ज्ञान को उपनिषदों में अमृत कहा गया है। जीवन को ठीक प्रकार जीने और सही दृष्टिकोण अपनाये रहने के लिए प्रेरणा देते रहना और श्रद्धा स्थिर रखना यही ज्ञान का उद्देश्य है। जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया उनका मनुष्य जन्म धन्य हो। शिक्षा का उद्देश्य भी ज्ञान की प्राप्ति ही है । सद्ज्ञान को ही विद्या या दीक्षा कहते हैं। जिसे यह सम्पत्ति प्राप्त हो गई उसे और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।
जीवन में ज्ञान को कैसे धारण किया जाय और उसे व्यापक कैसे बनाया जाय, इस सम्बन्ध में कुछ कार्यक्रम नीचे प्रस्तुत हैं—
31—आस्तिकता की आस्था
आस्तिकता पर गहरी निष्ठा-भावना मन में जमी रहने से मनुष्य अनेक दुष्कर्मों से बच जाता है और उसकी आन्तरिक प्रगति सन्मार्ग की ओर होती रहती है। परमात्मा को सर्व-व्यापक और न्यायकारी मानने से छुपकर पाप करना भी कठिन हो जाता है। राजदंड से बचा जा सकता है पर सर्वज्ञ ईश्वर के दंड से चतुरता करने वाले भी नहीं बचेंगे और सत्कर्मों के द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने और उसकी कृपा प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहेंगे । आस्तिकता व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सुख शान्तिमय बनाये रहने का अचूक साधन है । उसे हर व्यक्ति अपने अन्तःकरण में गहराई तक प्रतिष्ठित रखें यह प्रयत्न करना चाहिए।
चाहे कितना ही व्यस्त कार्यक्रम क्यों न हो प्रातः सोकर उठते और रात को सोते समय कम-से-कम 5-15 मिनट सर्व शक्ति मान, न्यायकारी परमात्मा का ध्यान करना चाहिए और उससे सद्विचारों एवं सत्कर्मों की प्रेरणा के लिए प्रार्थना करनी चाहिए । इतनी उपासना तो प्रत्येक व्यक्ति करने ही लगे। जिन्हें कुछ सुविधा और श्रद्धा अधिक हो वे नित्य नियमपूर्वक स्नान करके उपासना स्थल पर गायत्री मंत्र अवश्य कर लिया करें। इससे आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है।
32—स्वाध्याय की साधना
जीवन निर्माण की आवश्यक प्रेरणा देने वाला सत्साहित्य नित्य नियमपूर्वक पढ़ना ही चाहिए। स्वाध्याय को भी साधना का ही एक अंग माना जाय और कुछ समय इसके लिए नियत रखा जाय। कुविचारों को शमन करने के लिए नित्य सद् विचारों का सत्संग करना आवश्यक है। व्यक्ति का सत्संग तो कठिन पड़ता है पर साहित्य के माध्यम से संसार भर के जीवित या मृतक सत्पुरुषों के साथ सत्संग किया जा सकता है। यह जीवन का महत्वपूर्ण लाभ है, इससे किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिए। जो पढ़े-लिखे नहीं हैं उन्हें दूसरों से सत्साहित्य पढ़ाकर सुनने की व्यवस्था करनी चाहिए।
33—संस्कारित जीवन
जीवन को समय-समय पर संस्कारित करने के लिए हिन्दू धर्म में षोडश संस्कारों का महत्वपूर्ण विधान है। पारिवारिक समारोह के उत्साहपूर्ण वातावरण में सुव्यवस्थित जीवन की शिक्षा इन अवसरों पर मनीषियों द्वारा दी जाती है और अग्निदेव तथा देवताओं की साक्षी में इन नियमों पर चलने के लिए प्रतिज्ञा कराई जाती है तो उसका ठोस प्रभाव पड़ता है । पुँसवन,सीमन्त, नामकरण, मुण्डन, अन्न प्राशन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि आदि संस्कारों का कर्मकाण्ड बहुत ही शिक्षा और प्रेरणा से भरा हुआ है। यदि उन्हें ठीक तरह किया जाय तो हर व्यक्ति पर गहरा प्रभाव पड़े।
खेद है कि संस्कारों के कर्मकाण्ड अब केवल चिन्ह पूजा मात्र रह गये हैं। उनमें खर्च तो बहुत होता है पर प्रेरणा कुछ नहीं मिलती। हमें संस्कारों का महत्व जानना चाहिए और कराने की विधि तथा शिक्षा को सीखना समझना चाहिए। संस्कारों का पुनः प्रसार किया जाय और उनके कर्मकाण्ड इस प्रकार किये जायँ कि कम-से-कम खर्च में अधिक-से-अधिक प्रेरणा प्राप्त कर सकना सर्वसुलभ हो सके।
34—पर्व और त्यौहारों का सन्देश
जिस प्रकार व्यक्ति गत नैतिक प्रशिक्षण के लिए संस्कारों की उपयोगिता है उसी प्रकार सामाजिक सुव्यवस्था की शिक्षा पर्व और त्यौहारों के माध्यम से दी जाती है। हर त्यौहार के साथ महत्वपूर्ण आदर्श और संदेश सन्निहित हैं जिन्हें हृदयंगम करने से जन साधारण को अपने सामाजिक कर्त्तव्यों का ठीक तरह बोध हो सकता है और उन्हें पालन करने की आवश्यक प्रेरणा मिल सकती है।
त्यौहारों के मनाये जाने के सामूहिक कार्यक्रम बनाये जाया करें, और उनके विधान, कर्मकाण्ड ऐसे रहें जिनमें भाग लेने के लिए सहज ही आकर्षण हो और इच्छा जगे । सब लोग इकट्ठे हों, पुरोहित लोग उस पर्व का संदेश सुनाते हुए प्रवचन करें और उस संदेश में जिन प्रवृत्तियों की प्रेरणा है उन्हें किसी रूप से कार्यान्वित भी किया जाया करे।
संस्कारों और त्यौहारों को कैसे मनाया जाया करे और उपस्थित लोगों को क्या सिखाया जाया करे इसकी शिक्षा व्यवस्था हम जल्दी ही करेंगे। उसे सीख कर अपने संबद्ध समाज में इन पुण्य-प्रक्रियाओं को प्रचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
35—जन्म-दिन समारोह
हर व्यक्ति का जन्म दिन समारोह मनाया जाय। उसके स्वजन संबंधी बधाई और शुभ कामनाएँ दिया करें। एक छोटा जन्मोत्सव मनाया जाया करे जिसमें वह व्यक्ति आत्म-निरीक्षण करते हुए शेष जीवन को और भी अधिक आदर्शमय बनाने के लिए कदम उठाया करे। बधाई देने वाले लोग भी कुछ ऐसा ही प्रोत्साहन उसे दिया करें। हर जन्मदिन जीवन शोधन की प्रेरणा का पर्व बने ऐसी प्रथा-परम्पराएँ प्रचलित की जानी चाहिएं।
36—व्रतशीलता की धर्म धारणा
प्रत्येक व्यक्ति व्रतशील बने। इसके लिए व्रत-आन्दोलन को जन्म दिया जाना चाहिए। भोजन, ब्रह्मचर्य, अर्थ-उपार्जन, दिनचर्या, खर्च का निर्धारित बजट, स्वाध्याय, उपासना, व्यायाम, दान, सोना-उठना आदि हर कार्य की निर्धारित मर्यादाएँ अपनी परिस्थितियों के अनुकूल निर्धारित करके उसका कड़ाई के साथ पालन करने की आवश्यकता हर व्यक्ति अनुभव करे, ऐसा लोक शिक्षण किया जाय। बुरी आदतों को क्रमशः घटाते चलना और सद्गुणों को निरन्तर बढ़ाते चलना भी इस आन्दोलन का एक अंग रहे। साधना-मय, संयमी और मर्यादित जीवन बिताने की कला हर व्यक्ति को सिखाई जाय ताकि उसके लिए प्रगतिशील हो सकना संभव हो सके।
37—मन्दिरों को प्रेरणा-केन्द्र बनाया जाय
मन्दिर मठों को नैतिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया जाय। इतनी बड़ी इमारतों में प्रौढ़ पाठशालाएँ, रात्रि पाठशालाएँ, कथा-कीर्तन, प्रवचन, उपदेश, पर्व-त्यौहारों के सामूहिक आयोजन, यज्ञोपवीत, मुण्डन आदि संस्कारों के कार्यक्रम, औषधालय, पुस्तकालय, संगीत, शिक्षा, आसन, प्राणायाम, व्यायाम, की व्यवस्था, व्रत आन्दोलन जैसी युग-निर्माण की अनेकों गतिविधियों को चलाया जा सकता है। भगवान की सेवा पूजा करने वाले व्यक्ति ऐसे हों जो बचे हुए समय का उपयोग मन्दिर को धर्म प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाये रहने और उनका संचालन करने में लगाया करें। प्रतिमा की आरती, पूजा, भोग, प्रसाद की तरह ही जन-सेवा के क्रमों को भी यज्ञ माना जाना चाहिए और इनके लिए मन्दिरों के संचालकों एवं कार्यकर्ताओं से अनुरोध करना चाहिए कि मन्दिरों को उपासना के साथ-साथ धर्म सेवा का भी केन्द्र बनाया जाय।
38—गायत्री मन्दिरों में युग-निर्माण केन्द्र
जहाँ पुराने मन्दिरों के संचालक उपरोक्त प्रकार का सुधार करने के लिए तैयार न हों वहाँ गायत्री ज्ञान मन्दिरों की स्थापना करके युग-निर्माण की सत्-प्रवृत्तियों का आरम्भ कर दिया जाय। इस संबंध में अहमदाबाद शाखा ने उत्साहवर्धक पहल की है। उन्होंने समीपवर्ती क्षेत्र में गायत्री का प्रचार करते हुए चौबीस-चौबीस हजार गायत्री मन्त्र लिखाये हैं और करीब 500 व्यक्ति यों के सहयोग से सवा करोड़ मंत्र लिखा कर उन्हें ‘श्रम निर्मित प्रतिमा’ के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। माता का बड़ा चित्र शीशे में मढा कर वहाँ रहेगा और प्रतिदिन पूजा उपासना होती रहेगी। जिनने मंत्र लिखे हैं उनका स्वाभाविक प्रेम और सहयोग रहने से उस केन्द्र में अनेकों सत्-प्रवृत्तियाँ संचालित की जा सकेंगी।
अन्य लोग भी ऐसे ही प्रयत्न कर सकते हैं। 24 हजार मन्त्रों की कापियाँ 100 व्यक्ति यों से लिखा कर 24 लक्ष का एक मंत्र लेखन महापुरश्चरण मूर्तिमान बनाकर किराये के या माँगे हुए कमरे में सुसज्जित रूप से प्रतिष्ठापित कर दिया जाय, और उसी स्थान को युग-निर्माण योजना को प्रसारित करने का केन्द्र बनाया जाय। इमारतें बनाना जरूरी नहीं। शक्तियाँ कार्य विस्तार में लगनी चाहिए। मूर्तियों के भोग प्रसाद का अनिवार्य उत्तरदायित्व उठाने की अपेक्षा बड़े साइज के सुसज्जित चित्रों की ही स्थापना और उनकी पूजा आरती का सामान्य क्रम चलाने में कोई बंधन और खर्च नहीं बँधता। ऐसे छोटे मन्दिर हर जगह आसानी से बन सकते हैं। इनमें जन सहयोग की जितनी आवश्यकता रहती है उतनी धन की नहीं। ऐसे मन्दिर हर जगह बनाये जायँ।
39—साधु ब्राह्मण भी कर्तव्य पालें
पंडित,पुरोहित, ग्राम गुरु , पुजारी,साधु, महात्मा, कथावाचक आदि धर्म के नाम पर आजीविका चलाने वाले व्यक्ति यों की संख्या भारत वर्ष में 60 लाख है। इन्हें जन सेवा एवं धर्म प्रवृत्तियों को चलाने के लिए प्रेरणा देनी चाहिए। ईसाई धर्म में करीब 1 लाख पादरी हैं जिनके प्रयत्न से संसार की तीन अरब आबादी में से करीब 1 अरब लोग ईसाई बन चुके हैं। इधर साठ लाख संत-महंतों के होते हुए भी हिन्दू धर्म की संख्या और उत्कृष्टता दिन-दिन गिरती जा रही है, यह दुख की बात है। इस पुरोहित वर्ग को समय के साथ बदलने और जनता से प्राप्त होने वाले मान एवं निर्वाह के बदले कुछ प्रत्युपकार करने की बात सुझाई-समझाई जाय। इतने बड़े जन समाज को केवल आडम्बर के नाम पर समय और धन नष्ट करते हुए नहीं रहने देना चाहिए।
40—धर्म सेवा का उत्तर-दायित्व
यदि यह प्रयत्न सफल नहीं होता है तो धर्म-प्रचार में उत्तर-दायित्व को हम लोग मिल जुल कर कंधों पर उठावें । हम में से हर व्यक्ति धर्म प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने के लिए कुछ समय नियमित रूप से दिया करे। जिन्हें पारिवारिक उत्तर-दायित्वों से छुटकारा मिल चुका है, जो रिटायर्ड हो चुके है या जिनके घर में गुजारे के आवश्यक साधन मौजूद हैं उन्हें अपना अधिकाँश समय लोकहित और परमार्थ के लिए लगाने की प्रेरणा उत्पन्न हो ऐसा प्रयत्न किया जाय। वानप्रस्थ आश्रम पालन करने की प्रथा अब लुप्त हो गई है। उसे पुनः सजीव किया जाय। ढलती आयु में गृहस्थ के उत्तर-दायित्वों से मुक्त होकर लोग घर में रहते हुए लोक सेवा में अधिक समय दिया करें तो संत-महात्माओं और ब्राह्मण पुरोहितों का आवश्यक उत्तर-दायित्व किसी प्रकार अन्य लोग अपने कंधे पर उठाकर पूरा कर सकते हैं।
शिक्षा के साथ-साथ दीक्षा की-विद्या की-ज्ञान चेतना की अभिवृद्धि भी आवश्यक है। समाज की मानसिक स्थिति को स्वच्छ बनाने के लिए ज्ञान का अधिकाधिक प्रसार होना चाहिए। इसके लिए उपरोक्त प्रकार के अथवा अन्य जो भी उपाय संभव हों उन्हें कार्यान्वित करना चाहिए।