राजनीति और सच्चरित्रता

June 1963

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आज की परिस्थितियों में शासन सत्ता की शक्ति बहुत है। इसलिए उत्तर-दायित्व भी उसी पर अधिक है। राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान और पतन में भी शासन-तंत्र अपनी नीतियों के कारण बहुत कुछ सहायक अथवा बाधक हो सकता है। नीचे कुछ ऐसे सुझाव प्रस्तुत किये जाते हैं जिनके आधार पर राजनीति के क्षेत्र से चरित्र निर्माण की दिशा में बहुत काम हो सकता है। हम लोग आज की प्रत्यक्ष राजनीति में भाग नहीं लेते पर एक मतदाता और राष्ट्र के उत्तरदायी नागरिक होने के नाते इतना कर्तव्य तो है ही कि शासन तंत्र में आवश्यक उत्कृष्टता लाने के लिए प्रयत्न करें।

जो लोग आज चुने हुए हैं उन तक यह विचार पहुँचाये जायँ और जो आगे चुने जायँ उन्हें इन विचारों की उपयोगिता समझाई जाय। चुने हुए लोगों का बहुमत तो इस दिशा में बहुत कुछ कर सकता है। अल्पमत के लोग भी बहुमत को प्रभावित तो कर ही सकते हैं। जन आन्दोलन के रूप में यह विचारधारा यदि सरकार तक पहुँचाई जाय तो उसे भी इस ओर ध्यान देने और आवश्यक सुधार करने का अवसर मिलेगा। हमें रचनात्मक प्रयत्न करने चाहिए और शासन में चरित्र-निर्माण के उपयुक्त वातावरण रहे इसके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।

नीचे दस विचार प्रस्तुत हैं। इनके अतिरिक्त तथा विकल्प में भी अनेक विचार हो सकते हैं जिनके आधार पर राष्ट्र का चारित्रिक विकास हो सके। उनको भी सामने लाना चाहिए।

91- मत-दान और मतदाता

जहाँ प्रजातंत्र पद्धति है वहाँ शासन के भले या बुरे होने का उत्तरदायित्व वहाँ के उन सभी नागरिकों पर रहता है जो मतदान करते हैं। ‘वोट’ राष्ट्र की एक परम पवित्र थाती है। उसकी महत्ता हम में से हर को समझनी चाहिए। किसी पक्षपात, दबाव या लोभ में आकर इसे चाहे किसी को दे डालने का उथलापन नहीं अपनाना चाहिए। जिस पार्टी या उम्मीदवार को वोट देना हो उसकी विचारधारा भावना एवं उत्कृष्टता को भली भाँति परखना चाहिए। राष्ट्र के भाग्य निर्माण का उत्तर-दायित्व हम किसे सौंपे? इस कसौटी पर जो भी खरा उतरे उसे ही वोट दिया जाय। प्रजातंत्र का लाभ तभी है जब हर नागरिक उसका महत्व और उत्तर-दायित्व समझे और अनुभव करे। शासन में आवश्यक सुधार अभीष्ट हो तो इसके लिए मतदाताओं को समझाया और सुधारा जाना आवश्यक है।

92-सीमित प्रजातंत्र

प्रजातंत्र की सफलता तभी है जब मतदाता और निर्वाचित व्यक्ति अपना राष्ट्रीय उत्तर-दायित्व ठीक तरह समझे। इस उत्तर-दायित्व जो जितना उठा सके, उसे उतना ही शासन में भाग लेने का अधिकार हो। मतदाता की कोई कसौटी हो और चुनाव में खड़े होने वाले की भी इस क्षमता में सम्पन्न होने की आवश्यक शर्त रहें। इसे सीमित प्रजातंत्र भी कह सकते हैं। भारत जैसे अविकसित देश के लिए सीमित प्रजातन्त्र प्रणाली उपयुक्त हो सकती है। शासन तन्त्र का संचालन करने वाले प्रतिनिधि सभा में केवल उच्च आदर्शवान् व्यक्ति ही पहुँच सकें ऐसी कोई प्रतिबंधपूर्ण व्यवस्था रहे तो ही शासन की उत्कृष्टता बढ़ेगी। हमारे विधान में इस प्रकार की व्यवस्था रहे।

93- शासकों पर चारित्रिक नियंत्रण

जिनके हाथ में शासन सत्ता है उन मन्त्रियों और अफसरों के व्यक्तिगत चरित्र पर कड़ी दृष्टि रखने वाली एक स्वतन्त्र समिति राष्ट्रपति के अधीन हो।

इस समिति को और राष्ट्रपति को इतना अधिकार हो कि शासकों को बहुमत या पक्षपात के आधार पर मनमानी करने की गुंजाइश न रहे। शासन प्रबन्ध के बारे में सर्वसत्ता सम्पन्न हो, पर उसमें भाग लेने वाले व्यक्तियों के चारित्रिक नियंत्रण का प्रबन्ध उच्च स्तरीय रहे। प्राचीन काल में राजाओं का नियंत्रण राजगुरु करते थे। वह राजगुरु की व्यवस्था व्यवहारिक रूप में अभी भी रहे। जो लोग चुनाव नहीं लड़ते पर उत्कृष्ट कोटि के अनुभवी एवं विचारक हैं, उनके परामर्श का लाभ भी शासन को मिलता रहे ऐसा कोई परामर्श तन्त्र भी राष्ट्रपति गठित करें और उसके अभिमत पर सरकार को ध्यान देने के लिये कहें ऐसी व्यवस्था भी आवश्यक है।

94-शिक्षा पद्धति का स्तर-

शिक्षालय व्यक्तित्व ढालने की फैक्ट्रियां होती हैं। वहाँ जैसा वातावरण रहता है, जिस व्यक्तित्व के अध्यापक रहते हैं, जैसा पाठ्यक्रम रहता है, जैसी व्यवस्था बरती जाती है उसका भारी प्रभाव छात्रों की मनोभूमि पर पड़ता है और वे भावी जीवन में बहुत कुछ उसी ढाँचे में ढल जाते हैं। आज शिक्षा का पूरा नियंत्रण सरकार के हाथ में है इसलिए छात्रों की मनोभूमि का निर्माण करने की जिम्मेदारी भी बहुत कुछ उसी के ऊपर है। शिक्षण पद्धति में ऐसा सुधार करने के लिए सरकार को कहा जाये जिसमें चरित्रवान् कर्मठ और सभ्य, सेवा भावी नागरिक बनकर शिक्षार्थी निकल सकें। सैनिक शिक्षा को शिक्षण का अनिवार्य अंग बनाया जाय और नैतिक एवं साँस्कृतिक भावनाओं से विद्यालयों का वातावरण पूर्ण रहे। इसके लिए सरकार पर आवश्यक दबाव डाला जाय।

95-कुरीतियों का उन्मूलन

सामाजिक कुरीतियों की हानियाँ नैतिक अपराधों से बढ़कर हैं। भले ही उन्हें मानसिक दुर्बलतावश अपनाये रखा गया हो पर समाज का अहित तो बहुत भारी ही होता है। इसलिये इनके विरुद्ध भी कानून बनने चाहिये। स्वर्ण नियंत्रण का कानून कड़ाई के साथ अमल में आते ही जेवरों का सदियों पुराना मोह सप्ताहों के भीतर समाप्त हो गया। इसी प्रकार सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध नए कानून भी बनाये जायं और उनके पालन कराने में स्वर्ण नियन्त्रण जैसी कड़ाई बरती जाय। यों दहेज,मृत्युभोज, बाल-विवाह, वेश्यावृत्ति आदि के विरुद्ध कानून मौजूद हैं पर वे इतने ढीले- पीले हैं कि उससे न्याय और कानून का उपहास ही बनता है। यदि सचमुच ही कोई सुधार करना हो तो कानूनों में तेजी और कड़ाई रहनी आवश्यक है। सरकार पर ऐसे ही सुधारात्मक कड़े कानून बनाने के लिए जोर डाला जाय।

96- सस्ता, शीघ्र और सरल न्याय

आज का न्याय बहुत पेचीदा, बहुत लम्बा, बहुत व्ययसाध्य और ऐसी गुत्थियों से भरा है कि बेचारा निर्धन और भोला-भाला व्यक्ति न्याय से वंचित ही रह जाता है। धनी के लिए ऐसी गुंजाइश मिल जाती है कि वे पैसे के बल पर सीधे को उलटा कर सकें। न्यायतंत्र में से ऐसे सारे छिद्र बन्द किये जाने चाहिए और ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए कि सरल रीति से ही व्यक्ति को शीघ्र और सस्ता न्याय प्राप्त हो सके। इस विभाग के कर्मचारियों के हाथ में जनता को परेशान करने की क्षमता न रहे तो रिश्वत सहज ही बन्द हो सकती है।

97- अपराधों के प्रति कड़ाई

अपराधियों के प्रति कड़ाई की कठोर नीति रखने की प्रेरणा सरकार को करनी चाहिये। स्वल्प दण्ड और जेलों में असाधारण सुविधाएँ मिलने से बन्दी सुधरते नहीं वरन् निर्भय होकर आते हैं। सुधारने वाला वातावरण जेलों में कहाँ है? यदि वहाँ असुविधा भी न रहेंगी तो अपराधी लोग उसकी परवाह न करते हुए दुस्साहसपूर्ण अपराध करते ही रहेंगे। रूस आदि जिन देशों में अपराधी को कड़ी सजा मिलती है वहाँ के लोग अपराध करते हुए डरते हैं। यह डर घट जाय या मिट जाय तो अपराध बढ़ेंगे ही। इसलिए स्वल्प दण्ड देने वाले कानून और जेल में अधिक सुविधाएँ मिलना चरित्र निर्माण की दृष्टि से हानिकारक है, इस तथ्य को सरकार से मनवाने का प्रयत्न किया जाय।

98-गुण्डा तत्वों का उन्मूलन

कानूनी पकड़ से जो लोग बच जाते हैं उन असामाजिक गुण्डा तत्वों की अपराध वृत्ति रोकने के लिए एक विशेष तन्त्र गठित रहे, जिसमें उच्च आदर्शवान् परखे हुए लोग ही गुप्तचरों के रूप में वस्तु स्थिति का पता लगाते रहें। इनकी जाँच के आधार पर गुण्डा-तत्वों को नजरबन्द किया जा सके ऐसी व्यवस्था रहे। आज अपराधी लोग कानून की पकड़ से आतंक, धन और चतुरता के आधार पर बच निकलते हैं। यह सुविधा बन्द की जाय। न्यायालयों से ही नहीं, वस्तुस्थिति जाँच करने वाली उच्चस्तरीय जाँच समिति की सूचना के आधार पर भी दण्ड व्यवस्था की जा सके, ऐसी व्यवस्था की जाय।

99-अधिकारियों की प्रामाणिकता

अपराधों को रोकने वाले शासनाधिकारियों को उनकी ईमानदारी और विश्वस्तता की लम्बी अवधि तक परख होते रहने के बाद नियुक्त किया जाय। उन्हें विभागों में से लिया जाय और यह देखा जाय कि अपराधों को रोकने में इनकी भावना एवं प्रतिभा कैसी रही है। अनुभवहीन लड़कों का एकदम अपराध निरोधक पदों पर नियुक्त कर दिया जाना और उनके चरित्र की गुप्त जाँच न होते रहना शासन में भ्रष्टाचार उत्पन्न करता है। जिन पदों पर भ्रष्टाचार की सम्भावना है उन पर नियुक्तियाँ शिक्षा एवं योग्यता के अतिरिक्त अनुभव एवं चरित्र को प्रधानता देते हुए की जाया करे। अपराधी अधिकारियों को जन दण्ड की अपेक्षा दस-बीस गुना दण्ड मिलने की व्यवस्था कानून में रहे। अधिकारियों का भ्रष्टाचार मिटे बिना जनता की अनैतिकता का मिट सकना कठिन है।

100- आर्थिक विषमता घटे

आर्थिक विषमता और फिजूल खर्ची पर नियंत्रण रहे। आर्थिक कारणों से अधिकतर अपराध बढ़ते हैं। इसलिये उपलब्धि के साधन हर व्यक्ति को इतने मिले जिससे उसकी ठीक गुजर हो सके। यह तभी संभव है जब अधिक उपभोग एवं संग्रह की सीमा पर भी नियंत्रण हो। मिलों में कपड़ों की डिजाइनें कम बनें तो कपड़े का खर्च बहुत घट जाय। इसी प्रकार उपयोगी वस्तुओं की संख्या एवं भिन्नता सीमित कर दी जाय। राष्ट्रीय जीवन का एक स्तर कायम हो जिसमें थोड़ा अन्तर तो रह सकता है पर जमीन आसमान जैसा अन्तर न हो। सामूहिकता और समता के आधार पर समाज का पुनर्गठन किया जाय तो उसमें अपराधों की गुंजाइश सहज ही बहुत घट जायेगी।


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