पिछले दो हजार वर्ष के अज्ञान से भरे अन्धकारयुग में हमारी कितनी ही उपयोगी प्रथाएँ-रूढ़िवादिता से ग्रस्त होकर अनुपयोगी बन गई हैं। इन विकृतियों का सुधार कर हमें अपनी प्राचीन वैदिक सनातन स्थिति तक पहुँचने का प्रयत्न करना होगा, तभी भारतीय समाज का सुविकसित समाज जैसा रूप बन सकेगा। इस सम्बन्ध में हमें निम्न प्रयत्न करने चाहिए।
51—वर्ण व्यवस्था का शुद्ध स्वरूप
ब्रह्माजी ने अपने चारों पुत्रों को चार कार्यक्रम सौंपकर उन्हें चार वर्णों में विभक्त किया है। ज्ञान,बल,धन और श्रम चारों ही शक्तियाँ मानव समाज के लिए आवश्यक थीं। इनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए वंशगत प्रयत्न चलता रहे और उसमें कुशलता तथा परिष्कृति बढ़ती रहे। इस दृष्टि से इन चार कामों को चार पुत्रों में बाँटा गया था। चारों सगे भाई-भाई थे, इसलिये उनमें ऊंच-नीच का कोई प्रश्न न था। किसी का सम्मान महत्व और स्तर न न्यून था न अधिक। अधिक त्याग-तप करने के कारण, अपनी आन्तरिक महानता प्रदर्शित करने के कारण ब्राह्मण की श्रेष्ठता तो रही पर अन्य किसी वर्ण को हेय या निम्नस्तर का नहीं माना गया था।
आज स्थिति कुछ भिन्न ही है। चार वर्ण अगणित जातियों उपजातियों में बाँट गये और इससे समाज में भारी अव्यवस्था एवं फूट फैली। परस्पर एक दूसरे को ऊंचा-नीचा समझा जाने लगा। यहाँ तक कि एक ही वर्ण के लोग अपनी उपजातियों में नीच-ऊँच की कल्पना करने लगे। यह मानवीय एकता का प्रत्यक्ष अपमान है। व्यवस्थाओं या विशेषताओं के आधार पर वर्ण-जाति रहे, पर ऊंच-नीच की मान्यता को स्थान न मिले। सामाजिक विकास में भारी बाधा पहुँचाने वाले इस अज्ञान को जितनी जल्दी हटा दिया जाय उतना ही अच्छा है।
52— उपजातियों का भेदभाव हटे
चार वर्ण रहें पर उनके भीतर की उपजातियों की भिन्नता ऐसी न रहे जिसके कारण परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार भी ना हो सके। प्रयत्न ऐसा करना चाहिए कि उपजातियों का महत्व गोत्र जैसा स्वल्प रह जाय और एक वर्ण विवाह-शादी पूरे उस वर्ण में होने लगें। ब्राह्मण जाति के अंतर्गत सनाढ्य गौड़, गौतम, कान्यकुब्ज, मालवीय, मारवाड़ी, सारस्वत, मैथिल, सरयूपारीण, श्रीमाली,पर्वतीय आदि अनेक उपजातियाँ हैं। यदि इनमें परस्पर विवाह शादी होने लगें तो इससे उपयुक्त वर-कन्या ढूँढ़ने में बहुत सुविधा रहेगी। अनेकों रूढ़ियां मिटेंगी और दहेज जैसी हत्यारी प्रथाओं का देखते-देखते अन्त हो जायगा। इस दिशा में साहसपूर्ण कदम उठाये जाने चाहिए।
एक-एक पूरे वर्ण की जातीय सभाएँ बनें, और उनका प्रयत्न इस प्रकार का एकीकरण ही हो। जातिगत विशेषताओं को बढ़ाने विलगाव की भावनाओं को हटाने तथा उन वर्गों में फैली कुरीतियों का समाधान करने के लिए ये जातीय सभाएँ कुछ ठोस काम करने को खड़ी हो जायँ तो सामाजिक एकता की दिशा में भारी मदद मिल सकती है। अच्छे लड़के और अच्छी लड़कियों के सम्बन्ध में जानकारियाँ उत्पन्न करना भी इन सभाओं का काम हो।
53—नर-नारी का भेद भाव
जातियों के बीच बरती जाने वाली ऊंच-नीच की तरह पुरुष और स्त्री के बीच रहने वाली ऊंच-नीच की भावना निन्दनीय है। ईश्वर के दाहिने बाँये अंग की तरह नर-नारी की रचना हुई है। दोनों का स्तर और अधिकार एक है। इसलिए सामाजिक न्याय और नागरिक अधिकार भी दोनों के एक होने चाहिए। प्राचीनकाल में था भी ऐसा ही। तब नारी भी नर के समान ही प्रबुद्ध और विकसित होती थी। नई पीढ़ियों की श्रेष्ठता कायम रखने तथा सामाजिक स्तर की उत्कृष्टता बनाये रखने में उसका पुरुष के समान ही योगदान था।
आज नारी की जो स्थिति है वह अमानवीय और अन्यायपूर्ण है। उसके ऊपर पशुओं जैसे प्रतिबन्धों का रहना और सामान्य नागरिक अधिकारों से वञ्चित किया जाना भारतीय धर्म की उदारता, महानता और श्रेष्ठता को कलंकित करने के समान है। पुरुषों के लिए भिन्न प्रकार की और स्त्रियों के लिए भिन्न प्रकार की न्याय व्यवस्था रहना अनुचित है। दाम्पत्य-जीवन में सदाचार का दोनों पर समान प्रतिबन्ध होना चाहिये। शिक्षा और स्वावलम्बन के लिए दोनों को समान अवसर मिलने चाहिए।
पुत्र और पुत्रियों के बीच बरते जाने वाले भेदभाव को समाप्त करना चाहिए। दोनों को समान स्नेह, सुविधा और सम्मान मिले। पिछले दिनों जो अनीति नारी के साथ बरती गई है उसका प्रायश्चित यही हो सकता है कि नारी की शिक्षा और उसे स्वावलम्बी बन सकने जितनी योग्यता प्राप्त करने का अधिकाधिक अवसर प्रदान किया जाय। सरकार ने पिछड़े वर्गों को संविधान में कुछ विशेष सुविधाएँ दी हैं ताकि वे अपने पिछड़ेपन से जल्दी छुटकारा प्राप्त कर सकें। सामाजिक न्याय के अनुसार नारी को शिक्षा और स्वावलम्बन की दिशा में ऐसी ही विशेष सुविधा मिलनी चाहिए ताकि उनका पिछड़ापन अपेक्षाकृत जल्दी ही प्रगति में बदल सके। पर्दा प्रथा उस समय चली जब यवन लोग बहू-बेटियों पर कुदृष्टि डालते और उनका अपहरण करते थे। अब वैसी परिस्थितियां नहीं रही तो पर्दा भी अनावश्यक हो गया। यदि उसे जरूरी ही समझा जाय तो स्त्रियों की तरह पुरुष भी घूँघट किया करें। क्योंकि चारित्रिक पतन के सम्बन्ध में नारी की अपेक्षा नर -ही अधिक दोषी पाये जाते हैं।
54—अश्लीलता का प्रतिकार
अश्लील साहित्य, अर्ध नग्न युवतियों के विकारोत्तेजक चित्र, गन्दे उपन्यास, कामुकता भरी फिल्में, गन्दे गीत वेश्यावृत्ति, अमर्यादित काम चेष्टाएँ, नारी के बीच रहने वाली शील संकोच मर्यादा का व्यक्तिक्रम, दुराचारों की भोंड़े ढंग से चर्चा, आदि अनेक बुराइयाँ अश्लीलता के अंतर्गत आती हैं। इनसे दाम्पत्य-जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है और शरीर एवं मस्तिष्क खोखला होता है। शारीरिक व्यभिचार की तरह यह मानसिक व्यभिचार भी मानसिक एवं चारित्रिक संतुलन को बिगाड़ने में दावाग्नि का काम करता है। उसका प्रतिकार किया जाना चाहिए। ऐसे-चित्र-कलेण्डर पुस्तकें मूर्तियाँ तथा अन्य उपकरण हमारे घरों में न रहें जो अपरिपक्व मस्तिष्कों में विकार पैदा करें। शील और शालीनता की रक्षा के लिए उसकी विरोधी बातों को हटाया जाना ही उचित है।
55—विवाहों में अपव्यय
संसार के सभी देशों और धर्मों के लोग विवाह शादी करते हैं पर इतनी फिजूलखर्ची कहीं नहीं होती जितनी हम लोग करते हैं। इससे आर्थिक सन्तुलन नष्ट होता है, अधिक धन की आवश्यकता उचित रीति से पूरी नहीं हो सकती तो अनुचित मार्ग अपनाने पड़ते हैं। इन खर्चों के लिए धन जोड़ने के प्रयत्न में परिवार की आवश्यक प्रगति रुकती है अहंकार बढ़ता है तथा कन्याएँ माता-पिता के लिए भाररूप बन जाती हैं। विवाहों का अनावश्यक आडम्बरों से भरा हुआ और खर्चीला शौक बनाये रहना सब दृष्टियों से हानिकारक और असुविधाजनक है।
दहेज की प्रथा तो अनुचित ही नहीं अनैतिक भी है। कन्या विक्रय वर विक्रय का यह भोंड़ा प्रदर्शन है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रथा के कारण कितनी कन्याओं को अपना जीवन नारकीय बनाना पड़ता है और कितने ही अभिभावक इसी चिन्ता में घुल-घुलकर मरते हैं। इस हत्यारी प्रथा का जितनी जल्दी काला मुंह हो सके उतना ही अच्छा है।
विचारशील लोगों का कर्त्तव्य है कि वे इस दिशा में साहसपूर्ण जन नेतृत्व करें। उन रूढ़ियों को तिलाँजलि देकर अत्यन्त सादगी के विवाह करें। परम्पराओं से डर कर—उपहास के भय से ही अनेक लोग साहस नहीं कर पाते, यद्यपि वे मन से इस फिजूलखर्ची के विरुद्ध होते हैं। ऐसे लोगों का मार्गदर्शन उनके सामने अपना उदाहरण प्रस्तुत करके ही किया जा सकता है। युग निर्माण परिवार के लोग अपने ही विचारों के वर कन्या तथा परिवार ढूंढ़े और सादगी के साथ आदर्श विवाहों का उदाहरण प्रस्तुत करें, इससे हिन्दू समाज की एक भारी समस्या हल हो सकेगी।
56—बाल विवाह अनमेल विवाह
बाल विवाहों की भर्त्सना की जाय और उनकी हानियाँ जनता को समझाई जायँ। स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, आगामी पीढ़ी एवं जीवन विकास के प्रत्येक क्षेत्र पर इनका असर पड़ता है। लड़की-लड़के जब तक गृहस्थ का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर सँभालने लायक न हों तब तक उनके विवाह नहीं होने चाहिए। इस सम्बन्ध में जल्दी करना अपने बालकों का भारी अहित करना ही है। अशिक्षित और निम्न स्तर के लोगों में अभी भी बाल विवाह का बहुत प्रचलन है। उन्हें समझाने बुझाने या कानूनी भय बताकर इस से विरत करना चाहिए। अनमेल विवाहों का भी रोका जाना और उनके विरुद्ध वातावरण बनाना आवश्यक है।
57—भिक्षा व्यवसाय की भर्त्सना
समर्थ व्यक्ति के लिए भिक्षा माँगना उसके आत्मगौरव और स्वाभिमान के सर्वथा विरुद्ध है। आत्मगौरव खोकर मनुष्य पतन की ओर ही चलता है। खेद है कि भारतवर्ष में यह वृत्ति बुरी तरह बढ़ी है और उसके कारण असंख्य लोगों का मानसिक स्तर अधोगामी बना है।
जो लोग सर्वथा अपंग असमर्थ हैं, जिनके परिजन या सहायक नहीं उनकी आजीविका का प्रबन्ध सरकार को या समाज के दान-संस्थानों को स्वयं करना चाहिए, जिससे इन अपंग लोगों को बार-बार हाथ पसार कर अपना स्वाभिमान न खोना पड़े और बचे हुए समय में कोई उपयोगी कार्य कर सकें। अच्छा हो ऐसी अपंग संस्थाएं जगह-जगह खुल जायँ और उदार लोग उन्हीं के माध्यम से वास्तविक दीन दुखियों की सहायता करें।
बहानेबाज़ समर्थ लोगों को भिक्षा नहीं देनी चाहिए। इससे आलस और प्रमाद बढ़ता है, जनता को अनावश्यक भार सहना पड़ता है और आडम्बरी लोग दुर्गुणों से ग्रस्त होकर तरह-तरह से जनता को ठगते एवं परेशान करते हैं। भजन का उद्देश्य लेकर चलने वालों के लिए भी यही उचित है कि वे अपनी आजीविका स्वयं कमायें और बाकी समय में भजन करें।
58—मृत्यु भोज की व्यर्थता
किसी के मरने के बाद उस घर में दो सप्ताह के भीतर विवाह शादियों जैसी दावत का आयोजन होना दिवंगत व्यक्ति के प्रति अपमान है। दावतें तो खुशी में उड़ाई जाती है। मृत्यु को शोक का चिन्ह मानते हैं तो फिर दावतों का आयोजन किस उद्देश्य से? मृतक के मित्रों और संबंधियों के लिए भी यही उचित है कि इस क्षतिग्रस्त की कोई सहायता न कर सकते हों तो कम-से-कम दावतों की सलाह देकर उसका आर्थिक अहित तो न करें।
मृतक की आत्मा को शान्ति देने के लिए धार्मिक कृत्य कराये जायँ, सहानुभूति प्रकट करने वाले लोग यदि दूर से आये हैं तो वे भी ठहरें, घर, परिवार और सम्बन्धी लोग श्राद्ध के दिन एक चौके में खायें। यहाँ तक तो बात समझ में आती है। पर बड़े-बड़े मृत्यु भोज सर्वथा असंगत हैं। उनकी न कोई उपयोगिता है और न आवश्यकता। ऐसे शुभ कार्यों में जिनसे मानवता की कोई सेवा होती हो श्राद्ध के उपलक्ष में कितना ही बड़ा दान किया जा सकता है, वही सच्ची श्रद्धा का प्रतीक होने से सच्चा श्राद्ध कहा जा सकता है।
59—जेवरों में धन की बर्बादी
जेवरों में धन की बर्बादी प्रत्यक्ष है, जो पैसा किसी कारोबार में या ब्याज पर लगाने से बढ़ सकता था वह जेवरों में कैद होने पर दिन-दिन घिसता और कैद पड़ा रहता है। टूट-फूट, मजदूरी, टाँका, बट्टा में काफी हानि सहनी पड़ती है। पहनने वाले का अहंकार बढ़ता है। दूसरों में ईर्ष्या जगती है। चोर-लुटेरों को अवसर मिलता है। जिस अंग में उन्हें पहनते हैं वहाँ दबाव और अस्वच्छता बढ़ने से स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। चमड़ी कड़ी पड़ जाती है और पसीने के छेद बन्द होते हैं। नाक के जेवरों से तो सफाई में तो भी अड़चन पड़ती है। विवाह शादियों के अवसर पर तो वह एक समस्या बन जाते हैं। दहेज जैसी हानिकारक प्रथा का मूल भी जेवरों में रहता हैं। लड़की वाले जब तक जेवरों की आवश्यकता अनुभव करेंगे तब तक लड़के वाले दहेज भी माँगते रहेंगे। जेवरों का शौक हर दृष्टि से हानिकारक है इसे छोड़ने में ही लाभ है।
60—भूत-पलीत और बलि प्रथा
भूत-पलीतों का मानसिक विभ्रम पैदा करके स्याने-दिवाने और ओझा लोग भोली जनता का मानसिक और आर्थिक शोषण बुरी तरह करते हैं। मानसिक रोगों, शारीरिक कष्टों एवं दैनिक जीवन में आती रहने वाली साधारण सी बातों को भूत की करतूत बना कर व्यर्थ ही भोले लोग भ्रमित होते हैं। उस भ्रम का इतना घातक प्रभाव पड़ता है कि कई बार तो उस प्रकार के विश्वास से जीवन-संकट तक उपस्थित हो जाते हैं।
धर्म-ग्रन्थों में जिन देवी-देवताओं का वर्णन है उनकी संख्या भी पर्याप्त है। पर उतने से भी संतोष न करके लोगों ने जाति-जाति के, वंश-वंश के, गाँव-गाँव के, इतने अधिक देवता गढ़ लिये हैं कि आश्चर्य होता है। उन पर मुर्गे, अंडे, भैंसे, बकरे, सुअर, आदि चढ़ाते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि दया और प्रेम के लिए बने हुए देवता अपने ही पुत्र पशु-पक्षियों का खून पीवें।
हमें एक परमात्मा की ही उपासना करनी चाहिए। और इन भूत-पलीतों के भ्रम जंजाल से सर्वथा दूर रहना चाहिए। जनसमाज को भी इससे बचाना चाहिए। और भी अनेकों कुरीतियाँ विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में पाई जाती हैं। हानिकारक और अनैतिक बुराइयों का उन्मूलन करना ही श्रेयस्कर है। सभ्य समाज को विवेकशील ही होना चाहिए और इन उपहासास्पद विडम्बनाओं से जल्दी ही अपने को मुक्त कर लेना चाहिए।