आत्म-निर्माण के चार आधार

June 1963

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परिवर्तन एवं निर्माण का कार्य अपने आप से आरम्भ होना चाहिए। दृष्टिकोण के हेर-फेर के आधार पर ही जीवन की अन्य सब प्रक्रियाएँ बदलती हैं, इसलिए हमें अपनी आधार नीति में आवश्यक परिवर्तन करने के लिए तैयार होना चाहिए। प्रारम्भिक बात यह है कि हमारा समय, श्रम धन और मस्तिष्क जितना शारीरिक उद्देश्यों की पूर्ति में भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगता है उतना ही आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लगाने को तत्पर होना चाहिए। उतना न बन पड़े तो उससे आधा तो लगना ही लगना चाहिए।

शरीर की नहीं आत्मा की प्रमुखता

हम आत्मा हैं, शरीर नहीं। आत्मा का स्वार्थ ही हमारा सच्चा स्वार्थ है। शरीर की सुविधा और मन की प्रसन्नता का ध्यान तो रखना चाहिए पर इतना नहीं कि आत्मा के हाथ पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ लगे ही नहीं। मनुष्य-जीवन इसलिए प्राप्त हुआ है कि हम आत्मा को हितसाधना करते हुए अपना और दूसरे अनेकों का कल्याण करें। इसलिए जन्म नहीं मिला है कि इन्द्रियों की प्रसन्नता और मोह, लोभ, मद-मत्सर की पूर्ति में निरन्तर व्यस्त रहने के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही न पड़े। आजीविका का उपार्जन आवश्यक है पर इतना नहीं कि उसके अतिरिक्त और किसी काम के लिए अवकाश ही न मिले।

आमतौर से हम सब यही भूल करते हैं कि आजीविका उपार्जन, शरीर सेवा और घर-गृहस्थी के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं। उन कार्यों को करना तो चाहिए पर वे लक्ष्य की पूर्ति में सहायक होंगे इसी दृष्टि से करना चाहिए। उनके लिए उतना ही समय एवं मनोयोग देना चाहिए जितना कि आवश्यक है। स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ परमार्थ की बात भी सोचनी चाहिए और उसके लिए भी श्रम, समय एवं मनोयोग का एक अंश नियमित रूप से लगाते ही रहना चाहिए।

जिस प्रकार अपने शरीर परिवार, सम्पत्ति एवं मान-बड़ाई का ध्यान रखकर अपने कार्य किये जाते हैं, अनेक प्रयत्न होते हैं और अनेक योजनाएँ बनाई जाती हैं, उसी प्रकार आत्मकल्याण के लिए उपयुक्त तथ्यों पर भी ध्यान दिया जाना और उसके लिए कुछ न कुछ किया जाना आवश्यक है। स्वार्थ का ही नहीं परमार्थ का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

स्वार्थ ही नहीं परमार्थ भी सोचें

जिस प्रकार साँसारिक कार्यों की चिन्ता रहती है और उनको सफलता-असफलता में लाभ-हानि का हर्ष-शोक होता है उसी प्रकार आध्यात्मिक उद्देश्यों और निर्धारित कार्यक्रमों को पूरा करने की जब चिन्ता रहने लगे तब समझना चाहिए कि अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। यही आधारभूत परिवर्तन है। इसके सम्पन्न हो जाने पर उत्कृष्ट जीवन पालन के लिए जितने भी संकल्प किये जाते हैं वे सब पूरे होने लगते हैं। पर यदि मानसिक स्थिति ऐसी न हो, परमार्थ को एक मनोरंजन, प्रयोग, कौतूहल समझ कर किया जा रहा तो उससे कोई ठोस परिणाम नहीं निकलता। आवेश में उत्पन्न हुआ जोश-खरोश कुछ ही दिन में पानी के बबूले की तरह बैठ जाता है। समय न मिलने, आर्थिक तंगी या अन्य कोई अड़चन आने का बहाना करके लोग सत्कर्मों के लिए आरम्भ की हुई प्रक्रियाओं का परित्याग कर देते हैं। यदि यही अपनी स्थिति हो तो समझना चाहिए कि अभी परिवर्तन कुछ नहीं हुआ।

दृष्टिकोण में परमार्थ के महत्व को समुचित स्थान मिल जाना और उसके लिए समय एवं मन के लगने में प्रसन्नता अनुभव होना, निष्ठापूर्वक इस दिशा में प्रयत्नशील रहने की दृढ़ता का जड़ पकड़ लेना, आत्म परिवर्तन का प्रथम चिन्ह है।

रूढ़ि को नहीं विवेक को अपनायें

दूसरा चिन्ह यह है कि जीवन क्रम अब तक जिस ढर्रे पर चलता चला आया है, उसका अन्ध अनुयायी न रह कर विवेक के आधार पर अपनी गतिविधियों का निर्धारण करने का साहस उत्पन्न हो जाय। साहस के बिना कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। जीवन परिवर्तन जैसी प्रक्रिया को कायर और डरपोक आदमी नहीं कर सकते। ढर्रे में हेरफेर करने की एक तो अपनी हिम्मत नहीं पड़ती फिर कुछ साहस किया भी जाय तो घर के अन्य सदस्य एवं साथी लोग उपहास करते हैं और मजाक बनाते हैं। कमजोर आदमी झेंप जाते हैं और अपने को अपराधी या मूर्ख बनने जैसी झिझक में फँसा हुआ देखकर उठाये हुए कदम को वापिस ले लेते हैं।

सौ मूर्खों के बीच रहते हुए किसी बुद्धिमान व्यक्ति को मूर्खतापूर्ण गतिविधियों का अपना लेना शोभा नहीं देता। स्कूल में सैकड़ों बच्चे पढ़ते हैं, वे तरह-तरह की नादानी करते रहते हैं। यदि अध्यापक उन्हीं की बातों में आ जाय और अपनी रीति-नीति छोड़कर उन्हीं की रुचि को देखकर चलने लगे तो उस अध्यापक का क्या गौरव रहेगा? अस्पताल में ढेरों मरीज रहते हैं, उनकी सलाह और इच्छा को महत्व देकर यदि डॉक्टर अपना कार्यक्रम निर्धारित करे तो इसमें उसकी क्या समझदारी रहेगी? चिरकाल से जो बुरा ढर्रा संसार में चल रहा है लोग तो उसी के अभ्यस्त हैं, अभ्यस्त नशेबाजों की तरह वे भी अपनी मानसिक दासता को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। स्वार्थ और दुष्प्रवृत्तियों में, मूर्खताओं और विडम्बनाओं में डूबी हुई दुनिया अपनी ओछी बातों को ही बढ़ा-चढ़ाकर महत्व देती है। छोड़ना तो दूर उसका जोरदार समर्थन भी करती है और जो लोग उन दोष दुर्गुणों को हटाना चाहते हैं उनका विरोध करती है, व्यंग कसती है, मूर्ख बताती है और कई बार तो इसी कारण क्रुद्ध होकर पागलों की तरह ईंट मारने को भी उद्यत हो जाती है। ऐसे ही अज्ञानी लोगों से आज का जन समाज भरा पड़ा है। उनकी रुचि का उल्लंघन करने में कुछ अड़चने आती हैं और उनका मुकाबला करना ही शूरवीरों का काम है। आदर्श की रक्षा के लिए विरोध और कष्ट सहने का साहस जब उत्पन्न हो गया।

सरलता, सादगी और संतोष

परिवर्तन का तीसरा चिन्ह है सरलता, सादगी और सन्तोष। उच्च दृष्टिकोण के व्यक्ति इस तरह की वेष-भूषा और रहन-सहन की पद्धति पसंद नहीं करते जो आडम्बर, अपव्यय और छिछोरपन से भरी हुई हो। खर्चीले और बनावटी जीवन को सादगी में बदल देने से बहुत-सा समय और धन सहज ही बच जाता है। आर्थिक तंगी अनुभव करने और निरन्तर उसी की पूर्ति में व्यस्त रहने का एक ही कारण है—खर्चों का बहुत बड़ा होना। चौका-चूल्हे और पहनने-ओढ़ने का साधारण खर्च जितना होना चाहिए उससे कहीं अधिक खर्चा लोग आडम्बर और विलासिता की बातों में करते रहते हैं। उसकी पूर्ति में फिर निरन्तर व्यस्त और चिन्तित रहना पड़ता है। ऐसे लोग परमार्थ, आत्म-निर्माण, पारिवारिक उत्तरदायित्व, लोक सेवा आदि के लिए समय कहाँ से निकाल पायेंगे? जिसके पास पेट के धन्धों और आडम्बरों से फुर्सत नहीं उसे जीवन लक्ष्य की ओर ध्यान देने और उसके लिए कुछ करते रहने की इच्छा ही क्यों होने लगी?

सादगी, संतोष और सरलता का जीवन बिताने से, साँसारिक उन्नति की बड़ी-बड़ी महत्वकाँक्षाएँ न रखने से, शारीरिक और मानसिक अवकाश मिलने लगता है। चिन्ताएँ बहुत हलकी हो जाती हैं, और समस्याएँ सुलझी हुई दीखती हैं। ऐसे ही व्यक्ति लोकहित और आत्म-कल्याण की दिशा में कुछ कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। जीवन को लौकिक आडम्बरों से भरना हो तो स्वभावतः आत्म-कल्याण एवं परमार्थ के कार्यों के लिए अवकाश न मिलेगा और यदि जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के लिए कुछ ठोस काम करना हो तो साँसारिक दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा । जिन्होंने जीवन का सदुपयोग करना निश्चय किया हो उन्हें सादगी की बात भी अपना लेनी चाहिए। श्रेयार्थी को यह तीसरा परिवर्तन भी करना ही होता है। बहुत कमाने की अपेक्षा वह बहुत सत्कर्म करने की बात ही सोचता है।

दया, प्रेम और करुणा

परिवर्तन का चौथा चिन्ह है प्रेम, करुणा, दया, क्षमा और उदारता की अनुभूतियों का अन्तःकरण में बढ़ते चलना। अपने ही सुख की बात सोचना, दूसरों के प्रति निष्ठुरता का व्यवहार करना, दूसरे के दुख-दर्द से द्रवित न होना पत्थर जैसा हृदय लेकर केवल भोग और संग्रह की ही बात सोचते रहना आसुरी प्रकृति का परिचायक है। मानवता का प्रतीक करुणा ही कही गई है। दूसरों का दर्द जिन्हें अपना दर्द लगता है, और दूसरों को ऊँचा उठाने में जिन्हें आनन्द आता है, उन्हें ही मनुष्य कहना चाहिए। सेवा उदारता और दया जिनके आचरण में छलकते रहते है उन्हें ही सज्जन कहा जा सकता है। दुष्टता और निष्ठुरता केवल विविध-विधि भोग भोगते रहने और अधिकाधिक संग्रह करते चलने की प्रेरणा देती है। इसे बदल कर व्यक्ति यदि त्याग, एवं संयम को अपनावे और परहित में अपनी सामर्थ्य का उपयोग करने लगे तो समझना चाहिए कि निर्माण और परिवर्तन की मंजिल पर प्रगति हो रही है। अन्यथा सिद्धान्तवाद की बातें बढ़-चढ़ कर बनाने वाले व्यवहार में पूरे कंजूस और निष्ठुर रहने वाले धूर्त तो घर-घर में भरे पड़े हैं। इस धूर्तता का प्रदर्शन तो अपने को सज्जन सिद्ध करने के लिए कोई भी करता रह सकता है।

दान को मानव-जीवन का प्रधान धर्म माना गया है। दया की भावनात्मक प्रवृत्ति का प्रत्यक्ष स्वरूप दान ही है। यों दान की सत्प्रवृत्ति का आज दुरुपयोग ही अधिक होता है। भोले लोगों को धूर्तों द्वारा दान, धर्म के नाम पर ही ठगा जाता है और उससे बुराइयाँ भी बढ़ती हैं, यह दोष दान का नहीं अविवेक का है। विवेकपूर्वक गिरे हुओं को उठाने और पीड़ितों की सहायता करने के लिए कुछ दिया जाता रहे तो इससे आत्मा को सन्तोष होता है उसका उत्साह और बल बढ़ता है। सत्प्रवृत्तियां भी संसार में दान धर्म के आधार पर ही जीवित रहती और पनपती हैं। परिवर्तित दृष्टिकोण का व्यक्ति कितना ही गरीब क्यों न हो संसार को उत्कर्ष की ओर अग्रसर करने के लिए उसके दैनिक जीवन में दान के लिए कुछ न कुछ स्थान रहता ही है। शरीर से, बुद्धि से, धन से, भावना से वह दूसरों के हित साधन में कुछ न कुछ त्याग करता ही रहता है।

तुच्छता त्याग महानता अपनायें

त्याग में एक बहुत बड़ा त्याग है आलस्य, प्रमाद और दीर्घसूत्रता को छोड़ देना। समय की बर्बादी, मंदगति से काम करना, आलस्य में पड़े रहना, अपनी आत्मा के साथ शत्रुता बरतने के समान है। जो दया और प्रेम में हितसाधना की भावना रखेगा वह अपने हित और कल्याण की बात भी सोचेगा। जो इस प्रकार सोचने लगा उसे जीवन की बहुमूल्य सम्पत्ति का एक क्षण बर्बाद होता हुआ भी सहन न होगा। उसे आलस्य को छोड़ने और श्रमशीलता अपनाने के लिए तत्पर होना ही होगा।

उदार, त्यागी, दयालु, सेवाभावी और परिश्रमी व्यक्ति ही इस संसार में महापुरुष बन सकेंगे। हम निकृष्ट-जीवन ही जीते रहें या उत्कर्ष की ओर अग्रसर हों? यह फैसला करने के साथ-साथ अपने जीवन परिवर्तन की बात को भी सम्बद्ध कर लेना चाहिए। यदि श्रेष्ठ जीवन की कल्पना मात्र ही करनी हो, मनमोदक ही खाने हों और वस्तुतः कुछ न करना हो तो जैसा क्रम चलता आ रहा है उसे ही चलने दिया जा सकता है। पर यदि वस्तुतः युग परिवर्तन करना हो तो सर्वप्रथम अपने आपको बदलने का शुभारंभ करना ही चाहिए। इस परिवर्तन के चार चिन्ह हैं (1) शारीरिक स्वार्थों के स्थान पर आत्मिक स्वार्थ को महत्व देना (2) ढर्रे को छोड़कर विवेकपूर्ण गति-विधियाँ अपनाने का साहस संग्रह करना (3) सन्तोष और सादगी को अपनाना (4)

दया, उदारता और सेवा कार्यों में प्रसन्नता अनुभव

करना। यह तथ्य यदि व्यवहारिक जीवन में स्थान प्राप्त करने लगें तो समझना चाहिए कि हम बदले और अब संसार को बदल सकने की क्षमता हमें प्राप्त हो चली। इस क्षमता के सम्पादन में हम सब संलग्न हों तो ही अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने की समस्या सुलझेगी।


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