यहीं बनी रही हैं, तब कृष्ण कुल 16 वर्ष के थे। आगे चलकर उनके कई विवाह भी हुए हैं। रुक्मणी, सत्यभामा, जाम्ववती आदि उनकी पटरानियाँ और कितनी ही रानियाँ थीं। यह सामान्य गृहस्थ जीवन हुआ। महाकाली राधा के रूप में अवतरित हुई। उसने कृष्ण को इतना अधिक बल दिया कि तत्व दर्शियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से राधा को ही कृष्ण की सहधर्मिणी माना और वे ही सर्वत्र कृष्ण के साथ संपूजित हैं। पति-पत्नी का भाव आत्म-समर्पण एवं एक दूसरे को बल देने की दृष्टि में सर्वोपरि प्रेरणाप्रद है। इसके लिये वासनात्मक जीवन तनिक भी आवश्यक नहीं। राधा कृष्ण के जीवन में वैसी गंध कहीं भी नहीं है। गोपियों वाला महारास भी आध्यात्मिकता की गंभीर दृष्टि से देखा जाए तो उसमें उस उल्लास के विकास का ही प्रयोजन है जो किसी भी आत्मा को अत्यधिक प्रखर बना सकता है। नर-नारी के बीच को अनावश्यक दीवार खड़ी कर दी गई है उसे महारास तोड़ता है। काम-चेष्टा रोकी जानी चाहिए पर नर-नारी के बीच पवित्र मिलन कर प्रतिबन्ध क्यों हो? इसी समस्या का हल भगवान् कृष्ण ने रास रचा कर किया है। महारास इस प्रकार का एक महा-भाव था जिसके माध्यम से अवतरण अत्यधिक प्रखर एवं समर्थ बन सका।

मीरा ने पति के रूप में कृष्ण को वरण किया और उनके शरीर का कोई अस्तित्व न होने पर भी वही आनन्द पाया जो प्रगाढ़ प्रेम के भरे-पूरे दाम्पत्ति जीवन में संभव है। इस प्रकार का प्रेम प्रणय शरीर की समीपता की कोई अपेक्षा नहीं करता।

महाकाल ने बुद्ध के रूप में अवतार लिया। उनकी स्थानापन्न माता ने उन्हें मदालसा की भाँति बहुत कुछ सिखाया था। राजा गोपीचन्द की माता की तरह उनने भी बुद्ध के मर्मस्थल को स्नेह सम्मिश्रित वात्सल्य के साथ सींचा था। तपश्चर्या के लिये कुछ समय बुद्ध को अपनी धर्मपत्नी यशोधरा तथा बालक राहुल को छोड़कर आत्म साक्षात्कार के लिये एकाकी जाना पड़ा। पर यह स्थिति अधिक दिन न रही । यशोधरा उनकी अनुगामिनी सहचरी होकर महाकाली की आवश्यकता पूर्ण करती रही। उनने महिलाओं में बुद्धत्व के जागरण का महान् उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर उठाया और उसे आश्चर्यजनक सफलता के साथ निवाहा। बुद्ध को उससे भारी बल मिला, जो कमी थी वह चण्डी ने दूसरा रूप धारण करके पूरी कर दी। अंबपाली विश्व विख्यात नर्तकी थी, पर उसकी मूर्छित आत्मा जब जागी तो उसने, अपना गन्दा कलेवर उतार फेंका। अपना शरीर, मन-जीवन सब कुछ बुद्ध को समर्पण कर दिया और कुबेर जितनी विपुल सम्पत्ति उन्हीं के चरणों में अर्पित कर दी। इस अनुदान से तथागत को इतना अधिक बल मिला, जिसका वारापार नहीं। अवतरण का प्रयोजन पूर्ण करने में अम्बपाली की आत्माहुति को कितना श्रेय दिया जाए, इसका मूल्याँकन करने की क्षमता साधारण व्यक्ति में नहीं हो सकती ।

पिछले कुछ दिनों से ऐसी भ्राँति रही है कि नारी दोषों की खान है। उससे जो जितनी घृणा करता है, जितना दूर रहता है वह उतना ही बड़ा त्यागी या महात्मा है। यह मान्यता भारतीय दर्शन के सर्वथा विपरीत है। भारतीय धर्म वर्णाश्रम धर्म हैं। यहाँ ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास चार आश्रम हैं। चारों से घिरा हुआ जीवन नारी के सान्निध्य से परिपूर्ण रहता है। शैशव में माता तथा उसी स्तर की मातृ-तुल्यायें अमृत बरसाती हैं। बहिनें सहचरी होती हैं। गृहस्थ में पति-पत्नी आत्म समर्पण करके द्वैत को अद्वैत में बदलते हैं। वानप्रस्थ और संन्यास में भी पत्नियाँ साथ रहती हैं। प्राचीन काल के अधिकाँश ऋषि, मुनि सपत्नीक जीवनयापन करते हुए अरण्य को विश्वमंगल के वरदान में परिणत करते थे। ब्रह्मा, विष्णु, महेश से लेकर छोटा-बड़ा प्रत्येक देवता सपत्नीक है। नारी-त्याग का आध्यात्म के साथ सम्बन्ध जोड़ना परले सिरे की भ्राँति हैं हाँ, उसका वासना परक रमणी रूप हेय है। इस दोष-दृष्टि को आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति आसानी से छोड़ सकते हैं। अभी-अभी हमारे देखते महात्मा गाँधी ने भरे यौवन में 33 वर्ष की आयु में अपनी स्त्री को वासनारहित देखना आरम्भ किया, कस्तूरबा को अपनी पुण्य सहचरी माना और वे दोनों इसी पवित्र सम्बन्ध को आजीवन निवाहते रहे। महाकाल और महाकाली का सहचरत्व वासना परक निम्न स्तरीय नहीं होता। इसलिये अवतरण के प्रयोजन में रथ के दो पहियों को साथ-साथ चलता हुआ यदि देखा जाता है तो उसमें आश्चर्य जैसी कोई बात तनिक भी नहीं है, वरन् यह स्वाभाविक ही नहीं आवश्यक भी रहता है।

पिछले सौ वर्ष के अन्दर भी महाकाल के कई छोटे भूमिका अवतरण हुए हैं । उनने युग परिवर्तन की महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित की है। समकालीन जनता समकालीन नर-नारायणों का ठीक तरह मूल्याँकन नहीं कर पाती। वस्तुस्थिति का पता तो बहुत दिन बाद चलता है। ईसा को निरन्तर सताया और दुत्कारा जाता रहा, जिन्दगी भर में उनके केवल 13 अनुयायी बने जिनमें से एक तो उनकी जान का ग्राहक ही बन गया। अब 2 हजार वर्ष बाद लोगों ने उनका मूल्य समझा है और संसार की 3 अरब जनसंख्या में से एक तिहाई-एक अरब-ईसा धर्म के अनुयायी बन गये हैं। प्रायः सभी देव-दूतों को उनके समय में निन्दा, विरोध, अपमान, उपेक्षा, उपहास एवं उत्पीड़न का भागी बनना पड़ा है। इसलिये इस शताब्दी में हुए महाकाल के अवतरणों का लोग ठीक तरह मूल्य और महत्व समझ नहीं पा रहे हैं। फिर भी वस्तुस्थिति यही है कि कई असाधारण आत्मबल सम्पन्न देवदूत पिछले दिनों अवतरण हुए हैं और उनने युग परिवर्तन की भूमिका का आश्चर्यजनक रीति से शिलान्यास किया है। महाकाल के इन खण्ड अवतारों के साथ महाकाली अपनी छाप बराबर बनाये रही है और सदा की भाँति धर्म स्थापना में अपना-योगदान पूरी तरह देती रही है।

इन दिनों युग परिवर्तन की भूमिका सम्पादन के लिये जो चार खण्ड अवतार हुए हैं उनमें श्री रामकृष्ण परमहंस और योगी अरविन्द प्रमुख हैं। इन दोनों ने एक दूसरे से भिन्न प्रकार के कार्य किये हैं पर वे दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों ने ही अपने ढंग से तप किये हैं और सूक्ष्म आकाश को इतना प्रभावी प्रखर एवं उष्ण बनाया है जिससे इन्हीं दिनों कितने ही युगनिर्माता महापुरुष उत्पन्न हो सके । इतिहास के पन्ने पलटने पर प्रतीत होता है कि भारत भूमि ने जितने उत्कृष्ट स्तर के एक साथ अनेक जन नेता इन पिछले सौ वर्षों में उत्पन्न किये हैं उतने चिरकाल से उत्पन्न नहीं हुए थे। भगवान बुद्ध के बाद पिछले 2000 वर्षों में महापुरुषों का उत्पादन प्रायः रुक सा गया था।

इस अवरोध को दूर करने के लिये आध्यात्मिक प्रचंड शक्ति की सक्रियता आवश्यक थी, जो दो देव दूतों के द्वारा बहुत हद तक सम्पन्न की गई।

श्री रामकृष्ण परमहंस ने ज्ञानयोग की और अरविंद ने भक्तियोग की भूमिका सम्पन्न की। दोनों के प्रकाश से सूक्ष्म जगत में अत्यन्त हलचल उत्पन्न हुई और उसी के प्रभाव से जन मानस एक दिव्य आभा से आलोकित हो उठा। फलस्वरूप विपन्न परिस्थितियों में भी हमारे लिए राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त कर सकता असम्भव जैसा दीखने वाला कर्म भी सम्भव हो गया। उन्होंने अपने-अपने ढंग से तपश्चर्या करके वह वातावरण उत्पन्न किया जिससे कितने ही प्रखर जन नेताओं का उद्भव सम्भव हो सका।

परमहंस की तपश्चर्या ने अपने समय में बंकिमचन्द्र, महात्मा मालवीय, लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, जस्टिस रानाडे, दादा भाई नौरोजी, केशव चन्द्र सेन जैसी अनेकों ज्ञात अविज्ञात विभूतियों का सृजन किया। सन् 1857 का गदर के नाम से विख्यात स्वातंत्र्य युद्ध उन्हीं दिनों लड़ा गया। उस समय तात्याटोपे सहित नाना साहब और रानी लक्ष्मीबाई ने जो कुशल नेतृत्व किया उसकी सफलता इस अर्थ में है कि उस अभियान ने पराधीन मनोवृत्ति को उलट कर स्वातन्त्र्य आकाँक्षी बना दिया। कितनी ही सुधारवादी धार्मिक एवं सामाजिक संस्थायें उन्हीं दिनों जन्मी।

स्वामी विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस की ही प्रतिच्छाया थे। नास्तिक नरेन्द्र को उन्होंने अपनी शक्ति का बहुत बड़ा भाग दान देकर विवेकानन्द बनाया था। आर्थिक संकट में ग्रस्त असहाय युवक नरेन्द्र एक दिन दीन-हीन बना हुआ अन्य अनेक याचकों की तरह परमहंस से आशीर्वाद वरदान अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए माँगने आया था। उन्होंने इसे काली के पास भेज दिया कि जो माँगना हो उन्हीं से माँग ले। नरेन्द्र अर्थ याचना करने गया था पर माँ के सामने जाते ही उसकी भावना बदल गई और कहा-माँ मुझे ज्ञान दे, भक्ति दे, शक्ति दे, और शाँति दे। इनके अतिरिक्त मुझे और कुछ नहीं चाहिए। माँ ने उसे वही दिया और बालक आगे चल कर स्वामी विवेकानन्द बन गया परमहंस ने एक दिन उसके ऊपर लात रख दी तो समाधि लग गई। अन्त समय उन्होंने अपना बहुत बड़ा आत्म-बल अपने इस उत्तराधिकारी को दे दिया। उसी क्षमता के बल-बूते वे देश-विदेश में भारतीय संस्कृति को प्रकाशवान श्रद्धास्पद एवं पुनर्जीवित करने में समर्थ हुये। रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आने वाले लोगों को जो ज्ञान मिला है उसका संग्रह पुस्तकों में है। उसे पढ़ने से पता चलता है कि वे व्यक्ति और समाज को उत्कृष्ट स्तर की ओर अग्रसर करने के लिए कितना महत्वपूर्ण अमृत बरसाते रहते थे। जिह्वा से निकलने वाली बैखरी वाणी से ही नहीं, उन्होंने मध्यमा, परा, पश्यन्ती वाणियों से भी वातावरण को ज्ञान आभा से दीप्तिमान किया। विवेकानन्द उन्हीं के उद्घोषक थे, जिन्होंने भारतीय जनता के मस्तिष्क को समुद्र मंथन की तरह विक्षुब्ध कर दिया।

परमहंस की शक्ति जिन उद्गमों, स्रोतों से मिलती रही है वे महाकाली की दो प्रतिमाएं हैं। योगिनी भैरवी ने उन्हें अनेक गुह्य विद्याएं छह वर्ष तक सिखाई। अद्भुत तपश्चर्याएं कराई और वह क्षमता उत्पन्न कर दी, जिससे वे महाकाल का प्रयोजन अपनी सीमा मर्यादा के अनुकूल ठीक प्रकार पूरा कर सकें। दूसरी प्रतिमा उनकी धर्म पत्नी शारदा है, जिसने अपनी आत्मा की समस्त सरसता निचोड़ कर भावोन्मादी समझे जाने वाले रामकृष्ण की आत्मा को अमृत की तरह सींचा और वे सच्चे अर्थों में परमहंस हो गये। दोनों एक दूसरे को पूर्वजन्मों से जानते थे। वर्ष की बालिका शारदा जब परमहंस का कीर्तन देख रही थी तब उसने अपनी माँ से कहा था-यही महात्मा मेरा पति होगा। तक किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं किया। रामकृष्ण युवा हो गये। उनके विवाह की चर्चा चली तो उनने घर वालों से कहा-व्यर्थ इधर-उधर समय नष्ट न करो मेरी सहचरी जय राम बाटी गाँव में है। जाओ वहाँ रामचन्द्र मुकर्जी के यहाँ उपयुक्त पात्री मौजूद है। 6 वर्ष की अबोध बालिका का विवाह 25 वर्ष के युवक के साथ होना लोकाचार की दृष्टि से अनुपयुक्त अवाँछनीय है, पर व्यवस्था सहज ही बन गई और विवाह हो गया। संतानोत्पादक व्यवस्था के लिये आयु की समानता आवश्यक है पर जिन्हें इन कार्यों के लिए नहीं, आत्मोत्थान की अपूर्णता पूर्ण करने के लिए आत्माहुति देनी ठहरी और विवाह को घनिष्ठता का प्रकटीकरण मात्र बनाना ठहरा उनके लिये आयु का कोई प्रश्न नहीं। आयु में 20 वर्ष का अन्तर होते हुए भी वे दोनों आजीवन अनन्य आत्मीय होकर रहे। युवती शारदा और प्रौढ़ रामकृष्ण बहुत समय तक एक ही कुटी में रहे। आत्मिक मिलन का उच्चस्तरीय आनन्द इतना उल्लासपूर्ण था कि वासनात्मक क्षुद्रता की ओर उनने आँख उठा कर भी नहीं देखा। प्राणतत्व का उद्वेग सूक्ष्म जगत में संव्याप्त ‘रयि’ तत्व में शान्त होता है। शारदा शान्ति की देवी की तरह आई और उस महाप्राण महाकाल पर स्नेह सुधा की अनवरत वर्षा करके उनकी क्षमता अनुपम बनाये रही। कहने वाले कहते रहे-उपहास करते रहे कि बाबा जी ने ब्याह कर लिया और सपत्नीक रहता है। पर परमहंस ने किसी के कथन पर नहीं वस्तु स्थित पर ही ध्यान रखा वे कहा करते थे-”यह शारदा है, सरस्वती है । ज्ञान देने आई है। यह मेरी शक्ति है।”

विवेकानन्द साँस्कृतिक दिग्विजय के लिए जब अमेरिका पहुँचे तब श्रीमती जार्ज, डबल्यु हैल ने और इंग्लैंड में कुमारी नोबुल ने उनको धर्म प्रचार कार्य में भारी सहायता की। अन्त में वह विवेकानन्द की शिष्या हो गई, उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रहण किया, और भगिनी निवेदिता के नाम से प्रख्यात हुई। उन्होंने अपना जीवन ही विवेकानन्द के मिशन के लिए समर्पित कर दिया और भारत आकर एक साथी की तरह अनेक वर्षों तक भारतीय संस्कृति की महती सेवा करती रहीं और विवेकानन्द की उपयुक्त देखभाल करने में संलग्न रहीं।

महाकाल का दूसरा खण्ड अवतरण योगी अरविन्द के रूप में सामने आया। भारत के साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए उन्होंने आरम्भ में हिंसक क्रान्ति की योजना बनाई, पर जल्दी ही वे समझ गये कि इस महान प्रयोजन को शस्त्र बल नहीं आत्मबल सम्पन्न करेगा। ये न केवल अपने में वरन् समस्त समाज में आत्मबल उत्पन्न करने के लिए पाण्डुचेरी में एकाकी रह कर प्रचंड तप करने लगे इस तप का अभीष्ट प्रभाव हुआ। गर्मी के दिनों में जिस प्रकार हवा गरम हो जाने से धूलि के बवंडर (वात-चक्र) घुमड़ते हुए फिरते हैं और जमीन पर पड़े हुए तिनके पत्तों को उड़ा कर आकाश में उठा ले जाते हैं इसी प्रकार उस तप की ऊष्मा ने सूक्ष्म वातावरण को गरम किया और साधारण स्तर के दीखने वाले कितने ही व्यक्ति देखते-देखते राष्ट्र का अद्भुत नेतृत्व करने लगे। सामान्य जनता में भी त्याग बलिदान की प्रचण्ड भावना जगी और उसने त्याग बलिदान का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।

अरविन्द युग में कितने ही युग निर्माता पैदा हुए जिनमें महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, चितरंजनदास, लाजपतराय, सरदार पटेल, राजेन्द्र बाबू, अनेक मुख्य हैं। ऐनी बीसेन्ट आयरश महिला थीं पर उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता की ज्वाला जलाने में ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत की । उन्होंने अपना सारा जीवन भारतीय पुनरुत्थान के लिए समर्पित कर दिया। सरोजिनी नायडू प्रभृति जन जागरण का बिगुल बजाने वाली महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है। अहिंसक आन्दोलन की तरह भारत की हिंसक क्रान्ति भी अपने स्थान पर बड़ी शानदार रही है, वीरेन्द्रकुमार, रासबिहारी बोस, शचीन्द्र नाथ सान्याल, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि के नाम बच्चे-बच्चे की जबान पर हैं। श्री दुर्गादेवी ने भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन को अपने स्नेहासिक्त एवं समर्थ व्यक्तित्व द्वारा जिस ढंग से सींचा उसकी तुलना करते नहीं बनती।

तपस्वी अरविन्द के महान उद्देश्य और प्रचंड तप का स्वरूप समझने के लिए फ्रान्स के महान दार्शनिक पालरिचार्ड पाण्डुचेरी गये थे। उन्होंने अभियान की महत्ता को समझा और अपनी धर्मपत्नी को उस एकाकी संत के लिए आवश्यक सुविधा प्रस्तुत करने के लिए आग्रहपूर्वक छोड़ दिया। पालरिचार्ड का वह अनुपम त्याग था। पतिभक्त देवी ने पति के साथ रह कर शरीर प्रयोजन पूरा करने की अपेक्षा विश्व मानव की सेवा में सतत उस ऋषि की सेवा का आदेश शिरोधार्य किया और वे पाण्डुचेरी में ही स्थायी रूप से बस गई । माता जी के नाम से विख्यात परम श्रद्धास्पद यही महान महिला अरविन्द की शारीरिक मानसिक व्यवस्था बनाती रही और उनका उग्र तप निर्बाध गति से चलता रहे उसकी अभीष्ट सुविधा उत्पन्न करती रहीं। इतना ही नहीं, उन्होंने अरविन्द आश्रय के संचालन एवं इनके महान मिशन को सशक्त बनाने के लिये अपने को होम कर दिया। महाकाल के साथ महाकाली के अस्तित्व की इसे एक दिव्य झाँकी ही समझा जाना चाहिए।

महाकाल और महाकाली का श्रद्धा-विश्वास का रूप भावना क्षेत्र का युग्म कहा जा सकता है। संघर्ष और क्रान्ति के रूप में उनकी उग्रता देखी जा सकती है त्याग और सेवा के रूप में वही युग्म व्यक्ति की उत्कृष्टता प्रकट करता है। प्रबुद्धों में उसे विवेक एवं निष्ठा के रूप में देखा जा सकता है। चरित्र और प्रीति से रूप में सभ्यता प्रतीक बनता है। वीर्य और कर्मण्यता के रूप में यही मानवता का प्रतिनिधित्व करता है। अनाचार के स्थान पर सदाचार की स्थापना, असंतुलन को बदल कर संतुलन की प्रतिष्ठापना करना इस युग्म का प्रधान प्रयोजन है समय-समय पर इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए इस महा युग्म को विविध रूपों में विविध क्रियाकलाप सम्पन्न करते हुए अवतरित होना पड़ता है। सामयिक परिस्थितियाँ उसे तात्कालिक विधि व्यवस्था जुटाने के लिए प्रेरित करती हैं। इसलिए उनके क्रियाकलापों का उद्देश्य “परित्राणाय साधूनाँ विनाशायाच दुष्कृताम्” एक होते हुए कार्य पद्धति सदा ही बदलती रहती है।

कोई व्यक्ति जन्मजात रूप से देवदूत नहीं होता। महाकाल और महाकाली उसे किसी विशेष अवसर पर अपना वाहन बनाते हैं और देह धारी के माध्यम से वे सूक्ष्म सत्ताएं अपना काम करती हैं। अदृश्य शक्ति का क्रिया-कलाप किसी दृश्य माध्यम से ही चरितार्थ हो सकता है। इसलिए वह जिसे उपयुक्त पात्र समझती है, समयानुसार वरण कर लेती है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाली, सूरदास आदि का आरम्भिक जीवन निम्न स्तर का था। पर जब उस महाशक्ति ने उनमें प्रवेश किया तो उनकी पूर्व भूमिका बदलते देर न लगी। आमतौर से ऐसा ही होता है। सामान्य स्तर के दीखने वाले व्यक्ति कई बार उपयुक्त अवसर पर अपनी पुरानी मान्यताओं आकाँक्षाओं और गतिविधियों को साँप की केंचुली की तरह उतार फेंकते हैं और समीपवर्ती लोगों के उपहास एवं विरोध की परवा न करते हुए उत्कृष्ट युग परिवर्तन की भूमिका सम्पन्न करने के प्रयोजन के लिए, असीम साहस के साथ करवट बदलने लगते हैं तब समझना चाहिए कि इन नर-नारियों पर महाकाल महाकाली की दिव्य धारा अवतरित हो रही है। स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरते समय भगवती सुरसरी ने शिव जी की जटाओं को वाहन चुना था। समय समय पर कितने ही नर-नारी इन जटाओं का प्रयोजन पूर्ण करते हैं।

इसी अंक में एक लेख आगामी तीस वर्षों में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तथा युग-निर्माण का स्वरूप समझाने के लिए छप रहा है इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए एक पूर्ण अवतार अवश्य तीस वर्ष उपरान्त लगभग 2000 में प्रकट होगा। अभी उसके लिये उपयुक्त पात्र नर-नारी जन्म ले रहे हैं। जिनमें जीवन मुक्त आत्मायें प्रवेश करेंगी और उन्हें युग परिवर्तन अभियान के विभिन्न उत्तरदायित्वों का भार सौंपेंगी। अगले दिनों सप्तऋषियों, उनकी सातों पत्नियों, शिवि, दधीच, हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, ध्रुव, अंगद, हनुमान, भरत, लक्ष्मण, भीष्म द्रोणाचार्य, अर्जुन, भीम, कर्ण बुद्ध, महावीर, गाँधी, दयानन्द, जैसी आत्माएं अवतरित होंगी। गार्गी मैत्रेयी, भारती, कुन्ती, द्रौपदी, सावित्री, अनुसूया, मीरा लक्ष्मी बाई, जैसी देवियाँ अवतरित होंगी। और उनके सहकार से महाकाल एवं महाकाली का महान उद्देश्य पूरा होगा।

अगले दस वर्ष अत्यधिक क्षोभ और संकट के हैं। इनमें अगणित प्रकार के त्रास मानव जाति को सहने पड़ेंगे ताकि सर्व साधारण की समझ में यह कडुआ पाठ भली प्रकार आ जाए कि स्वार्थ, छल, विलासिता एवं दुष्टता से भरा हुआ निष्ठुर जीवन लाभकर नहीं हानिकर है। यह तथ्य, उपदेशों से ही नहीं कटु अनुभवों से भी सीखा जाता है। अतएव दुष्टता पर उतारू मानव प्राणी के लिये इस प्रकार के कटु प्रशिक्षण एवं कठोर दंड विधान की भी प्रकृति व्यवस्था करती है। वैसी ही दंड नीति हमें अगले दस वर्षों में भोगनी पड़ेगी। साथ-साथ वह लोकशिक्षण एवं सृजनात्मक अभियान भी चलता रहेगा जिसके आधार पर उपयुक्त समय आने पर आवश्यक परिवर्तन सहज ही सम्भव हो सके।

वर्तमान काल में भी महाकाल का क्रिया-कलाप सुव्यवस्थित रीति से चल रहा है। पिछले दिनों अवतरित रामकृष्ण परमहंस योगी अरविंद जैसी सत्ताएं नहीं रहीं। पर उनका सम्मिलित तप तेज दूसरे शरीर में प्रवेश करके अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति की व्यवस्थाएँ जमा रहा है। महाकाली अपनी सहचरी नव दुर्गाओं को अवतरित कर रही है। पर उन्हें पहचान सकना समकालीन लोगों के लिए सम्भव नहीं। आज तो उन्हें सामान्य मनुष्य जैसा ही देखा-माना जाएगा और अन्य देव-दूतों की तरह सताया चिढ़ाया जाएगा। युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि भीतर ही भीतर सुदृढ़ रूप से बन रही है। महाकाल की इच्छा अपूर्ण नहीं रह सकती। महाकाली अपनी सृजनात्मक और संघर्षात्मक प्रक्रिया को प्रचंड करने में संलग्न है। अनेक प्रबुद्ध आत्माओं के भीतर प्रबल हलचल मच रही है ओर तुच्छ स्वार्थों का घेरा तोड़ कर साहसपूर्वक अनेक नर-नारी महाकाल और महाकाली की इच्छा पूर्ण करने के लिए उनके प्रकाश को आत्मसात् कर रहे हैं। वे आगे बढ़ेंगे ही, नवनिर्माण की ऐतिहासिक भूमिका सम्पादन करेंगे ही।

यह शताब्दी अपने आप में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। पाश्चात्य जगत ने भौतिक विज्ञान के आविष्कार का आश्र


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