इस वर्ष हम पाँच कदम आगे बढ़ें।

June 1967

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अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य को युग-निर्माण योजना की प्रथम पंचवर्षीय योजना के पहले साल के पंचसूत्री कार्यक्रम को पूरा करने के लिये सच्चे मन और प्रगाढ़ निष्ठा के साथ कार्य करना चाहिये।

पहले वर्ष में जो पाँच कदम उठाने हैं उनका स्वरूप और विवरण इस विशेष लेख में है। इसे परिजन पूरे ध्यान से पढ़ें और तदनुसार अपनी गतिविधियाँ विनिर्मित करने में तत्परता बरतें। प्रयत्न यह है कि इस वर्ष हमारे प्रतिनिधि प्रत्येक सदस्य के पास पहुँचायें और पूछें कि आपने यह पाँच कदम उठाने के संदर्भ में क्या किया? उत्तर तैयार रखा जाना चाहिए।

बुद्धिमान् होते हुए भी अबुद्धिमत्ता की रीति−नीति अपनाने वाले नर-पशु का उद्बोधन करते हुए श्रुति ने कहा है- ‘आत्मा वारे दृष्टव्य, श्रोतिव्य, निदिधिस्यातिव्य, अर्थात् अभागों! इन बाल क्रीड़ा जैसे गोरख धन्धों में ही न लगे रहो कुछ आत्मा की ओर भी देखो, कुछ उसके बारे में भी सुनो समझो, कुछ उसका भी चिन्तन, मनन करो। हम शरीर ही नहीं, आत्मा भी हैं। इसलिये शरीर की सुविधाओं को जुटाने का ही नहीं, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास एवं आत्म-कल्याण का भी ध्यान रखना चाहिए। आत्मा की अपूर्णता को हटा कर पूर्णता तक पहुँचने की दिशा में हमें आत्म साक्षात्कार करना होता है। अपना स्वरूप, प्रयोजन और कर्तव्य समझना होता है और जीवनक्रम इस प्रकार बनाना होता है जिससे शरीर निर्वाह से अधिकाधिक शक्ति बचा कर उसे जीवनोद्देश्य की पूर्ति में प्रयुक्त किया जा सके। यदि इस गतिविधि का निर्धारण न हो सका, शरीर और मन को वासना, तृष्णा के दावानल में ईंधन डालते रहने में ही जुटाये रखा गया, तो यह भूल अगले दिनों शूल की तरह चुभती रहेगी और बार-बार 84 लाख योनियों के कष्ट-कारक कुचक्र में फैलाये रहेगी, भले ही अहंकार पूर्ति एवं विलासिता के कुछ साधन जुटा लिये जाएँ। यह सफलता कितनी निरर्थक है। इसका अनुमान हम किसी भी दिन अपनी मृत्यु की कल्पना करके देख सकते हैं कि यह निरर्थक संचय दूसरों को मुफ्त का माल उड़ाने के लिये छोड़ जाने की विडंबना मात्र है। क्या इसी विडंबना के लिये हमें उस अनुपम अलभ्य सुअवसर को नष्ट-भ्रष्ट कर देना चाहिए?

उपरोक्त तथ्य को हम जितनी अधिक बार, जितनी गहराई और सच्चाई से विचारें उतना ही उत्तम है। समस्त आध्यात्म ज्ञान की ब्रह्म-विद्या की-रचना इसी उद्बोधन के लिये हुई है। अधिकाँश मनुष्य पाशविक जीवन जीते हैं। उन्हीं की देखा-देखी विचारशील लोग भी अपनी गतिविधियाँ उसी ढर्रे पर चलाने लगते हैं। स्वतंत्र चिन्तन का साहस कम लोगों में होता है और अन्धी भेड़ों के झुँड की तरह विनाश के पथ पर दौड़ी जा रही दुनिया से अलग हट कर अपने लिये दूरदर्शिता-पूर्ण रीति-नीति निर्धारित करना किन्हीं विरलों से ही बन पड़ता है। यह दुर्बलता मानव-जीवन का उद्देश्य धूलिसात कर देती है। चढ़े हुए नशे में तो कुछ पता नहीं चलता, पर जब जीवन का अन्त आता है तब इस भयानक भूल का पश्चात्ताप मर्मान्तक पीड़ा सहने के रूप में करना पड़ता है। इसलिए शास्त्र ने समय रहते सचेत होने के लिये उद्बोधन मंत्र दिया है-”आत्मा वारे दृष्टव्य, श्रोतव्य, निदिध्यासितव्य।

भगवान के काम की सार्थक और जीवनोद्देश्य को पूर्ण करने के लिये हमें जो रीति-नीति अपनानी पड़ती है उसका नाम है -जीवन साधना। इसी का मार्ग-दर्शन शास्त्रकारों और ऋषियों ने किया है। हमें उसे हृदयंगम करना चाहिए और जो श्रेयस्कर है उसे व्यवहार में उतारना चाहिए। कथा सुनने, स्वाध्याय सत्संग करने, पूजा पाठ, तीर्थ, स्नान, व्रत उद्यापन करने का प्रयोजन इतना ही है कि हमारा ध्यान जीवनोद्देश्य की पूर्ति की ओर आकर्षित हो और उसके लिये ठोस कदम उठाते हुए साहस का परिचय दें।

युग बदलने ही वाला है। वर्तमान कुण्ठायें, अव्यवस्थायें, विकृतियाँ व्यक्ति और समाज का बेतरह उत्पीड़न कर रही हैं, इनका अन्त होना ही है। प्रसव पीड़ा की नाई अगले दिन अतीव क्लेश कलह और शोक-सन्ताप से भरे हुए हैं। साथ ही अगले नव-निर्माण की आधार-शिला भी इन्हीं दिनों रखी जानी है। इसलिये संघर्षात्मक और रचनात्मक दोनों ही दिशाओं में संस्कारवान प्रबुद्ध लोगों को महत्वपूर्ण काम करने होंगे। यही इस युग की सब से बड़ी साधना, सब से बड़ी तपश्चर्या है। हर युग और हर समय में तत्कालीन वातावरण के अनुरूप प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। वर्तमान परिस्थितियों में आत्मकल्याण और समाज-कल्याण की उभयपक्षीय श्रेय साधना को सम्पन्न करने के लिए जो आवश्यक एवं अनिवार्य है, वही युग-निर्माण योजना का स्वरूप है। इसे गतिशील प्रखर एवं व्यापक बनाने के लिए जो प्रथम पंचवर्षीय योजना बनी है, उसके प्रथम वर्ष का कार्यक्रम मार्च 67 की अखण्ड-ज्योति में प्रस्तुत किया जा चुका है। अब आवश्यकता इस बात की है कि परिवार के प्रबुद्ध परिजन उसे कार्यान्वित करने में जुट जाएं।

जन्म दिवसोत्सव-

पाँच कार्यक्रम मार्च के योजना अंक में छपे हैं वे सभी एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण हैं। प्रथम कार्यक्रम जीवन का स्वरूप, उद्देश्य एवं सदुपयोग की प्रक्रिया हृदयंगम करने का है। आत्मदर्शन एवं आत्मचिन्तन, भी इसे कहा जा सकता है। जन्म-दिन मनाना, इस प्रक्रिया का एक वार्षिकोत्सव है। हर परिजन को कहा गया है कि वह अपना जन्म दिन हर साल मनाने की योजना बनाए। यों प्रति दिन ही यह सोचे कि “जीवन माला का एक मोती आज और कम हो गया क्या बाकी भी ऐसे ही व्यतीत करने होंगे?” पर जन्म-दिन जिस रोज पड़े उस दिन अधिक से अधिक समय यही सोचने में लगाइये कि क्या मैंने जीवन सौभाग्य का सही स्वरूप-सही उद्देश्य और सही सदुपयोग जान लिया? मैं उसी रीति-नीति पर चल रहा हूँ जिस पर कि एक प्रबुद्ध-एक विवेकशील-एक दूरदर्शी व्यक्ति को चलना चाहिए? यदि नहीं तो आज से अच्छा वह शुभ दिन कब आवेगा, जब कि अपनी गतिविधियों को सुधारने एवं पलटने के लिए साहसपूर्ण कदम उठाया जाए?

जन्मोत्सव के दिन अपने मित्रों स्वजन सम्बन्धियों, हितचिन्तकों, गुरुजनों के साथ एक छोटा धार्मिक समारोह हवन, यज्ञ अनुष्ठान किया जाए। दीपोत्सव, पंचतत्व पूजन, प्रार्थना, वादन, गायन, वाद्य, जलपान, अभिनन्दन आशीर्वाद पुष्पोपहार जैसा आमोद-प्रमोद रहे। जीवन की महिमा, महत्ता को समझाने-समझने के उद्बोधन सुनने सुनाने की व्यवस्था हो। जीवन विद्या से अपरिचित अज्ञानान्धकार में भटकने वाले लोगों में प्रकाश देने वाला आत्मिक भोजन सत्साहित्य दान-वितरण किया जाए। इस आधार पर एक कलात्मक साँस्कृतिक आयोजन उस दिन रखा जा सकता है जिसमें अपने को तथा सम्बोधित व्यक्तियों को जीवन तत्व को समझने, हृदयंगम करने और सही तरीके से जी सकने की प्रेरणा मिले।

आयोजन का सच्चा स्वरूप एकान्तिक आत्मचिंतन है। यह समुद्रमन्थन की तरह किया जाए। पिछले जीवन में जो न्यूनता रह गई उसे आगे पूर्ण करने की व्यवस्था बनाई जाए। दृष्टिकोण बदला जाए। तृष्णा और वासना की कठपुतली बन कर नहीं-आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के लिए जिया जाना चाहिए, यह सोचकर अपनी आर्थिक, भावनात्मक, शारीरिक, सामाजिक सारी विधि व्यवस्था का नये सिरे से निर्माण किया जाए। भगवान की इच्छा पूरी करने के लिए-लोक-मंगल के लिए हम किस प्रकार अधिक उपयोगी हो सकते हैं, यह सोचा जाए। जो उपयुक्त जँचे उसे अपनाने के लिए साहस बटोर कर मजबूत कदम उठाया जाए। ऐसा बन पड़े तो समझना चाहिए जन्मोत्सव मनाना सार्थक एवं सफल हो गया।

मथुरा में हम व्यक्तिगत रूप से अपने परिजनों के जन्म दिन मनाते हैं। अपनी पूजा के स्थान पर जितने वर्ष बीते उतने दीपक जलाते हैं और उनकी जीवन सफलता की प्रार्थना प्रेरणा में अधिक समय लगाते हैं। एक अनुरोध एवं संदेश भरी पुस्तिका भी भेजते हैं। प्रयत्न यही है कि अपने परिवार के सदस्य अपने आचरण से अपनी महानता सिद्ध करें और वह आदर्श दूसरों के लिए छोड़ें जिस पर अनुगमन करते हुए पीछे वाले लोगों को एक महान परम्परा का उत्तराधिकारी महापुरुष बनने का प्रकाश एवं मार्ग-दर्शन मिले। यही मनुष्य के लिए शास्त्र एवं परमात्मा का संदेश है। आत्मा को, अपने को जाने बिना, अपनी रीति सुधारे बिना, समस्त भौतिक सफलताएं निरर्थक हैं हमें आत्मोद्धार का पुरुषार्थ प्रदर्शित करना चाहिए और हर घड़ी आत्मा वारे दृष्टव्य श्रोतव्य, निदिध्यासितव्य की वेदवाणी व सन्देश हृदयंगम करना चाहिए।

जीवन साधना का मूल मन्त्र-

जीवन साधना ही सच्ची ईश्वरोपासना-सच्ची तपश्चर्या, सच्ची योगसिद्धि है। जीवन-क्रम अस्त-व्यस्त, निकृष्ट एवं कुमार्गगामी रहे तो दो चार माला फेर लेने या अमुक कर्मकाण्ड पूरा कर लेने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। परमेश्वर अपनी स्तुति या अर्चना का भूखा नहीं वह मनुष्य की नीयत और कर्म पद्धति को देखता है। नैवेद्य आरती से उसे बहकाया नहीं जा सकता। वह केवल उन्हें प्यार करता है जो अपना समस्त जीवन एक परोपकारी, निर्मल पुष्प की तरह बनाने में संलग्न हैं जिन्होंने अपने जीवन को यज्ञमय बना लिया वही सच्चा याज्ञिक है। सच्चे-सज्जन सहृदय और सुसंतुलित व्यक्ति ईश्वर के सच्चे भक्त कहे जा सकते हैं। उसके लिए भावुकता भरा अमुक कर्मकाण्ड पूरा कर लेना पर्याप्त नहीं वरन् जीवन के प्रत्येक क्षण को अधिकाधिक उत्कृष्ट बनाये चलाने की सूक्ष्म दृष्टि को और भी अधिक तीव्र बना कर जीवन साधना करनी पड़ती है।

जीवन साधना का एक महत्वपूर्ण सूत्र है “हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत।” प्रातःकाल ही हमें प्रति दिन यह सोचना चाहिये कि ‘केवल आज ही हमें जीवित रहना, रात को मर जाना है।’ इसलिए आज का दिन एक आदर्श रीति से जियें। उसे सर्वांग सुन्दर बनायें। जीवन के दो पहलू हैं एक बाह्य दूसरा आन्तरिक। बाह्य जीवन को सुव्यवस्थित और आन्तरिक को सुसंस्कृत बनाया जाना चाहिये। आलस्य, गंदगी, अव्यवस्था अशिष्टता, अपव्यय जैसे अनेक दोष अपने में होते हैं। कई व्यसन एवं दुर्गुण अपने स्वभाव के अंश बन गये होते हैं। उन्हें बारीकी में देखना, पहचानना और पकड़ना चाहिए। आज के दिन उन्हें जितना घटाना और मिटाना संभव हो उसके लिए प्रयत्न करना।-वस्तुओं को यथासाध्य सुसज्जित और साफ सुथरा और यथा क्रम रखना संबंधियों से शिष्टता और सज्जनतापूर्ण बोलना एवं व्यवहार करना यह सुव्यवस्थित जीवन के चिन्ह हैं।

सबेरे उठते ही पूरे दिन का कार्यक्रम इस प्रकार बना लेना चाहिये जिससे समय की बर्बादी के लिये तनिक भी गुँजाइश न रहे। समय की बर्बादी ईश्वर प्रदत्त सम्पत्ति की बर्बादी है। इसी प्रकार पैसे का अपव्यय करना माता लक्ष्मी का तिरस्कार है। दिनचर्या में इन दो तथ्यों पर अधिकाधिक सतर्कता से ध्यान रखा जाए कि एक भी क्षण और एक भी पैसा इस तरह खर्च न हो जिसे अपव्यय की संज्ञा में गिना जा सके। किसी के साथ ऐसा व्यवहार न किया जाए जिसे अशिष्ट, निष्ठुर, कठोर एवं दुष्टतापूर्ण कहा जा सके। हर किसी से मीठा बोलें और सज्जनतापूर्ण, सहृदय, सौम्य व्यवहार करें। हर वस्तु यथास्थान सुन्दर और सुव्यवस्थित रहे। अव्यवस्था, गंदगी एवं असावधानी अपनी किसी भी वस्तु या क्रिया में परिलक्षित न हो। हर काम ठीक समय पर पूरी सावधानी दिलचस्पी और मेहनत के साथ करें। अपनी कोई कृति यह चुगली न करे कि मुझे उपेक्षा और असावधानी के साथ किया गया है। सौंदर्य अपनी वाणी, पोशाक, कुटिया, तथा उपकरणों में फूटा पड़ रहा हो। स्वच्छता, कला, सादगी सात्विकता और सुन्दरता से अपना सारा वातावरण ओत-प्रोत हो। सुव्यवस्थित जीवन इन्हीं कसौटियों पर परखा जा सकता है।

आन्तरिक जीवन सुसंस्कृत हो। इसका अर्थ हर किसी के लिए आदर, सद्भाव, स्नेह, उदारता, सेवा एवं सहायता की मनोवृत्ति। जीभ के चटोरेपन पर कड़ा नियन्त्रण। विषय वासना पर नियन्त्रण। नारी के प्रति श्रद्धा एवं पवित्रता की दृष्टि। धनी बनने की तृष्णा का तिरस्कार। अहंकार का निराकरण और नम्रता का अभिवर्धन। पीड़ितों की सहायता और पिछड़े हुओं को उठाने में उत्साह। कर्तव्य परायणता को सन्तोष का केन्द्र बिन्दु मानना। ईश्वर को सर्वव्यापी और न्यायकारी समझकर पाप कर्मों से बचना। अपनी विभूतियों को समाज की सम्पत्ति मान कर उनका लोक मंगल के लिए उदारतापूर्वक दान। निन्दा, ईर्ष्या, चिन्ता, निराशा, आवेश, छिद्रान्वेषण, छल आदि मनोविकारों का शमन। यह सब सुसंस्कृत जीवन के आन्तरिक उत्कृष्टता के चिन्ह हैं। प्रयत्न यह करना चाहिए कि इन सद्गुणों का निरन्तर अभिवर्धन हो। जो भी कर्म, जो भी व्यवहार दिन भर होते रहें उनमें इन सद्गुणों का समावेश होता रहे। आन्तरिक दोषों का समावेश जिन कार्यों या व्यवहारों में हो रहा है, उन्हें बारीकी से तलाश करते रहा जाए और जब जहाँ जो भूल पकड़ में आये उसे तुरन्त सुधारा जाए। इस प्रकार की पैनी दृष्टि रख कर शरीर से बन पड़ने वाले कर्मों और मन में उठने वाले विचारों को उत्कृष्ट स्तर का बनाने का क्रिया-कलाप जारी रखा जाए। इस पद्धति से हम अपने हर दिन को अधिकाधिक उत्कृष्ट बनाते रह सकते हैं और जीवन साधना की तपश्चर्या में क्रमशः आशाजनक प्रगति करते रह सकते हैं।

रात्रि को सोते समय कुछ देर यह विचार किया जाए कि अब अपनी मृत्यु हो रही है। निद्रा देवी की गोद में शाँतिपूर्वक शयन किया जा रहा है। दिन भर के समस्त भाव-कुभावों का भार मन पर से हटा दिया जाए और केवल भगवान का स्मरण चिन्तन करते हुए उसकी शरणागति की भावना से सोया जाए। यह अभ्यास मृत्यु के भय को हटाता है, मृत्यु का स्मरण दिलाता है, और उस प्रक्रिया को स्वाभाविक बनाता है जिसके अनुसार मरण समय पर सब ओर से मन हटाकर भगवान के चरणों में चित्त लगाने वाले को अक्षय शांति प्राप्त होती है।

दिन भर की जीवन साधना में जो सफलता मिली हो उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया जाए। जो भूलें हुई हों उनके लिए पश्चाताप किया जाए और अगले दिन वैसी भूल न होने देने में अधिक सतर्कता बरतने का निश्चय किया जाए। अपने साथ जिनने सहयोग, उपकार किये हों उनके लिए कृतज्ञता व्यक्त की जाए, जिनके साथ अपने से कोई दुर्व्यवहार बन पड़ा हो उनसे क्षमा माँगी जाए और जिनने अपने साथ कोई अनुचित व्यवहार किया हो उन्हें क्षमा किया जाए। रात्रि को सोते समय-उस दिन की मृत्यु का वरण करते समय यदि इस प्रकार मनोभूमि का शोधन कर लिया जाए तो शान्तिपूर्ण निद्रा आती है, दुःस्वप्नों में बचाव होता है और जीवन साधना का योगाभ्यास सफलता की दिशा में द्रुतगति से अग्रसर होता है।

“हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत” के अभ्यास को यद्यपि प्रातःकाल उठते समय और रात्रि को सोते समय लगभग 15-15 मिनट प्रयोग में लाया जाता है, पर रूढ़िवादी अन्य पूजा उपासनाओं की तरह उतनी ही देर कुछ शब्द या भाव दुहरा कर कर्तव्य की इतिश्री कर देने से काम नहीं चल सकता। जीवन साधना के लिए हर घड़ी हर क्षण सतर्क रहना पड़ता है और अपनी हर शारीरिक मानसिक गति-विधि पर पैनी समीक्षात्मक नजर रखनी पड़ती है। जिस प्रकार बाजीगर बन्दर को तमाशा करना सिखाता है और लकड़ी के इशारे से उसकी गतिविधियों को मोड़ता है ठीक वैसा ही कार्य जीवन साधन में करना पड़ता है। आरम्भ में यह कठिन अवश्य लगता है और दुर्गुणों को छोड़ने तथा सद्गुणों को बढ़ाने में अपने आप से संघर्ष भी बहुत करना पड़ता है। किन्तु यदि दृढ़तापूर्वक निरन्तर प्रयत्न जारी रखा जाए तो प्रगति सुनिश्चित है। जीवन साधनामय बन जाता है और उसमें इतनी सुन्दरता, विशेषता उत्पन्न हो जाती है जिसके आधार पर भौतिक सुखों और आत्मिक शान्ति का समुद्र उसके चारों ओर लहराने लगता है। जीवन-साधना मनुष्य को इसी जीवन में देवता बनने का अवसर देती है और उसे अपने उत्कृष्ट दृष्टिकोण के कारण अपना समीपवर्ती साधारण-सा वातावरण स्वर्ग जैसा आनन्दमय प्रतीत होता है। जीवन-साधना का सिद्ध पुरुष जिस समाज, देश, धर्म, युग में पैदा होता है उसे अपनी सुगंध से सुवासित करके प्रगतिशील बनाने में भारी योगदान देता है।

प्रेम भावना का परिष्कार-

तीसरी साधना प्रेमयोग की साधना है। ईश्वर को आँखों से मूर्तियों और प्रतिमाओं के रूप में देखा-पूजा जाता है। यह ध्यान की एकाग्रता और आस्तिकता तथा निष्ठा उत्पन्न करने के लिए है। वस्तुतः ईश्वर जैसा है नहीं जैसा इन मूर्तियों और प्रतिमाओं में चित्रित किया गया है। ईश्वर का दर्शन नहीं अनुभव किया जाता है और यह अनुभूति भावना-क्षेत्र में उस संवेदना के साथ होती है। जिसे ‘प्रेम’ कहते हैं। तत्वदर्शी उपनिषद्कारों ने ‘रसो वैस’ श्रुति के द्वारा ही परमेश्वर को प्रतिपादित किया है। भक्ति का अर्थ है-प्यार! परमात्मा की उपस्थिति यदि मानव अन्तःकरण में कभी अनुभव हो सकती है-भगवान का दर्शन किया जा सकता है-तो वह प्रेम के रूप में ही संभव है। जिसमें जितनी प्रेम भावना उमड़ती रहती है समझना चाहिये उसकी आत्मा में परमात्मा का उतना ही अंश विद्यमान है।

प्रेम भावना के विकास का अभ्यास ईश्वर भक्ति से आरम्भ होता है। जिसकी अनन्त-करुणा हमारे ऊपर बरसती है, जो हममें निरन्तर एकरस असीम स्नेह, वात्सल्य बरसाता रहता है, उसके प्रत्युत्तर में कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धा और आत्मीयता की अभिव्यक्ति मन में धारण किये रहना उचित ही है। प्रेम की प्रतिक्रिया प्रेम ही है। जब हम परमेश्वर से प्रेम करते हैं तो हमारी श्रद्धा फेंकी गई रबड़ की गेंद के दीवार से टकरा कर वापिस लौट आने की तरह अनेक गुनी होकर अपने लिए दैवी वरदान की तरह आ उपस्थित होती है। ईश्वर से प्रेम करना वस्तुतः अपने भीतर भरे हुए अमृततत्त्व को जाग्रत करना है प्रेम-शून्य स्वार्थी, धूर्त, निष्ठुर प्रकृति के मनुष्यों का हृदय एक प्रकार का श्मशान है। जिसमें हिंसा प्रतिहिंसा घात प्रतिघात के पिशाच, बेताल ही नृत्य करते रहते हैं। ऐसा व्यक्ति न किसी का हो सकता है और न किसी को अपना बना सकता है। यह स्पष्ट है कि इस संसार में सब से बड़ा सजीव आनन्द यदि कहीं है तो दूसरों को आत्मीयता प्रदान करने या पाने में ही है। माता अपने पुत्र को और पत्नी अपने पति को अधिक आत्मीयता प्रदान करती है तब उसे ये उतने ही अधिक प्राण प्रिय, और मंगलमय लगते हैं। लोगों को अपनी सम्पत्ति, अपनी सन्तान, अपनी प्रतिरक्षा अत्यधिक प्रिय लगती है कारण कि उनके साथ ममता आत्मीयता जुड़ जाती है। प्रेम ही छाया पड़ते ही कुरूप वस्तुएं सुन्दरतम प्रतीत होने लगती हैं। प्रेमी प्रकृति का मनुष्य अपने संपर्क के व्यक्तियों, जीवों और पदार्थों पर प्रेम भरी दृष्टि डालता है तो वे सभी सुन्दर पुष्पों के उद्यान की तरह मनमोहक और नयनाभिराम दीखते हैं। प्रेम दृष्टि के कारण सृजन हुआ वातावरण उसे निरन्तर अमृतत्व का रसास्वादन कराता रहता है अपनी प्रेम प्रकृति की प्रतिक्रिया जब प्रतिध्वनि की तरह दूसरों के उत्तर में भी वापिस आती है तब उसे लगता है, मानो देवलोक के सहृदय लोगों के बीच उसे स्वर्गीय वातावरण में रहने का अवसर मिल रहा हो।

विगत मार्च की अखण्ड-ज्योति के “गायत्री की उच्चस्तरीय साधना” स्तम्भ में एक महत्वपूर्ण साधना बताई गई है। उसमें अपने आप को एक वर्षीय निर्मल, निश्चल, निश्च्छल, निष्काम-भाव भरे बालक के रूप में ध्यान करने और तत्पश्चात भगवान से माता का रिश्ता बनाकर उसकी गोदी में खेलने खान-पान करने, अविरल स्नेह पाने और परस्पर क्रीड़ा-विनोद करने का ध्यान करने की प्रेरणा की गई है। जो निराकार मान्यता वाले हैं उन्हें दीपक पर आत्मसमर्पण करने वाले पतंग, ज्ञानाग्नि में आहुति होने वाले घृत के रूप में अपने को प्रेम पराकाष्ठा तक पहुँचाने का शिक्षण दिया गया है। यह साधना, साधक के मन में ईश्वरीय प्रेम का अभ्यास और रसास्वादन कराती है। अपने भीतर प्रेम तत्व की मात्रा जितनी ही अधिक बढ़ती है, दोष दुर्गुणों का, स्वार्थ और अहंकार का कषाय कल्मष उतना ही घटता चला जाता है। निर्मल हृदय और प्रेमी-प्रकृति के व्यक्ति के लिये ईश्वर अत्यधिक समीप है। ऐसे ही लोग सच्चे भक्त कहलाते हैं और उनमें वह सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है जिसके आधार पर भक्त को भगवान से गुरु को गोविन्द से बड़ा कहने की प्रथा प्रचलित हुई है।

जिन्हें ईश्वर की अनुकम्पा प्राप्त हुई है ऐसे भक्तों का अब तक का इतिहास एक ही बात प्रतिपादित करता है कि उन्होंने अपने अन्तःकरण को प्रेम भावना से -भक्ति से ओत-प्रोत किया था। इसके अतिरिक्त उस परमब्रह्म को और किसी प्रकार प्राप्त नहीं किया जा सकता। विविध विधि जप-तप कथा, कीर्तन, मनोभूमि के शोधन और परिष्कार के लिये-चित्त की एकाग्रता के लिये हैं। भगवान का अवतरण तो प्रेम-भावना में भक्ति में-ही संभव है। ईश्वर उपासना के माध्यम से प्रेम प्रकृति के निर्माण का अभ्यास किया जाता है और वह जब विकसित होती है तब ईश्वर ही नहीं अपने संपर्क के प्रत्येक व्यक्ति, प्राणी और पदार्थ के साथ सच्चा और प्रगाढ़ स्नेह सद्भाव भरा व्यवहार करना अपना स्वभाव बन जाता है। प्रेम में लेने का नहीं देने का भाव होता है। प्रेमी अपने प्रिय पात्र में ईश्वर अथवा प्राणियों में अपने स्वार्थ सिद्ध करने -कुछ कमाने की बात नहीं सोचता वरन् जो कुछ अपने पास है उसे दे डालने के लिये आतुर हो उठता है। सच्चे प्रेमी का सच्चे भक्त का यही लक्षण है। अपना मानसिक स्तर ऐसा बनाये बिना न ईश्वर भक्ति का उदय हो सकता है और न भगवान का अनुग्रह और न अन्य लाभों से लाभान्वित ही हुआ जा सकता है।

उपासना के क्षणों में प्रेम का जितना प्रगाढ़ चिन्तन होगा, मन उतना ही एकाग्र रहेगा। मन प्रिय वस्तुओं में लगता है। ईश्वर का नाम रूप ही हमारी पूजा का क्षेत्र रहा है उसमें प्रेम भाव का समावेश नहीं किया गया है। प्रेमी को प्रेम की समीपता में जो आनन्द आता है उस रसानुभूति रस का यदि स्मरण किया जा सके तो चित्त के चंचल होने, मन के भागने, ध्यान न लगने जैसी कठिनाई का प्रश्न ही उत्पन्न न हो। शबरी, मीरा, राधा, सूर, चैतन्य, कबीर, नानक आदि भक्तों ने परमेश्वर को अपने साथ हास-विलास करने के लिये बाध्य किया था। हमें भी यदि सच्चा भक्त बनता हो-ईश्वर का सच्चा सान्निध्य प्राप्त करना हो तो अपने श्मशान जैसे स्वार्थी, निष्ठुर, कंजूस, नीरस स्वभाव को बदलकर उसमें अधिकाधिक श्रद्धा सद्भावना, कोमलता, सहृदयता का समावेश करना होगा। इस दिशा में बढ़ता हुआ प्रत्येक कदम साधक को अधिकाधिक सेवाभावी और उदार बनाता चला जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वार्थ पूर्ति की तुच्छता छोड़ कर परमार्थ की रीति-नीति अपनाता है। निरन्तर यही सोचता है जो परमेश्वर ने अपने को दिया है उसे पिछड़े और गिरे हुओं को उठाने और आगे बढ़ाने में खर्च कर देना चाहिए। प्रेम का फलितार्थ त्याग है, अनन्य प्रेम है। और केवल ऐसे ही लोग भगवान के ध्यान एवं अनुग्रह का परिपूर्ण रसास्वादन करते हैं।

जीवन-साधन में शरीर और मन को स्वच्छ करने को-”हर दिन नया जन्म हर-रात नई मौत” का अभ्यास करते हुए अपने को प्रेमी प्रकृति बनाने में तत्पर रहना चाहिए। ऐसे स्वभाव से कई बार धूर्तों द्वारा ठगे जाने का खतरा रहता है फिर ठगे जाने का खर्च काट कर भी कमाई में जो बचता है वह इतना अधिक होता है कि कुबेर के कोष से भी उसकी तुलना की जा सकती है। सच्चे प्रेमी का व्यक्तित्व इतना श्रद्धास्पद हो जाता है कि उसके आगे सहज ही सबको-मनुष्यों देवताओं को ही नहीं भगवान को भी नत-मस्तक होना पड़ता है।

ज्ञान-यज्ञ के ऋत्विज्-

जीवन-साधना का चौथा चरण है ज्ञान यज्ञ। अज्ञान ही बन्धन है, उसे ही माया, भवसागर, नरक, अन्धकार आदि नामों से पुकारते हैं। इसी हेय स्थिति से उबारना आध्यात्म के समस्त ढाँचे का एक मात्र प्रयोजन है। ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय’ की श्रुति यही सन्देश देती है कि जीव यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो अज्ञान से निवृत्त होकर सद्ज्ञान की ओर बढ़। लोहे को लोहे को से काटा जाता है। जीव की विविध विधि दुर्गति करने वाले अज्ञान की काट का एक मात्र उपाय ज्ञान-साधना है। गीता में भगवान ने कहा है-

“नहि जानेन सदृश पवित्र मिह विद्यते।” ज्ञान से बढ़कर पवित्र वस्तु इस संसार में दूसरी कोई है ही नहीं।

जिस प्रकार शरीर, बाल, बर्तन, घर आदि में रोज मैल जमता है और रोज ही उसकी शुद्धि करनी पड़ती है। उसी प्रकार समाज का दूषित वातावरण अपने ऊपर अनेक प्रकार से दूषित कुप्रभाव डालता है। मन अनेक दोष-दुर्गुण ग्रहण करता है। यह मलीनता मस्तिष्क पर जमते-जमते कालान्तर में एक दोष-दूषण भरे पर्वत जितनी बन जाती है। जिस समाज में हम रहते हैं उसमें मूढ़ताएं, अंधपरंपराएं, स्वार्थपरताएं क्रूरतायें भरी पड़ी है। ज्ञात और अविज्ञात रूप में लगभग सारा समाज और उसका वातावरण हमें निकृष्ट स्तर की गतिविधियाँ अपनाने की प्रेरणा देता है। उस कुप्रभाव का शमन करने के लिये ऐसे प्रौढ़ व्यक्तियों और विचारों के साथ संपर्क बनाये रखना पड़ता है जो उत्कृष्ट स्तर की गति विधियाँ अपनाने की प्रेरणा देता है। उस कुप्रभाव का शमन करने के लिये ऐसे प्रौढ़ व्यक्तियों और विचारों के साथ संपर्क बनाये रखना पड़ता है जो उत्कृष्ट स्तर की गतिविधियाँ अपनाने की प्रेरणा दे सके। सन्तुलन रखने के लिये इतना तो करना ही चाहिए। जब सब ओर से दुष्प्रवृत्तियों का प्रशिक्षण है तो कुछ समय इस विष को उतारने वाला उपचार चाहिए ही। स्वाध्याय एवं सत्संग ऐसे ही उपचार हैं। अवकाश मिले तो केवल उत्कृष्ट स्तर के व्यक्तियों की समीपता प्राप्त करें। पर आज तो भ्रान्त विचारों के पोषक, निठल्ले, अनाचारी ही धर्म का लबादा ओढ़े अधर्मी चारों ओर अड्डे जमाये बैठे हैं। ऐसे लोगों का तथाकथित सत्संग भी वस्तुतः सुसंग ही है। उससे बचना चाहिए। इसी प्रकार स्वाध्याय के नाम पर कोई कथा पुराण बार-बार दुहराने की विडम्बना चलती रहती है। इस प्रकार लकीर पीटने से काम न चलेगा। जीवन को उत्कृष्टता की दिशा में विकसित करने के लिये आज की स्थितियों के उपयुक्त मार्ग-दर्शन करने वाले व्यक्तित्व एवं विचारों को परख कर लाना चाहिए। यह कार्य युग-निर्माता, परमार्थ प्रेमी, लोक-सेवियों के जीवन चरित्र, क्रिया-कलाप तथा विचार पढ़ने से सम्पन्न हो सकता है। हमें उपरोक्त प्रयोजन पूरा करने वाला साहित्य संग्रह करना चाहिए और उसे स्वयं पढ़ने का, सुनाने का- अपने परिवार के ही वयस्क सदस्यों को पढ़ाने या सुनाने का प्रबंध करना चाहिए। स्वाध्याय आत्मा का भोजन है, उसकी उपयोगिता आवश्यकता स्नान और भोजन से भी बढ़ कर मानी जानी चाहिए।

यज्ञ अनेक है अग्निहोत्र को यज्ञ के नाम से सभी जानते हैं। पर हमें यह भी जानना चाहिए कि ज्ञान-यज्ञ भी अपने स्थान पर उतना ही महत्वपूर्ण है। शास्त्र में नित्य यज्ञ करने का विधान है। इस यज्ञ प्रक्रिया में ज्ञान-यज्ञ की उपयोगिता सर्वप्रथम सर्वोपरि है। अग्निहोत्र को गौण माना जा सकता है पर स्वाध्याय यज्ञ तो अनिवार्य है। अग्निहोत्र न करने पर देवता रूठ सकते हैं पर ज्ञान यज्ञ न करने पर स्वाध्याय से विमुख रहने पर तो अपना अन्तःकरण ही कषाय कल्मषों से -अज्ञान अविवेक से ढक जाता है। फलस्वरूप आन्तरिक और बाह्य जीवन में नारकीय ज्वालाओं की जलन में जलते रहने का दण्ड कष्ट निरन्तर भोगते रहना पड़ता है।

शास्त्र और ऋषियों के मर्म वचनों के पुष्पोद्यान में से अखंड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाएं मधु-मक्खियों की तरह निरन्तर मधु-संचय करती रहती हैं और उस श्रेय साधन मधु-माधुर्य को परिजनों के लिये प्रस्तुत करती रहती हैं। इस उपहार का तिरस्कार न किया जाना चाहिए। पत्रिकाओं का हर लेख श्रद्धा-तत्परता और तन्मयता के साथ पढ़ा जाना चाहिए। अपने घर परिवार का एक भी वयस्क सदस्य ऐसा न बचने देना चाहिए जो इस अमृत का लाभ लेने से वंचित रह जाए। जीवन विद्या की साँगोपाँग शिक्षा देने वाले अत्यन्त सस्ते ट्रैक्ट उन प्राचीन सन्त ब्राह्मणों के प्रवचनों की आवश्यकता पूरी करते हैं जो घर-घर जाकर धर्म और आध्यात्म का व्यवहारिक स्वरूप समझा कर उत्कृष्ट जीवन जीने की प्रखर प्रेरणा प्रदान करते थे।

बहुत समय से यह कहा जाता है कि हममें से प्रत्येक को एक घंटा समय और दस पैसा रोज ज्ञान-यज्ञ के लिए निकालना चाहिए। हर घर में एक पुस्तकालय रहना चाहिए, जो अपने को, अपने परिवार को, पड़ौसी संबंधियों और मित्र परिचितों को परम मंगल-मय प्रकाश प्रदान करता रहे। इतने महत्वपूर्ण प्रयोजन के लिये थोड़ा-सा त्याग तो करना ही चाहिये। यदि उतनी सी नगण्य बात भी अपने गले न उतर सकी तो समझना चाहिये कि हम आध्यात्मिकता को एक हास-परिहास की वस्तु मानते हैं, उसे व्यावहारिक जीवन में कोई उपयुक्त स्थान देने के लिये तैयार नहीं। आत्म-कल्याण एवं जीवन संकल्प जैसा महान उद्देश्य इतनी अनास्था के रहते प्राप्त कर सकना संभव नहीं हो सकता। ज्ञान तो मूल है। ज्ञान के बिना कर्म कहाँ? कर्म के बिना भक्ति कैसी? भक्ति बिना जीवनोद्देश्य में सफलता कैसे सम्भव है? जो ज्ञान की उपेक्षा करता है समझना चाहिये कि उसे आध्यात्मिकता पर ही अनास्था है। प्रपंच भरे जंजाल में चुँच प्रवेश करके दो-चार माला घुमाने वाले और हनुमान चालीसा पाठ करके आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति का सपना देखने वाले ज्ञान योग को निरर्थक समझ सकते हैं, ज्ञान-यज्ञ की उपेक्षा कर सकते हैं। पर जिन्हें तथ्य का पता है जो आध्यात्म के वास्तविक स्वरूप से परिचित हैं उन्हें विदित है कि जीवन का समग्र निर्माण ही आत्म कल्याण का एकमात्र मार्ग है। और इस मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले को सद्ज्ञान का आश्रय सर्वप्रथम लेना पड़ता है।

युग-निर्माण में अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह जानना ही चाहिए कि वर्तमान कालीन समस्त संकटों एवं विकृतियों का एकमात्र कारण मनुष्य के कुविचार और कुकर्म ही हैं। इस मलीनता को स्वच्छ करने के लिये सद्ज्ञान का साबुन अनिवार्य रूप में अपेक्षित है। सद्ज्ञान स्वाध्याय द्वारा इसी प्रयोजन की पूर्ति होती है। अस्तु हमें इस दिशा में तनिक भी उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिये। समाज का ढाँचा परिवर्तित करने के लिये व्यक्तियों को वर्तमान मान्यताओं, आकाँक्षाओं रूढ़ियों विचारणाओं एवं गतिविधियों को बदलना होगा। यह बदलाव ज्ञान के व्यापक अभियान बिना और किसी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। बीज बोने पर ही फसल उगती है। ज्ञान ही कर्म के रूप में परिणित होता है। नये समाज की रचना नये विचार ही कर सकते हैं। युग परिवर्तन का आधार है विचार परिवर्तन। आज इसी की सर्वोच्च आवश्यकता है ज्ञानदान ही सबसे बड़ा दान है। पिछड़ेपन को प्रगतिशीलता में -दारिद्रय को वैभव में बदलने का काम केवल सद्ज्ञान ही कर सकता है। स्कूली शिक्षा रोटी कमाने का मार्ग सरल कर सकती है। पर आन्तरिक परिवर्तन तो ज्ञान यज्ञ द्वारा प


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